Saturday 31 March 2018

 कांग्रेस आधार कार्ड के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ती है, सॉरी आधार कार्ड तो कांग्रेस की ही स्कीम है ना,
फिर अपनी स्कीम के खिलाफ क्यों केस लड़ती है कांग्रेस !!!
ओह ! याद आया, आधार कार्ड का इस्तेमाल शायद बांग्लादेशियों को भारतीय नागरिक बनाने के लिए करना चाहती थी,जबलपुर में सेना की सबसे बड़ी गोल बारूद की फैक्ट्री से 25 बंगलादेशी गिरफ्तार, 25 में से 24 मजदूरों की जन्म तिथि आधारकार्ड पर 1 जनवरी थी, सब एक ही दिन पैदा हुए थे !!
कर्नाटक में लगभग 1800000 मुस्लिम मतदाताओं के वोट इसलिए कैंसिल हो गए क्योंकि वह दो जगह वोट डालते थे, और आधार कार्ड के कारण वह पकड़े गए !!
 मोदी सरकार ने आधार कार्ड को सेंट्रलाइज करके जो सभी स्कीमों से लिंक किया, इससे छोटे-मोटे घोटालों में कांग्रेसियों को ठेका मिलना बंद हो गया है, इसलिए अपने ही स्कीम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रही है !!
लेकिन फिर भी कांग्रेस को इस बात के लिए तो कम से कम क्लियर होना चाहिए कि उसे आधार कार्ड का समर्थन करना है या विरोध, जहां कांग्रेस संसद भवन और पब्लिक प्लेटफॉर्म पर आधार कार्ड की मम्मी पापा बनने की कोशिश करती है, वहीं सुप्रीम कोर्ट में आधार कार्ड को बंद करवाने के लिए केस लड़ती है !!
अपने ही बनाए आधार कार्ड के खिलाफ कांग्रेस केस लड़ती है, और हम कांग्रेस का साथ देते हैं तो इसका मतलब हम सही में वही हैं जो कांग्रेस समझती है !!
जय बजरंगबली !!

Friday 30 March 2018

इस्लाम में भाईचारा.
-तसलीमा नसरीन
मैंने दिसंबर 1992 में ‘लज्जा’ लिखी थी। सोचा था कि धीरे-धीरे बांग्लादेश की परिस्थिति अच्छी होगी। पंथनिरपेक्षता का माहौल लौटेगा। हिन्दू , मुसलमान, बौद्ध, ईसाई फिर से एक साथ सुख-शांति से रहेंगे। फिर से गाया जा सकेगा-‘हम सब बंगाली’। प्रतिबंधित किए जाने से पहले मेरी इस किताब की 50 हजार प्रतियां बिकी थीं। प्रतिबंध के बाद किताब की नकली प्रतियां पड़ोसी देशों में भी फैल गई थीं। यूरोप, अमेरिका के प्रकाशक ‘लज्जा’ के प्रकाशन की अनुमति चाह रहे थे। करीब 30 भाषाओं में उसका अनुवाद हुआ, पर ‘लज्जा’ लिखने, प्रकाशित करने और बेचने का क्या लाभ हुआ? जिस ‘लज्जा’ को लिखने पर सांप्रदायिक तत्वों की घृणा मिली, सरकार ने आंखें तरेरी, प्रतिबंधित लेखिका के रूप में निर्वासित हुई, पुस्तक मेले में मुस्लिम कट्टरपंथियों के हमले का शिकार हुई और अल्पसंख्यक (हिन्दू) कट्टरपंथियों की स्वार्थ रक्षा के झूठे आरोप लगे उसी ‘लज्जा’ को पढ़कर सांप्रदायिक लोगों का विवेक नहीं जगा।
‘लज्जा’ पढ़ने के बाद भी हिन्दू विरोधी मुसलमानों को लज्जा नहीं आई। उलटे वे और आक्रामक हो गए। सत्य बोलने के अपराध में 22 वर्षो से निर्वासन की सजा काट रही हूं। इसके बावजूद बांग्लादेश में कहीं भी सांप्रदायिकता के खिलाफ आंदोलन होता है तो उसका समर्थन करती हूं।
इस समय बांग्लादेश से जो खबरें मिल रही हैं उससे मैं बेहद चिंतित हूं। उम्मीद की जो किरण दिखाई दे रही थी वह बुझ चुकी है। देश में मुक्त विचारधारा वाले ब्लॅागरों, लेखकों की हत्या हो रही है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी मारा जा रहा है।
कुछ दिन पहले ही ङिानाइदह में तीन आतंकियों ने 70 वर्षीय हिन्दू पुरोहित अनंत कुमार गांगुली की हत्या कर दी। गांगुली साइकिल से नलडांगा बाजार के मंदिर जा रहे थे। बाइक सवार हत्यारों ने धारदार हथियारों से उनकी हत्या कर दी। गांगुली नास्तिक नहीं थे। इस्लाम की आलोचना करते हुए ब्लॅाग या किताब भी नहीं लिखते थे। उनकी हत्या की एक मात्र वजह यह थी कि वह अल्पसंख्यक धार्मिक समूह से थे। इसके बाद पाबना के हिमायतपुर में अनुकूल ठाकुर के सत्संग आश्रम के नित्यरंजन पांडे की हत्या कर दी गई। नित्यरंजन ने इस्लाम की निंदा नहीं की थी। उनका एक ही अपराध था कि वह भी अल्पसंख्यक थे। इसके पहले हिंदू दर्जी निखिल चंद्र की हत्या कर दी गई थी। सिर्फ अल्पसंख्यक नहीं, कुछ दिन पहले सुनील गोमेज नामक एक ईसाई किराना दुकानदार की भी धारदार हथियार से हत्या की गई। एक बौद्ध भिक्षु को भी मार डाला गया। कुछ विदेशियों की भी हत्या हुई, जिनमें एक जापानी तो दूसरा इतालवी था। सुन्नी आतंकी उस मुस्लिम को भी मार दे रहे हैं जिन्हें वह मुसलमान नहीं मानते। सूफी, शिया, अहमदिया किसी को भी बख्शा नहीं जा रहा।
पंचगढ़ में एक अल्पसंख्यक धार्मिक हिन्दू पुरोहित को ग्रेनेड व गोली मारने के बाद उसका गला भी काटा गया। अल्पसंख्यक धार्मिक सुरक्षा के अभाव में पैतृक घर-बार छोड़कर जान बचाने के लिए गुप्त रूप से देश छोड़ रहे हैं। अल्पसंख्यक को जमीन और घर से बेदखल करने का लाभ कई मुसलमानों को मिल रहा है। जमीन व घर पर कब्जे के लिए हिन्दू पर तब तक अत्याचार किया जा रहा जब तक कि वह घर-बार छोड़कर भाग न जाए।
‘लज्जा’ उपन्यास की अच्छाई ठीक उसी तरह चली गई जिस तरह आज अल्पसंख्यक धार्मिक देश छोड़ रहे हैं। भारत के विभाजन के वक्त से ही अल्पसंख्यक धार्मिक देश छोड़ रहे हैं। जनगणना के अनुसार 1941 में अल्पसंख्यकों की आबादी 28 फीसद थी। 1951 में 22.05, 1961 में 18.5, 1974 में 13.5, 1981 में 12.13,1991 में 11.62, 2001 में 9.2 और 2011 में 8.5 प्रतिशत रह गई। 2016 में तो और भी कम हो गई होगी। बांग्लादेश में जिस तरह जेहादियों का आतंक व अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़ रहे हैं और सरकार मूकदर्शक है उससे लगता है कि यहां अल्पसंख्यक खासकर अल्पसंख्यक धार्मिक नहीं बचेंगे। सिर्फ जेहादी और उनके समर्थक ही रहेंगे। वे शरिया या अल्लाह का कानून ले आएंगे। नारी को यौन इच्छापूर्ति की नजर से देखा जाएगा। वाक् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अस्तित्व नहीं रहेगा।
आज जो पार्टी सत्ता में है उसे लोग पंथनिरपेक्ष मानते हैं, पर अब उसके ही शासन में हिन्दुओं के घर जलाए जा रहे, मंदिर तोड़े जा रहे और अल्पसंख्यक धार्मिक लड़कियों से दुष्कर्म हो रहे हैं। प्रधानमंत्री शेख हसीना ने हाल में घोषणा की कि काबा शरीफ की सुरक्षा के लिए वह सऊदी अरब में बांग्लादेशी सेना भेजेंगी। हसीना को सबसे पहले देश की रक्षा के बारे में सोचना चाहिए। जेहादियों के हाथों से देश की रक्षा नहीं होने पर मुल्क की मौत हो जाएगी। जेहादी सरेराह और यहां तक कि घर में घुसकर मुक्त विचारधारा वाले लेखक-ब्लॅागरों, संस्कृति की रक्षा को आवाज उठाने वाले छात्र-शिक्षकों, प्रगतिशील मुसलमानों, अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्या कर रहे हैं। इस खून-खराबे को रोकने और मुल्कको बचाने के लिए प्रतिज्ञा न कर शेख हसीना अल्लाह के घर को बचाने के लिए उस सऊदी अरब के बादशाह को आश्वासन दे आईं जहां से आए पैसे से बांग्लादेश में बड़ी संख्या में कट्टरपंथियों की संस्थाएं खुल गई हैं। उनमें जेहादी तैयार किए जा रहे हैं। अब तो माइंड वॉश के लिए मदरसे की भी जरूरत नहीं है। कट्टरपंथियों के पैसे से स्थापित प्री प्राइमरी स्कूलों में अच्छे से माइंड वॉश का कार्य हो रहा है। बांग्लादेश में धारदार हथियारों से लोगों को मारने के बाद इस्लामिक स्टेट की ओर से गर्व के साथ घोषणा की जाती है कि उन्होंने हत्या कराई है। उन्हें कोई भय नहीं है। वे निश्चिंत हैं कि उन्हें सजा नहीं मिलेगी।
इस्लाम के नाम पर शरिया कानून लागू कराने के लिए जो हत्याएं हो रही हैं उनके बारे में यही लगता है कि सरकार मानती है कि वे अन्य कारणों से हुई हैं। इन हत्याओं के खिलाफ सरकार किसी तरह की चेतावनी नहीं दे रही है। जो भी चेतावनी दी गई है वह लेखकों को दी गई है कि वे इस्लाम की आलोचना न करें। यदि कोई करता है तो उसे जेल में ठूंस दिया जाएगा। मुक्त विचारधारा वालों को सजा देने के लिए 57 आइसीटी एक्ट तैयार किया गया है, लेकिन जेहादियों को सजा देने के लिए किसी तरह का नया कानून नहीं बनाया गया है। बांग्लादेश में आम तौर पर अल्पसंख्यक धार्मिक अवामी लीग को वोट देते हैं। चुनाव के समय विरोधी हिन्दुओं को धमकी देते हैं। चूंकि उन्हें सुरक्षा देने वाला कोई नहीं होता इसलिए अधिकांश अल्पसंख्यक धार्मिक मतदान के दिन घर से बाहर नहीं निकलते। यदि अल्पसंख्यक धार्मिक की हत्या होती है तो किसी का कुछ नहीं आता-जाता। न खालिदा जिया का, न शेख हसीना का और न ही अन्य किसी दल का। हम लोगों को अब और लज्जा नहीं आ रही है, देश की करूण हालत देखकर हम भयभीत हैं।
(सलंग्न चित्र में हैदराबाद में अपनी पुस्तक लज्जा के तेलगू अनुवाद के विमोचन के समय तस्लीमा नसरीन पर कुछ मुस्लिम राजनेताओं ने इस्लाम की शान में गुस्ताखी आरोप लगाते हुए उन पर हमला किया था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थकों ने इस घटना की निंदा करने के स्थान पर रेट में सर दबाना सही समझा था। )
तेंदू फल स्वाद में मीठा होता है ...

तेंदु को टिमरू,टेमरु आदि नामों से जाना जाता हैं.... यह पेड़ छत्तीसगढ़ ,उड़ीसा,यूपी एव अन्य प्रदेश के वनांचल में सघनता से मिलता हैं ..... इस पेड़ के नुकिले पत्तों के बीच फल लगते हैं....... फल पकने के बाद सुनहरे रंग का तथा चिकना एवं खुबसूरत दिखता है....।
तेंदू के पेड़ में लगने वाले तेंदू फल स्वाद में मीठा होता है साथ ही इसके कई आयुर्वेदिक गुण भी है.....स्वाद में मीठा यह फल बहुत ज्यादा पौष्टिक होता है.....तेंदू का फल पौष्टिक होने के साथ पाचन तंत्र को मजबूत और पेट साफ करता है.....शरीर में चोट लगने से लगातार खून बह रहा हो तो तेंदू का रस लगाने से तुरंत खून बहना बंद हो जाता है.....तेंदू के फल से शराब भी बनाई जाती है.....।
वहीँ खून साफ करने के साथ उच्च रक्तचाप को नियंत्रण में रखने में भी कारगर है... वात रोगों के अलावा ये लू से भी यह बचाता है।
तेंदूपत्ता को #हरा_सोना के नाम से जाना जाता है..... शासन के माध्यम से तेंदू पत्ते से #बीड़ीबनाई जाती है... ..जिससे अकेले छत्तीसगढ़ राज्य में हर साल लगभग 600 करोड़ का व्यापार होता है..... इसके माध्यम से करीब 13 से 15 लाख वनवासी परिवार को तेंदूपत्ता संग्रहण के रूप में करोड़ों रुपए का पारिश्रामिक प्राप्त होता है।
संघ के एक बड़े नेता है इंद्रेश कुमार जी ,डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर की १२५ वीं जयंती के अवसर पर उन्हें दिल्ली के हंसराज महाविद्यालय में आमंत्रित किया गया था...संघ के नेता का नाम सुनते ही वहां का माहौल और भी विषाक्त हो गया था.संघ, ब्राहमणवाद और मनुवाद के खिलाफ नारे लगने लगे थे.
हरेक वक्ता आता और सिर्फ जहर उगलता.एक ने कह दिया कि “वी डोंट एक्सेप्ट रामा एस ए सिम्बल ऑफ़ सोशल हार्मोनी“ यानि हम राम को सामजिक समरसता का प्रतीक नहीं मानते क्योंकि उस आर्य राम ने अनार्य बालि का छिपकर वध किया था। उनकी (संघ प्रतिनिधि की) बारी आई तो उन्होंने माइक संभाला और इसी विषय से बोलना शुरू किया.
उन्होने कहा कि......
मान लीजिये कि बालि अनार्य था तो फिर सुग्रीव क्या था ? वो भी अनार्य था. दो अनार्य भाइयों के बीच किसी गलतफहमी के चलते झगड़ा था, झगड़े में बड़े भाई ने छोटे भाई को न सिर्फ मृत्यदंड की सजा दी थी बल्कि उसकी पत्नी को बलात अपने कब्जे में कर रखा था और उसके डर से सुग्रीव मारा-मारा फिर रहा था. त्रिलोक के अंदर बालि के भय से किसी के अंदर ये साहस नहीं था कि वो सुग्रीव को न्याय दिला सके. राम ने सुग्रीव को न्याय दिलाने का संकल्प किया. बालि का वध किया.
अब बालि के वध के बाद आर्य राम ने क्या किया?
राम ने राज्य पर स्वयं कब्ज़ा नहीं किया बल्कि उस पर उसी अनार्य सुग्रीव को प्रतिष्ठित किया.
सुग्रीव की पत्नी रुमा को मुक्त कराकर राम ने उसे अपने अधीन नहीं किया बल्कि उसे ससम्मान सुग्रीव को सौंप दिया.
बालि के परिजनों के साथ भी अन्याय न हो इसलिये राम ने उसकी पत्नी तारा को राज्य की मुख्य पटरानी के पद पर सुशोभित किया और प्रधान सेनापति के पद पर उसके बेटे अंगद को बिठाया.
उस राम को आप सवर्ण कहिये, क्षत्रिय कहिये, मनुवादी कहिये या जो भी कहिये पर सत्य यही है कि राम ने राज्य पर कब्ज़ा नहीं किया, राज्य की किसी संपत्ति को अपने उपयोग में नहीं लिया, रूमा या तारा को प्रताड़ित नहीं किया और न ही बालि के बेटे के साथ अन्याय होने दिया. राम आपके लिये सवर्ण, क्षत्रिय या मनुवादी होंगें पर दुनिया के लिये राम न्याय की मूर्ति थे.
इसके बाद उन्होंने श्रोताओं से मुखातिब होकर कहा कि.....
अगर बालि अनार्य थे तो फिर हनुमान क्या थे?🤔
वो भी अनार्य थे, अब आप सब मुझे बतायें कि आपके अनुसार भारतवर्ष का कौन सा ऐसा आर्य है जिसके यहाँ देवता रूप में हनुमान पूजित नहीं हैं?
हाँ, खुद को अनार्य कहने वाले इन साहब के यहाँ ही हनुमान पूजित नहीं होंगे.
उन्होंने बोलना ख़त्म किया तो पूरी सभा-मंडली उनके पीछे थी, अब वहां उन दलित नेताओं के नाम के नारे नहीं बल्कि उनके नाम के जयकारे लग रहे थे. आयोजक उनसे कह रहे थे कि ये भीड़ आपके बोलने से पहले हमारी थी अब आपकी है.
सन्देश यही है, "वंचित समाज से जुड़िये, उनके पास जाइये, उनसे दर्द सांझा करिए, उन्हें सत्य का ज्ञान कराइए. उनके अंदर सदियों से सिर्फ जहर और अलगाव ही भरा गया है. उनके अंदर की किसी शंका का समाधान करने उनके पास हमसे पहले दूसरे धर्म वाले पहुँच जाते हैं। ये विष-बेल और न बढ़े इसकी जिम्मेदारी हमारी है".
उनको बताइए कि हमारे हिन्दू समाज में जातियों का भेद नहीं था, लैंगिक असमानताएं नहीं थी.
समाज के निचली पायदान पर बैठी शबरी माता के जूठे बेर खाने वाले श्रीराम के सखाओं में वानर वीर सुग्रीव थे तो निषाद राज केवट भी थे,
हमारे महान हिन्दू समाज और भारत देश पर दुर्भाग्य की काली छाया उस दिन से पड़नी आरंभ हुई जब विस्तारवाद की आकांक्षा वाले मजहबों का यहाँ पर पदार्पण हुआ और इस दुर्भाग्य का अंत भी तभी होगा जब हम इन विस्तारवादियों की चाल में नहीं आयें।
धर्म जागरण में अपना सकारात्मक सहयोग करें।
जय श्री राम।
पसंद करेंऔर प्रतिक्रियाएँ दिखाएँ
टिप्पणी करें

भीमराव राम जी अम्बडेकर

 श्रीराम को काल्पनिक मानने वाले कांग्रेसियों और वामपंथियों ने कभी भी बाबा साहब का पूरा नाम देश की जनता की जनता के सामने नहीं आने दिया क्योकि उनके नाम में "रामजी" लगा था।
इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इन कांग्रेसियों और वामपंथियों को "राम" नाम से कितनी एलर्जी हैं, इसलिए इन धूर्तों ने देश की जनता को बाबा साहब का पूरा नाम "भीमराव आंबेडकर" बताया, जबकि उनका पूरा नाम "भीमराव रामजी आंबेडकर" था और संविधान के पन्ने पर बाबा साहब ने भीमराव रामजी आंबेडकर के नाम से ही हस्ताक्षर भी किया था।
रामजी आंबेडकर उनके पिता का नाम था। महाराष्ट्र में पुरानी परंपरा के आधार पर पिता का नाम बेटे मध्य नाम के लिए इस्तेमाल करते आए हैं। यही वजह हैं कि खुद बाबा साहब भी अपना नाम "भीमराव रामजी आंबेडकर" लिखते थे।
B.R. Ambedkar का मतलब ही "भीमराव रामजी आंबेडकर" हैं क्योकि "भीमराव" पूरा एक शब्द हैं, इसलिए इस B.R. Ambedkar में B = भीमराव , R = रामजी।
लेकिन इन धूर्तो ने जनता को B मतलब भीम और R मतलब राव बतलाया।
पिता का नाम केवल रामजी आम्बेडकर नहीं था, आम्बेडकर उपनाम उनके ब्राह्मण गुरु द्वारा दिया हुआ था।
उनके पिता का नाम "रामजी सकपाल" था।
नाम सिर्फ व्यक्तिगत परिचय ही नही व्यक्ति का भौगोलिक,धर्म और संस्कृति का परिचय भी होता है..!
रामविलास पासवान
रामदास अठावले
कांशी राम
बाबू जगजीवन राम
भीमराव राम जी अम्बडेकर

Thursday 29 March 2018

अम्बेड़करवाद v/s मुस्लिम तुष्टिकरण, धर्मान्तरण और इस्लामी भाईचारा
इस्लामी भाईचारा विश्वव्यापी भाईचारा नहीं हैं | वह मुसलमानों के प्रति भ्रातृत्व है | उनका भ्रातृत्व उन्हीं तक, उनके समाज तक ही सीमित हैं | 
 जिस प्रकार वर्तमान राजनीति का मुख्य उद्देश्य मुस्लिम विकास न होकर केवल मुस्लिम तुष्टिकरण ही रह गया है जिसके कारण मुस्लिमों द्वारा की गयी कई बड़ी हिंसक घटनाओ पर भी राज्य हो या केन्द्र प्रशासन मौन रहा है |
इस तुष्टिकरण रूपी विष का बीज आजादी से पूर्व ही बो दिया गया था जिसका विरोध सभी देशभक्तो द्वारा किया गया उन्हीं में से एक नाम डॉ० भीमराव अम्बेड़कर जी का भी है |
तुष्टीकरण की नीति के विरोधी होने के कारण ही बाबा साहेब ने लखनऊ पैक्ट (जिसके आधार पर मुस्लिमों को सीटों का आरक्षण पहली बार मिला था) और नेहरू रिपोर्ट की भी निन्दा की थी |
१९ जनवरी १९२९ को 'बहिष्कृत भारत' में लिखे एक लेख में उन्होंने कहा कि...
"जिस योजना में हिन्दुओं का अहित होता हो वह योजना किस काम की | हम इस रपट का विरोध इसलिए नहीं करते हैं कि वह अस्पृश्यों के अधिकारों का हनन करती है वरन् इसलिए कि उससे हिन्दुओं को खतरा है और सारा हिन्दुस्तान उससे भविष्य में मुसीबत में पड़ सकता है |" (१)
वर्तमान में एक और समस्या देखने में आ रही है कि दलित लोग यहाँ तक की अफसर तक भी अपनी माँगे न पूरी होती देखकर इस्लाम कबूल करने की चैतावनी देते है ऐसे लोग अम्बेड़कर द्रोही है न कि वादी |
डॉ० अम्बेड़कर चाहते तो स्वयं भी इस्लाम या ईसाई धर्म अपना सकते थे मगर भारत माँ का वो सपूत बड़ा ही दूरदर्शी था अतः वे स्वयं कहते थे कि...
"यदि वे इस्लाम धर्म स्वीकार करते हैं तो मुसलमानों की संख्या इस देश में दूनी हो जायेगी और मुस्लिम प्रभुत्व का खतरा भी पैदा हो जायेगा | यदि वो ईसाई धर्म स्वीकार करते हैं तो ईसाईयों की संख्या अधिक बढ़ जायेगी और इससे भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व सुदृढ़ हो जायेगा |" (२)
जिस प्रकार प्रारम्भ में मुस्लमान नवाबो द्वारा भारतीयो का जबरन धर्म परिवर्तन करवाया गया उसी प्रकार का कु कृत्य बटवारे के पश्चात् भी पाकिस्तान और हैदराबाद के निजाम ने भी किया |
जब बाबा साहेब को मुस्लिमों द्वारा दलितो पर किये किये जा रहे अत्याचारों का पता चला तो वो बहुत दुःखी हुए | उन्होनें जहाँ हैदराबाद के निजाम को भारत का दुश्मन बताया वही समाचार पत्रों में दलितो के लिए एक वक्तव्य प्रकाशित करवाया जिसमे उन्होने कहा...
"बलात्-मुस्लिम बनाये जाने से बचने के लिए वे जिस भी प्रकार सम्भव हो भारत आजायें | मुसलमानों पर केवल इसलिये भरोसा अथवा विश्वास न कर लें कि उनकी सवर्ण हिन्दुओं से नाराजगी है, यह बहुत बड़ी भूल होगी |" (३)
जैसा व्यवहार मुस्लिमों का विश्वरभर में है उसे देखते हुए गैर-मुस्लिम जो निर्णय निकालते है ऐसा ही कुछ निर्णय विवेकशील डॉ० अम्बेड़कर जी का भी था | वो कहते हैं...
"इस्लामी भाईचारा विश्वव्यापी भाईचारा नहीं हैं | वह मुसलमानों के प्रति भ्रातृत्व है | उनका भ्रातृत्व उन्हीं तक, उनके समाज तक ही सीमित हैं | जो इस समाज के बाहर हैं उनके प्रति मुसलमान घृणा और शत्रुता रखते हैं | एक सच्चा मुसलमान कभी भी भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना भाई मानने को तैयार नहीं होगा | इसी कारण मौलाना मोहम्मद अली ने एक महान भारतीय और सच्चा मुसलमान होने के बाबजूद मृत्यु के बाद येरूशलम की क्रब में दफनाया जाना पसन्द किया |" (४)
डॉ० अम्बेड़कर जी १९१९ की याद करते हुये लिखते हैं कि...
"स्मरण रखो कि जब खिलाफत आन्दोलन चल रहा था तब भारत के मुसलमान अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर आक्रमण का न्यौता देने चले गये थे |" (५)
मित्रों अन्त मैं बस यही कहना चाहता हुँ कि राजनैतिक पार्टिया डॉ० अम्बेड़कर पर केवल राजनीति करना छोड़कर उनके विचारो पर अमल करे साथ ही वो युवा जो स्वयं को तो अम्बेड़करवादी बताते है परन्तु बीफ पार्टी और आंतकीयो की फाँसी पर नारेबाजी आदि राष्ट्रविरोधी कार्य करते हैं एक बार उस राष्ट्रभक्त को पढ़े और जाने आखिर डॉ० अम्बेड़कर क्या थे ???
Ref::-
(१) *बहिष्कृत भारत -- डॉ० बी• आर• अम्बेड़कर
(२) * डॉ० अम्बेड़कर : व्यक्तित्व एंव कृतित्व-- डॉ० डी• आर• जाटव पृष्ठ २०१
(३) * डॉ० भी• अम्बेड़कर-- डॉ० बृजलाल वर्मा पृष्ठ ३३९-३४०
(४) * राष्ट्रपुरूष डॉ० भीमराव अम्बेड़कर-- डॉ० कृष्ण गोपाल पृष्ठ २०
(५) * थाट्स आन
पाकिस्तान-- डॉ० भीमराव अम्बेड़कर पृष्ठ ९०
ओ३म्...!
जय आर्य ! जय आर्यावर्त !!
विदेशी फसल  ...
स्कूलों में, एवम यदा कदा अखबारों में , ये प्रायः लिखा रहता है कि आलू पोलैंड से आया, टमाटर जापान से , गन्ना ब्राजील से भारत आया आदि। बस ये एक लाइन लिख कर फिर आगे आलू, टमाटर आदि के गुण, सब्जी बनाने की विधि, व्यंजन, औषधीय उपयोग आदि का वर्णन होता है। लेकिन ये कभी नहीं लिखा रहता कि भारत से कौन लेने गया था या वहा से कौन भारत लेकर आया और कब ?
एक 99% सत्य लेख की आड़ में केवल एक झूठ लिख दिया जाता है जिसको हमारा *अवचेतन मस्तिष्क ग्रहण कर लेता है*, और ये एक तथ्य हमको जीवन भर याद रह जाता है ,और ऐसे ही 1% प्रतिदिन के झूठ पढ़ते हुए 10 साल का बालक, *40 वर्ष की उम्र तंक मानसिक गुलाम बन जाता है।*
जबकि सत्य ये है कि पुराणो में सम्राट *पृथु द्वारा कृषि कार्य के विस्तार का प्रसंग आता है*, अग्निपुराण में हजारो औषधीयो एवम अनाज, शक्कर आदी का वर्णन है, निघंटु ग्रंथो में आलू,प्याज,गन्ने, दाल, पालक, घी,दूध, चावल, भिन्डी आदि का औषधीय वर्णन है,संस्क्रत में। महाभारत काल में विदुर जी की पालग साग और द्रौपदी की हांडी के चावल का वर्णन है।
 भगवान् को छप्पन भोग अर्पित करने वर्णन पूजा पद्यति में है और प्राचीनकाल से लेकर कालियुग में *भारत के सम्राट का राज्य तो पृथ्वी के अधिकांश हिस्से था* जोकि कालान्तर में एशिया के कुछ हिस्से तक, 1100 वर्ष पहले तक, सम्राट पृथ्वीराज चौहान के समय तक रहा है।
तो फिर जापान,बर्मा,थायलैंड ये विदेश क्षेत्र कैसे हो गए भारत्त के प्राचीन इतिहास के हिसाब से।आज विशेष एकपोथिया लहसुन केवल आसाम तरफ पाया जाता है । यदि ये कुछ 500 किलोमीटर दूर पाया जाता तो तुरंत इल्लिमिनाती के एजेंट लिख देते कि ये लहसुन भारत में चीन से आया  वस्तुतः चीन का बहुत सारा सीमावर्ती हिस्सा कुछ दशक पहले तक भारत का ही था 
भारत के लोगो को जंगली अज्ञानी, भारत भूमि को साधनविहीन घोषित करने के लिये, *मैक्समूलर की आर्यो के बाहर से आगमन की थ्योरी एवम डिस्कवरी आफ इंडिया किताब को सही साबित करने के लिये* इल्लुमिनाति प्रतिदिन एक झूठ निर्मित करते जाता है और अंग्रेजी अखबार, पत्रिकाएं, मीडिया उसको प्रसारित करते है जोकि फिर हिंदी , क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवादित होकर पुरे देश में फ़ैल जाता है और मानसिक गुलामो की संख्या में वृद्धि होते जाती है।
एक श्रृंखला के रूप में, *यूरोप में जन्मा झूठ*, भारत की किताबो,अखबारों में परोसने वाले कौन, और उद्देश्य क्या ??
साभार अन्यत्र से
विष्णु गुप्त चाणक्य की पोस्ट
पथरी का रामबाण इलाज हैं.पत्थरचट्टा
पत्थरचट्टा को पाषाणभेद, पणफुट्टी,पर्णबीजी,खटूमडी,खाटिया,भष्मपथरी आदि नामों से जाना जाता है.....देखकर आश्चर्य होगा कि इसके पत्ते स्वयं पौधे बनाने में सक्षम होते है,,,एक बार आपकी बागवानी या गमले में लगने के बाद यह आपका स्थाई साथी बन जाता है....।
जितना अद्भुत यह पौधा हैं उतना ही इसका औषधीय महत्व भी हैं,, पथरी में इसका रामबाण इलाज हैं......प्रतिदिन मात्र पत्थरचट्टा के दो पत्तों को अच्छी तरह से धोकर सुबह सवेरे खाली पेट गर्म पानी के साथ चबा के खाएं, एक दो सप्ताह के अन्दर पथरी को यह खत्म कर देता है.... पत्थरचट्टा के एक चम्मच रस में सौंठ का चूर्ण मिलाकर खिलाने से पेट दर्द से राहत मिलती है... यह पथरी के अलावा सभी तरह के मूत्र रोग में लाभदायक होता है...इसके पत्ते को गर्म कर चोंट मोच सूजन पर लगाने से भी काफी आराम मिलता हैं ...।

bangal hindu palayan ---vidio report

https://www.facebook.com/100000791530259/videos/1752281764808191/
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

https://www.facebook.com/imwithmodiji/videos/716381208486089/

Tuesday 27 March 2018



नाना पाटेकर बॉलीवुड के वह एक्टर हैं, जिनके पास न तो सिक्स पैक एब्स हैं, न ही एक हॉट लुकिंग फेस. बावजूद इसके वह जब भी स्क्रीन पर आते हैं, बड़े से बड़ा एक्टर उनके आगे छोटा नज़र आता है.

ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके पास डायलॉग डिलीवरी का एक खास अंदाज है, जो उन्हें लोकप्रिय बनाता है. फिल्म में उनके महज डायलॉग नहीं होते थे, बल्कि उसमें एक सच्चाई छलकती थी. यही कारण है कि दर्शकों को वह सबसे ज्यादा छूते थे.

चूंकि, बॉलीवुड फिल्मों में जिंदगी की असलियत बताने वाले का उनका अंदाज लोगों को हमेशा से भाता रहा है, इसलिए उनको तस्वीरों में जानना दिलचस्प रहेगा-1 जनवरी 1951 को महाराष्ट्र के रायगड जिले में नाना पाटेकर का जन्म हुआ था. वह एक आम मराठी घर से थे, जहां शायद ही किसी ने कभी बॉलीवुड में जाने का मन बनाया होगा. हालांकि, नाना को बचपन से ही एक्टिंग का शौक था. वह कुछ अलग करना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने कम उम्र में ही नुक्कड़ नाटकों में काम करना शुरू कर दिया. उनकी एक्टिंग में एक दम था, जो शुरुआत में ही झलकने लगा था दिलचस्प बात तो यह थी कि नाना की नन्हीं आंखें उस उम्र में एक फिल्म स्टार बनने का सपना देख रही थी, जिस उम्र में उनके अपने पिता उन्हें छोड़कर चले गए थे. इससे नाना का परिवार आर्थिक तंगी का शिकार था. पिता के जाने के बाद परिवार की हालत इतनी खराब थी कि नाना को स्कूल के बाद काम तक करना पड़ा. वह फिल्मों कि पोस्टर चिपकाया करते थे. इस दौर में शायद नाना ने सोचा होगा कि एक वक्त ऐसा भी आएगा, जब उनकी खुद के फिल्मों के पोस्टर चिपकाए जाएंगे खैर, वक़्त के साथ नाना का जीवन सुधरा. उन्होंने शादी करके अपना घर भी बसा लिया. वह बात और है कि इस पड़ाव पर उनके अंदर एक्टिंग का चस्का ख़त्म नहीं हुआ. यह देखते हुए उनकी पत्नी ने ही उन्हें फिर से थिएटर पर ध्यान देने के लिए प्रोत्साहित किया नाना ने पत्नी को निराशा नहीं किया और थिएटर में अपनी एक्टिंग को सुधारने में लग गए. जल्द ही उनकी मेहनत रंग लाई और उनकी बॉलीवुड में इंट्री हो गई. 1978 में उन्हें गमन नाम की फिल्म में काम करने का मौका मिला.इस फिल्म में नाना का किरदार बहुत छोटा था, मगर उसमें उन्होंने सभी का दिल जीत लिया. आगे उन्होंने कुछ-एक मराठी फिल्मों में भी काम किया. वहां नाना को एक अलग पहचान मिली.कहते हैं कि जिस तरह नाना स्क्रीन पर अपने किरदार को जीवित करते थे, वह उस दौर में बहुत कम लोग कर पाते थे. लोगों ने अभी तक चिकने, गोरे और प्यार भरी बातें करने वाले हीरो ही देखे थे, मगर किसी ने भी नाना की तरह दाढ़ी वाला और कड़वी बातें करने वाला व्यक्ति नहीं देखा था धीरे-धीरे बॉलीवुड ने भी नाना की कला को निहारना शुरू किया. थोड़े ही समय में उन्हें आज की आवाज़, अंकुश, प्रतिघात और मोहरे जैसी फ़िल्में मिली, जिनमें उन्होंने अपनी एक्टिंग से धमाल मचा दिया.इसी कड़ी में 1989 को आई नाना की फिल्म ‘परिंदा‘ ने उनकी जिंदगी ही बदल दी. उस फिल्म में उन्होंने एक डॉन की इतनी सच्ची और अच्छी एक्टिंग की थी कि, उन्हें उसके लिए नेशनल और फिल्म फेयर अवार्ड मिला. वह फिल्म बहुत बड़ी हिट हुई थी और 1990 में इंडिया की तरफ से ऑस्कर के लिए गई आगे 1991 में उन्होंने प्रहार फिल्म से अपना डॉयरेक्शनल डेब्यू किया. हालांकि, उन्होंने अभिनय करना नहीं छोड़ा और 1992 में फिल्म अंगार में विलन की भूमिका में दिखे थे जैसे-जैसे नाना पाटेकर फ़िल्में करते जा रहे थे, उनके डायलॉग और भी ज्यादा बढ़िया होते जा रहे थे. अपने डायलॉग की हद तो उन्होंने अपनी अगली दो फिल्म तिरंगा और क्रांतिवीर में पार कर दी. इन फिल्मों में उनके हर डायलॉग पर सिनेमाघरों में तालियाँ बजीं.क्रांतिवीर में आखिरी सीन में नाना पाटेकर का डायलॉग आ गए मेरी मौत का तमाशा देखने…सुनकर तो हर किसी के रोंगटे खड़े हो गए थे. कहते हैं कि उस सीन के लिए ही उन्हें एक बार और नेशनल अवार्ड मिला.(सफलता पाने के बाद नाना की कई फ़िल्में फ्लॉप भी रही. हालांकि, उसके बाद उन्होंने शक्ति, अब तक छप्पन, और अपहरण जैसी सुपरहिट फ़िल्में भी की. वहीं उन्होंने टैक्सी नंबर 9211 और वेलकम में कॉमेडी में भी अपना जौहर दिखाया 2013 में आई उनकी फिल्म ‘दी अटैक्स ऑफ़ 26/11’ में उन्होंने मुंबई हमले का वह चेहरा दिखाया, जिसपर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था व्यक्तिगत जीवन में नाना किसी आम इंसान के जैसे ही हैं. वह अपनी अधिकतर कमाई किसानों में बाँट देते हैं. इतना ही नहीं, जो किसान पैसों की तंगी के कारण आत्महत्या कर लेते हैं. उनके परिवार को भी नाना अपनी और से मदद पहुंचाने की कोशिश करते हैं महाराष्ट्र में किसानों की मदद करने के लिए नाना हमेशा कुछ न कुछ करते रहते हैं. कभी वह ट्विट्टर पर कैम्पेन चलते हैं, तो कभी अपने एनजीओ से उनके लिए पैसे इकट्ठे करते हैं. तरीका जो भी हो वह जरूरतमंद के लिए हमेशा हाथ बढ़ाते हैं (Pic: indiapages)

बॉलीवुड में नाना पाटेकर जैसा एक्टर शायद ही कोई होगा. बॉलीवुड में जिन चीजों को एक कमी माना जाता है, उन्हीं को अपनी ताकत बनाकर नाना पाटेकर ने अपना नाम कमाया.

वह उन चुनिंदा एक्टरों में से हैं, जो किसी भी किरदार को जिंदा कर सकते हैं.

यूँ ही नहीं उन्हें बड़ा एक्टर माना जाता है.
राणा कुम्भा: ऐसे राजपूत शासक जो कभी नहीं हारे, लेकिन…

सूर्योदय का वक्त था.
राणा कुम्भा का पुत्र ऊदा सिंह भगवान शिव के मंदिर में अपनी पीठ के पीछे तलवार लिए किसी का इंतजार कर रहा था. इतने में उसने किसी के आने की आहट के सुनी और शिवलिंग के पीछे जाकर छिप गया.
मंदिर के अंदर जैसे वह शख्स आया ऊदा सिंह ने उसकी गतिविधियों पर चुपचाप नज़र रखना शुरु कर दिया. अगली कड़ी में जैसे ही वह शख्स शिवलिंग के सामने अपना शीश झुकाया, उदय सिंह ने उनका सिर धड़ से अलग कर दिया.
आपको जानकर हैरानी होगी यह व्यक्ति कोई और नहीं राणा कुम्भा थे. इस तरह राणा के बेटे ऊदा सिंह ने अपने ही पिता को मौत के घाट उतार वह कर दिया था, जो जंग में न तो मुगल शासक कर सके और न ही कोई और दुश्मन!
आप सोच में पड़ गए होंगे कि एक बेटा अपने बाप की गर्दन कैसे काट सकता है!
आखिर ऐसा क्या कारण रहे होंगे कि ऊदा सिंह ने अपने पिता को मौत के घाट उतारकर अपना नाम इतिहास में काली सियाही से लिखवा लिया.
बहरहाल, यह जानने से पहले ‘राणा कुम्भा’ को जानना होगा–

कौन थे राणा कुम्भा?

राणा कुम्भा को कुम्भकरण और कँहू राणा कुम्भा के नाम से भी जाना जाता है. उनका जन्म  चितौड़ के राजा राणा मोकल के घर में हुआ था. चूंकि उनके पिता एक प्रतापी राजा थे इस लिहाज से वीरता उन्हें विरासत में ही मिल गयी थी. आगे 1431 ई. में उनके पिता की मृत्यु हो गई, तो 1433 में वह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे और सबसे पहले अपने दुश्मन देवड़ा चौहानों को हराकर आबू पर अपना कब्जा जमाया.
इसके बाद वह मालवा की तरफ आगे बढ़े और सुलतान महमूद खिलजी को बुरी तरह से हार का स्वाद चखाया. अपनी इस जीत को यादगार बनाने के लिए उन्होंने चित्तौड़ में एक कीर्तिस्तंभ बनवाया, जोकि बहुत विख्यात है.
आगे भी उनकी जीत का सिलसिला चलता रहा.
उन्होंने नागौर, नराणा, सारंगपुर, अजमेर, बूंदी, खाटू, चाटूस, मंडोर, मोडालगढ़ जैसे मजबूत क्षेत्रों पर अपना झंडा फहराया. यही नहीं उन्होंने दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह को भी अपना लोहा मनवाया. कहते हैं कि उनके दुश्मनों ने उन्हें कई बार हराने की कोशिश की, किंतु वह अपने मंसूबों में सफल नहीं रहे.
हर बार राणा ने उनको खदेड़ दिया.
Rana Kumbha (Pic: historydiscussion)

दुश्मन एकजुट हो गए, लेकिन…

राणा के विजय अभियान में 1455 की नगौर की लड़ाई को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. इस युद्ध में उन्होंने वहां के राजा मुजाहिद खां को पराजित कर शम्स खां को वहां का राजा बना दिया. उन्हें लगा था कि शम्स उनके साथ वफादारी करेगा, किन्तु उसने सत्ता पर बैठते ही राणा के साथ बगावत कर दी.
उसको सबक सिखाने के लिए राणा ने दोबारा से नागौर पर चढ़ाई कर दी.
नतीजा यह रहा कि शम्स अपनी जान बचाकर गुजरात के बादशाह कुतुबुद्दीन के पास जा पहुंचा. फिर उसकी सेना के साथ राणा का सामना करने आया. उसे लगा था कि वह राणा से युद्ध जीत लेगा, लेकिन राणा की तलवार ने उसकी सेना के छक्के छुड़ा दिए.
अंतत: यह युद्ध राणा के नाम रहा. यह समाचार जैसे ही गुजरात के राजा कुतुबुद्दीन को मिला, उसने 1456ईं में राणा पर खुद धावा बोल दिया. राणा ने उसे भी धूल चटा दी और आगे बढ़ गए.
चूंकि, राणा नागौर के युद्ध में व्यस्त थे, इसलिए मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी ने इस मौके का फायदा उठाया और उनके कई राज्यों पर कब्जा कर लिया. हालांकि, 1458 में राणा ने अपना साहस दिखाते हुए अपने खोए हुए राज्यों को वापस हासिल कर लिया.
Kumbha of Mewar(Representative Pic: theimaginativeconservative)

आखिर क्यों उनका अपना पुत्र बना ‘मौत का कारण’?

35 वर्ष की अल्पायु में नगौर जैसे कई युद्ध अपने नाम करने के कारण राणा कुम्भा राजस्थान के एक ऐसे शासक बन चुके थे, जिनको हराना नामुमकिन सा बन गया!
यही नहीं उन्होंने अपने शासन काल में प्रजा के लिए कुछ ऐसे कार्य किए, जिनके चलते वह उनके दिलों के भी राजा बन गए. उनके द्वारा मेवाड़ में कुल बत्तीस दुर्ग बनाए गए. इनमें चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़ कुछ बड़े उदाहरण हैं.
इस प्रकार राणा की यशकीर्ति चारों ओर फैल गई. साथ ही यह संदेश गया कि जब तक वह जिंदा है, तक तक मेवाड़ की गद्दी पर दूसरा कोई नहीं बैठ सकता. यह संदेश शायद राणा कुम्भा के बड़े बेटे ‘ऊदा सिंह’ के गले से नहीं उतरा.
वह राणा के विपरीत अति महत्वाकांक्षी और क्रूर था. वह मेवाड़ की बागड़ोर अपने हाथों में चाहता था, जोकि पिता के होते हुए संभव नहीं था. उसने सोचा कि जब तक राणा जिंदा हैं, वह राजा नहीं बन सकता.
मुश्किल यह थी कि उन्हें मारना किसी के बस की बात नहीं थी.
इस कारण उसने खुद ही अपने पिता की मौत की साजिश रच डाली. वह जानता था कि उसके पिता रोज सुबह पूजा के लिए अपने भवन के पास मौजूद मंदिर में जाते हैं.
यही एक समय होता था, जब उनके साथ तलवार नहीं होती थी!
इस लिहाज से उनके पुत्र ऊदा सिंह ने इसके लिए पूरी योजना बनाई और मंदिर जैसे पवित्र स्थान को 1468 में अपने पिता के खून से लाल कर दिया.

राणा की मौत के बाद क्या..?

पिता की मौत के बाद ऊदा सिंह सत्ता काबिज करने में तो सफल रहा, लेकिन वह उस गद्दी को अच्छे से संभाल नहीं पाया. अपनी कमजोर पकड़ और अकुशलता के कारण उसने अपने शासन के पांच साल के भीतर ही मेवाड़ के बड़े हिस्सों को खो दिया.
दिलचस्प बात तो यह थी कि उसकी मौत भी अजीब ढंग से हुई. कहते हैं कि वह एक दिन अपने महल परिसर के बाहर था, तभी कड़ाके की बिजली कड़की और उसके ऊपर आकर गिर पड़ी. इससे ऊदा सिंह जल कर राख हो गया और मृत्यु को प्यारा हो गया.
लोगों की ऐसी मान्यता है कि ‘राणा कुम्भा’ खुद बिजली बनकर उसके ऊपर बरसे थे और अपनी हत्या का बदला खुद लिया था.
Uda Singh (Representative Pic: nvsi)
राणा के शरीर को उनके बेटे ऊदा ने भले खत्म कर दिया था, लेकिन इतिहास में राणा अमर हैं. उनकी शौर्यता की कहानी हमेशा युवाओं को प्रेरित करती रहेगी.

sanskar-may-fadake

वासुदेव बलवंत फड़के: गोरों की हुकूमत खाक में मिलाने वाला क्रांतिकारी

अंग्रेजों की गिरफ्त में आकर उस भारतीय स्वतंत्रता सेनानी के हाथ बंध गए थे. सलाखों के पीछे उस कैदी का लहू उबल रहा था. असल में वह गोरों के चंगुल से भागने की फ़िराक में था.

आखिरकार वह समय आ ही गया जब रात के अँधेरे और सन्नाटों ने उसे भाग जाने का संकेत दे दिया.

उसने बाजुओं की ताकत से सलाखों को मोड़कर जेल से निकलने का रास्ता साफ़ कर लिया.

गिरफ्त से छूटकर वह धीरे-धीरे दबे पाँव जेल से बाहर निकला और क़दमों की हरकत को बढ़ा दिया. जेल से भागते हुए वह करीब सत्रह मील दूर आ चुका था.

उधर उस कैदी के फरार होने की खबर से जेल के सुरक्षा पहरेदारों में खलबली मची हुई थी. हर इलाके में उसकी खोज होने लगी. अंत में वह अंग्रजों की नजरों से छुप नहीं पाया और पकड़ा गया.

हम आज एक ऐसे कैदी की बात कर रहे हैं जो भारत माँ का सच्चा वीर सपूत था. आजादी के पहले उसका जलवा इस कदर कायम था कि वह अकेले ही गोरों की टोली पर भारी पड़ने लगा था.

उस क्रांतिकारी का नाम था वासुदेव बलवंत फड़के.

ब्रिटिश शासन काल में उसका सिर्फ एक ही मकसद था… ‘फिरंगियों की गुलामी से हिंदुस्तान की आजादी’.

इस क्रांतिकारी ने इस कदर अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था कि उन्हें घुटने टेकने के लिए मजबूर होना पड़ा था.

स्वतंत्रता की लड़ाई में अक्सर बहुत से जाने पहचाने चेहरों का नाम लिया जाता है मगर वासुदेव का काम ही उनकी असली पहचान थी.

तो चलिए आज इस लेख के माध्यम से जानते हैं वासुदेव बलवंत फड़के के बारे में–
थाली बजाकर किया गुलामी का विरोध, पर…

वासुदेव क्रांतिकारी होने से पहले बहुत ही साधारण जीवन व्यतीत करते थे.

अपने परिवार की जीविका चलाने के लिए वह नौकरी किया करते थे. दफ्तरों में काम करने वाले भारतीय लोगों के साथ अंग्रेजों का दुर्व्यवहार हदें पार कर चुका था.

वासुदेव भी उन्हीं लाचार भारतीयों में से एक थे, परन्तु उन्हें अंग्रेजों की गुलामी पसंद नहीं थी.

इसलिए उन्होंने इसका विरोध करना शुरू कर दिया. इस विरोध को असरदार करने के लिए फड़के ने चौराहों पर थाली और ढ़ाेल बजाकर जन चेतनाओं में जान डालना शुरू कर दिया.

हालांकि लोगों की चुप्पी ने उनकी कोशिशों पर पानी फेर दिया. अंग्रेजी हुकूमत के आगे लोग नतमस्तक हो चुके थे.

उस समय अंग्रेजों का विरोध करने का मतलब जान हथेली पर लेना था. इसलिए लोग सब कुछ जानते हुए भी खामोश हो चुके थे.

उधर फड़के द्वारा किया गया विरोध गोरों के गले नहीं उतर रहा था. यहीं से शुरू हुई वासुदेव बलवंत फड़के और ब्रिटिश हुकूमत के बीच आर-पार की लड़ाई…
अंग्रेजों के विरोध पर तब मिलती थी ‘मौत’

अंग्रेजों द्वारा भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों पर किये गए जुल्म की दास्तान बहुत लंबी है. आजादी की लड़ाई के समय भारत के वीर सपूतों ने जिस तरह से देश को आजाद कराया, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है.

ब्रिटिश शासन के खिलाफ जाने वालों को मौत के घाट उतार दिया जाता था. इसकी मुख्य वजह यह थी कि उनके पास तमंचे, गोला-बारूद और अन्य हथियारों की भरमार थी. जिसकी वजह से भारत के लोग अंग्रेजों के आगे सिर झुकाकर गुलामी करने के लिए मजबूर थे.

उन दिनों गणेश जोशी और महादेव गोविंद रानडे जैसे समाजसेवियों की विचारधाराओं ने वासुदेव को काफी प्रभावित किया.

वह लोगों को अंग्रेजों की गुलामी करने से मना करते थे. लोग उनका साथ देने की बात तो कहते पर अंग्रेजों का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे.

वासुदेव समझ चुके थे कि उनके खुले विरोध का कोई असर नहीं होने वाला. अब वह ऐसे मौके की तलाश में थे जब उनका विरोध गोरों पर सीधा वार करता.
प्राकृतिक आपदा और अंग्रेजों के ‘जुल्म’sanskar-may -fadake

आजादी की लड़ाई के बीच ही प्राकृतिक आपदा का कहर ऐसा बरपा कि भयंकर अकाल पड़ गया. महाराष्ट्र समेत कोंकण प्रदेश और अन्य इलाकों में सूखे ने तबाही मचा दी.

भयंकर सूखे ने लोगों को मरने पर मजबूर कर दिया. अंग्रेजों ने लोगों के खून पसीने की कमाई और अन्न पानी से अपना राजकोष पहले ही भर लिया था. आपदा को देख गोरों ने लोगों को अन्न देने से मना कर दिया और उन पर जुल्म ढ़ाने लगे.

अंग्रेजों द्वारा लोगों पर हो रहे जुल्म देख वासुदेव हैरान हो गए. उन्होंने लोगों को आवाज उठाने की बात कही पर लोगों पर कोई असर नहीं हुआ.

वासुदेव ने लक्ष्य बनाया कि वह अंग्रेजों का हर तरह से विरोध करेंगे. इसलिए उन्होंने गोरिल्ला युद्ध की नीति अपना कर गोरों पर वार किये जाने की योजना तैयार की.
गोरों का माल लूटने के लिए तैयार हुईं सैनिकों की टोलियाँ

वासुदेव महाराष्ट्र के कुछ किसानों को बटोरकर सैनिकों की टोलीयां तैयार करने लगे. उन सैनिकों को गुप्त जगहों पर लोगों से दूर गुफाओं में असलहा चलाने की शिक्षा दी जाने लगी, ताकी वह अंग्रेजों के हथियारों का सामना कर सकें.

धीरे-धीरे उनकी सैन्य शक्ति बढ़ती गयी और बगावत का रास्ता साफ़ होता नजर आने लगा. नौजवानों का दल अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए लगभग तैयार हो चुका था.

फड़के अंग्रेजों पर गुपचुप वार करने की फिराक में थे. योजना के अनुसार उनके सैनिकों ने महीने भर के अंदर ही गोरों के रसूखदारों को लूटकर भूचाल खड़ा कर दिया.

इससे अंग्रेजों के टुकड़ों पर पलने वाले चमचों की नैया डूब गयी.

इन हादसों का असर सीधा लंदन में बैठे गोरों की सियासत पर पड़ा. देश भर में अंग्रजों के साथ हो रहे लूटपाट ने उनके कान खड़े कर दिए. ब्रिटिश सरकार की यह समझ नहीं आ रहा था कि यह काम आखिर है किसका?

अंग्रेजों के साथ लूटपाट की घटना की तह तक जाने और उनसे बगावत करने वाले सैनिकों को रास्ते से हटाये जाने के लिए अंग्रेजों के अफसर रिचर्ड को यह जिम्मेदारी सौंपी गयी.

कुछ समय बाद ही इन घटनाओं के पीछे वासुदेव का हाथ होने की खबर रिचर्ड के कानों तक पहुँच गयी.
रिचर्ड ने वासुदेव को पकड़ने का लगवाया इश्तेहार, रखा इनाम…

गोरों के अफसर रिचर्ड ने अंग्रेजों से बगावत करने के जुर्म में वासुदेव बलवंत फड़के के सिर पर इनाम रख दिया.

गली-गली वासुदेव को पकड़ने के लिए बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाये गए थे, जिसमें पकड़ने वाले को इनाम दिए जाने का जिक्र भी था.

इसके कुछ दिनों बाद ही वासुदेव ने रिचर्ड का सिर काटकर लाने वाले को इनाम दिए जाने वाला पोस्टर लगवा दिया. इससे रिचर्ड और अंग्रेजों का गुस्सा और फूट पड़ा. जगह जगह वासुदेव की तलाश होने लगी.

कुछ समय बाद ही वासुदेव अंग्रेजों के हाथ लग गए. इसके साथ ही वासुदेव की लड़ाई का अंत नजदीक आ गया.

जेल में उस वीर सिपाही पर अंग्रेजों ने अनेकों यातनायें की और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया.

इसके बाद उन्हें कालापानी की सजा देकर अंडमान जेल भेज दिया गया. वहां से भागने की फ़िराक में वह पकडे़ गए. 17 फरवरी सन 1883 में फड़के बंदीगृह में ही भारत माता के आँचल में सदा के लिए सो गए. उनके साथ कुछ समय के लिए आजादी की लड़ाई भी रुक गई.वासुदेव बलवंत फड़के भारत के उन सपूतों में से एक हैं जिन्होंने देश के लिए अपना बलिदान दे दिया. हालाँकि आज भी लोग उनसे अनजान हैं. बहुत कम लोग ही जानते हैं अंग्रेजों के खिलाफ उनके द्वारा उठाए गए इस साहसी कदम के बारे में.

पर जब भी भारत की आजादी की बात होगी उसमें वासुदेव बलवंत फड़के का नाम जरूर आएगा.

sanskar-may



ऊदा देवी: 30 अंग्रेजों को अकेले मार गिराने वाली वीरांगना
9 FEBRUARY 2018
इतिहास


Umesh Kumar Ray


भारतीय इतिहास में दर्ज लड़ाईयों में महिलाओं का हमेशा ही अहम किरदार रहा!

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, मातंगिनी हाजरा, लक्ष्मी सहगल समेत तमाम महिलाओं की बहादुरी के किस्से इतिहास की किताबों में दर्ज हैं.

ऐसी वीरांगनाओं की फेहरिस्त में एक नाम ऊदा देवी का भी है. ऊदा देवी पासी जाति सेताल्लुक रखती थीं. उन्होंने अकेले 30 से अधिक ब्रिटिश सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था.

…तो आइये रूबरू होते हैं ऊदा देवी की दिलेरी की दास्तान से–
पति से प्रेरणा ले महिला दस्ते में हुईं भर्ती

ऊदा देवी का जन्म शामों के लिए मशहूर अवध के उजरियांव में हुआ था. उनके जन्म की ठीक-ठीक तारीख कहीं दर्ज नहीं है, इसलिए वह कब पैदा हुईं यह बताना मुश्किल है. वक्त के साथ-साथ वह बड़ी हुईं और फिर उनके साथ वहीं हुआ, जोकि उस जमाने के लिए आम बात थी.

कम उम्र में ही उनकी शादी मक्का पासी नाम के युवक से कर दी गयी. इस तरह वह ससुराल पहुंच गई, जहां उन्हें एक जगरानी नाम का एक नया नाम मिला.

यह साल 1847 के वक्त के किसी टुकड़े की बात रही होगी. फरवरी का महीना था. सर्दी खुद को समेटकर जाने की तैयारी में थी. वसंत ऋतु दहलीज पर खड़ी थी. तभी अमजद अली शाह के पुत्र वाजिद अली शाह छठवें नवाब के बतौर अवध व लखनऊ पर नये-नये गद्दीनशीं हुए. सत्ता संभालते ही उन्होंने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए रंगरूटों की भर्ती करनी शुरू कर दी.

इसी क्रम में ऊदा देवी के पति मक्का पासी वाजिद अली शाह के दस्ते में शामिल हो गये. कहते हैं कि मक्का पासी के देश की आजादी के लिए शाह के दस्ते में शामिल होता देख ऊदा देवी को भी प्रेरणा मिली और वह वाजिद अली शाह के महिला दस्ते में भर्ती हो गईं.


Freedom Fighter Uda Devi (Pic: samyakprakashan)
पति की शहादत से बन गयीं घायल शेरनी!

वाजिद अली शाह की ताजपोशी के एक दशक बाद का वक्त!

यानी 1857 का साल. हिन्दुस्तान की आजादी का पहला गदर शुरू हुआ था. सैनिक विद्रोह की शक्ल में. अलग-अलग जगहों पर देश के वीर सपूत अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे.

10 जून सन 1857 का यह वाकया है. अंग्रेजों ने अवध पर हमला कर दिया था. लखनऊ के इस्माइलगंज में ब्रिटिश हुकूमत की सैनिक टुकड़ी से मौलवी अहमद उल्लाह शाह के नेतृत्व में एक पलटन लड़ रही थी. इस पलटन में ही मक्का पासी भी थे.

अंग्रेजों से लड़ते हुए वह वीरगति को प्राप्त हुए. यह खबर जैसी ही ऊदा देवी तक पहुंची वह घायल शेरनी की मानिंद दहाड़ने लगीं. उन्होंने अंग्रेजों से इसका प्रतिशोध लेने की ठान ली.

वाजिद अली शाह के महिला दस्ते में तो वह पहले से ही थीं. पति की शहादत के बाद वह इतनी खूंखार बन गयी कि उन्होंने बेगम हजरत महल की मदद से महिला लड़ाकों का पृथक बटालियन बना लिया. बेगम हजरत महल ने लखनऊ में1857 की क्रांति को नेतृत्व दिया था. उनकी अलग कहानी है. इस पर चर्चा फिर कभी…


Begum Hazrat Mahal (Pic: drawinglics)
पीपल पर चढ़ कर मारे फिरंगी सैनिक

लखनऊ के सिकंदर बाग की तामिर वाजिद अली शाह के लिए की गयी थी. वह इस बाग में बने महल में गर्मी में रहा करते थे. 1857 के गदर में यह बाग ब्रिटिश फौज और आजादी के दीवानों के खून से लाल हो गया था.

इसी बाग में ऊदा देवी ने अपने युद्ध कौशल और दिलेरी से अंग्रेजों को भी हैरान कर दिया था.

कहानी नवंबर 1857 की है. सर्दी आ चुकी थी. लेकिन, मुल्क के माहौल में गरमी थी. अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह तेज था. इस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजी फौज लखनऊ की तरफ बढ़ रही थी. भारतीय लड़ाके सिकंदर बाग में पोजिशन लिये हुए थे.

इन लड़ाकों में ऊदा देवी भी शामिल थीं. उन्होंने पुरुषों के लिबास पहन रखे थे और पिस्तौल तथा गोलियों से लैस थीं. अंग्रेजी फौज सिकंदर बाग में प्रवेश करती, उससे पहले ही वह प्रवेश द्वार पर लगे पीपल के पेड़ पर चढ़ गयीं.

उन्होंने पेड़ पर से ही गोलियां बरसानी शुरू कर दीं और 30 से ज्यादा अंग्रेजी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. अपने पराक्रम से उन्होंने काफी देर तक अंग्रेज सैनिकों को प्रवेशद्वार पर ही रोके रखा.
…और हो गयीं मृत्यु को प्यारी!

इधर 30 से ज्यादा सैनिकों के हलाक होने से अंग्रेजी फौज खौफजदा थी.

उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आखिरकार गोलियां कहां से चल रही हैं. अंग्रेजों ने जब मारे गये सैनिकों के शरीर में लगी गोलियों के निशान देखे, तब उन्हें पता चला कि कोई ऊपर से फायरिंग कर रहा है.

उन्होंने आसपास नज़र उठाकर देखा तो पाया कि कोई पीपल के पेड़ के झुरमुट में छिपकर गोलियां चला रहा है. इस पर अंग्रेजों ने भी जवाबी कार्रवाई करते हुए गोलियां चलायीं. गोलियां लगते ही ऊदा देवी गश खाकर नीचे गिर पड़ीं.

उनका नीचे गिरना था कि अंग्रेजों ने ताबड़तोड़ गोलियां दागनी शुरू कर दीं. उनके प्राण पखेरू उड़ गये, तब जाकर अंग्रेज उनके करीब पहुंचे और देखा कि जिसे वे पुरुष मान रहे थे, वह तो एक औरत थी!

जिस टुकड़ी के साथ ऊदा देवी की मुठभेड़ हुई थी, उसकी अगुवाई जनरल काल्विन कैम्बेल कर रहे थे. ब्रिटिश सैनिक और जनरल काल्विन इस महिला के अदम्य साहस से अचंभित थे. ऊदा देवी की वीरता ने काल्विन को भी चकित और अभिभूत कर दिया था.

इतना अभिभूत कि उन्होंने हैट उतारकर उन्हें श्रद्धांजलि दी थी.

सिकंदर बाग में हुई इस घनघोर लड़ाई में 2 हजार भारतीय लड़ाकों की शहादत हुई और काफी संख्या में ब्रिटिश फौज के जवान भी मारे गये थे.


Freedom Fighter Uda Devi (Pic: quora)
लंदन टाइम्स में ऊदा देवी का जिक्र!

इस जंग के एक साल बाद युद्धों की दर्दनाक तस्वीरें खींचने के लिए मशहूर इतालवी ब्रिटिश फोटोग्राफर फेलिस बीतो ने सिंकदर बाग की एक तस्वीर ली थी. सफेद-स्याह इस तस्वीर में इधर-उधर बिखरे पड़े नरकंकाल चीख-चीखकर युद्ध की भयावहता बताते हैं.

वहीं सन् 57 के गदर के दौरान लंदन टाइम्स अखबार के वार कॉरेस्पोंडेंट विलियम हावर्ड रसेल लखनऊ में ही कार्यरत थे. सिकंदर बाग में हुई लड़ाई के बाद उन्होंने लंदन स्थित लंदन टाइम्स दफ्तर में खबरें भेजी थीं. इन खबरों में एक खबर सिकंदर बाग के युद्ध की भी थी.

विलियम हावर्ड रसेल ने सिकंदर बाग की लड़ाई को लेकर अपनी खबर में पुरुषों के कपड़े पहनकर एक महिला द्वारा पेड़ से फायरिंग करने और कई ब्रिटिश सैनिकों को मार डालने का जिक्र किया था.


Sikandra Bagh After Slaughter of The Rebels (Pic: getty)

फौलादी इरादे और युद्ध कौशल से ऊदा देवी ने साबित किया था कि देश की आन-बान-शान की बात हो, तो भारत की महिलाएं कितनी भी बड़ी फौज से टकरा सकती हैं.

न केवल टकरा सकती हैं, बल्कि धूल भी चटा सकती हैं.

sanskar-may-mahabharat


महाभारत में इस्तेमाल हुए सबसे खतरनाक हथियार


शायद ही कोई महाभारत की लड़ाई से अनजान होगा, ऐसा कोई नहीं जिसने इसके बारे में न सुना हो! इसे भारत की सबसे बड़ी लड़ाई माना जाता है.

इस जंग का विवरण बहुत ही बारीकी से किया गया है. उससे ही पता चलता है कि उस समय किन हथियारों से यह युद्ध लड़ा गया था.

तो चलिए आज आपको बताते हैं, महाभारत में कौन से खतरनाक हथियारों का इस्तेमाल किया गया था –
सुदर्शन चक्र

प्राचीन कथाओं के अनुसार सुदर्शन चक्र को ब्रहमांड के सबसे शक्तिशाली हथियारों में से एक कहा जाता है. यह भगवान विष्णु की तर्जनी अंगुली में रहता है.

कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने इस सुदर्शन चक्र को पाने के लिए हजारों साल तक कठोर तपस्या की थी. उनकी इस तपस्या पर भगवान शिव की नजर पड़ी और उन्होंने भगवन विष्णु को कुछ भी मांगने के लिए कहा.

इसके बाद भगवान विष्णु ने भगवान शिव से एक ऐसा शक्तिशाली हथियार मांगा, जिससे सभी असुर मारे जा सकते हों. तब जाकर उन्हें भगवान शिव ने सुदर्शन चक्र प्रदान किया.

कहते हैं कि सुदर्शन चक्र को जो भी लक्ष्य दिया जाता था, वह बिना उसको खत्म करे वापस नहीं आता था. महाभारत में श्री कृष्ण के पास यह सुदर्शन चक्र था.


Sudarshana Chakra. (Pic: pinterest)
त्रिशूल

त्रिशूल को हिन्दू धर्म में एक आस्था पर प्रतीक माना जाता है. हिंदू धर्म के अनुसार ये भगवान शिव का अनन्य और बेहद खतरनाक हथियार है. भगवान शिव कहीं भी जातें है, अपने साथ त्रिशूल को जरूर रखते हैं.

माना जाता है कि इस हथियार का प्रयोग महाभारत और रामायण काल में दोनों में किया गया था. वहीं इसी हथियार से भगवान शिव ने अपने पुत्र गणेश का सर भूलवश धड़ से अलग कर दिया था. भाले की तरह दिखने वाले इस त्रिशूल में आगे की ओर तीन तेजधार चाकू लगे होते हैं.


Trishula. (Pic: lotussculpture)
पाशुपतास्त्र

त्रिशूल की तरह पाशुपतास्त्र भी भगवान शिव का ही अस्त्र है. यह हथियार अविश्वसनीय रूप से बहुत विनाशकारी माना जाता है. कहा जाता है कि यह इतना घातक है कि पूरी सृष्टि को नष्ट करने की सक्षम रखता है.

यह दिखने में एक तीर की तरह है, जिसको चलाने के लिए एक धनुष का प्रयोग किया जाता है.

भगवान शिव ने पाशुपतास्त्र को महाभारत के नायक अर्जुन को दिया था. वह बात और है कि अर्जुन ने इस हथियार का दुरुपयोग महाभारत के युद्ध में नहीं किया.

असल में अगर वह इस हथियार का प्रयोग कर देते, तो पूरी दुनिया नष्ट हो सकती थी.


Pashupatastra (Pic: wikipedia)
ब्रह्मास्त्र

ब्रह्मास्त्र, भगवान ब्रह्मा द्वारा बनाया गया हथियार है. पुराणों के अनुसार इसको भी काफी घातक हथियार माना जाता है. एक बार अगर यह किसी पर छोड़ दिया जाए, तो फिर इसे रोक पाना मुश्किल होता था. इसको बहुत ही विशेष स्थिति में प्रयोग किया जाता था.

यह किसी परमाणु बम से कम नहीं था, चूंकि, ब्रह्म देव को सनातन धर्म में सृष्टिकर्ता माना जाता है, इसलिए ब्रह्मास्त्र को धर्म और सत्य को कायम रखने के उद्देश्य से बनाया गया था.

ऐसा माना जाता है कि जिस जगह पर इसका इस्तेमाल किया जाता है, वह जगह सालों तक बंजर रहती है और उस जमीन के आसपास जीवन का अस्तित्व नहीं रहता, वहीं वहां रहने वाले महिलाएं बांझ हो जाती थीं.

एक बार महाभारत के युद्ध के दौरान अर्जुन और अश्वत्थामा दोनों ने अपने-अपने ब्रह्मास्त्र को अपने तीर से छोड़ दिया था, जिसके कारण सब कुछ नष्ट होने वाला था.

वह तो मौके पर व्यास देव ने आकर इनको टकराने से रोक दिया था. हालांकि बाद में अर्जुन ने अपने ब्रह्मास्त्र को वापस बुला लिया लेकिन अश्वत्थामा ऐसा नहीं कर पाए.

बाद में उन्हें इसके फलस्वरूप ताउम्र धरती पर भटकने का श्राप दिया गया.


Brahmastra (Pic: the9degrees)
ब्रह्मशिरा

ब्रह्मशिरा भी भगवान ब्रह्मा के द्वारा बनाया गया हथियार है. यह उनके सबसे प्रमुख हथियारों में से एक था. ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मशिरा, ब्रह्मास्त्र से चार गुना अधिक शक्तिशाली था.

महाभारत युग में परशुराम, भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा और अर्जुन को इस हथियार को चलाने का ज्ञान प्राप्त था. हालांकि, इन सभी ने इस भयंकर गजर्ना करने वाले अस्त्र को प्राप्त करने के लिए कठोर तप किया था, जिसके बाद उन सभी को यह हथियार प्राप्त हुआ था.


Brahmashira Astra. (Pic: mallstuffs)
नारायणास्त्र

नारायणास्त्र भगवान विष्णु का ही एक प्रमुख हथियार है, जिसमें लाखों घातक मिसाइलों की शक्ति थी. माना जाता है कि अगर यह एक बार लक्ष्य की तरफ निकल जाए, तो इसे रोक पाना असंभव ही था.

महाभारत युद्ध के दौरान अश्वत्था‍मा ने पांडव की सेनाओं पर इस हथियार का उपयोग किया था. भगवान कृष्ण, जो विष्णु के अवतार हैं, उन्होंने पांडवों और उनके सभी योद्धाओं को हथियार से बचाव का उपाय बताया था. उन्होंने बताया कि जब यह पास आए तो जमीन पर लेट जाएं.

यह एक प्रकार से हथियार की शक्ति के आगे आत्मसमर्पण जैसा था.

उन्होंने यह भी बताया कि इस हथियार का प्रयोग केवल एक ही बार किया जा सकता है. अगर फिर से कोई इसका इस्तेमाल करता है, तो उसकी अपनी ही सेना इससे खत्म हो जाएगी.


Narayanastra. (Pic: wikipedia)
वज्र

महाभारत युद्ध में कौरवों और पांडव दोनों ही बहुत शक्तिशाली थे, जिसमें कर्ण वज्र से अर्जुन को मारना चाहता था. चूंकि युद्ध के समय अभिमन्यु की मृत्यु हो जाती है, इसलिए सभी पांडव अभिमन्यु के अंतिम संस्कार प्रक्रिया में थे.

इसका फायदा उठाकर कौरव रात में पांडवों पर हमला कर सकते थे. भगवान कृष्ण इसको समझते थे, इसलिए उन्होंने भीम से उसके राक्षस पुत्र घटोत्कच को बुलाने को कहा.

असल में रात के समय में राक्षसों की शक्ति ज्यादा होती है.

ऐसे में जब कौरवों ने पांडवों पर हमला किया तो घटोत्कच काल बनकर उन पर टूट पड़ा हालांकि, उससे बचने के लिए मजबूरन दुर्योधन को वज्र का इस्तेमाल करना पड़ा.


Powerful Weapons Of Mahabharata Vajra. (Pic: deviantart)

तो यह थे कुछ खास हथियार, जो महाभारत के युद्ध के समय प्रयोग किए गए.

कहा जाता है कि यह हथियार आज के परमाणु हथियारों से भी भयानक और खतरनाक थे, जो भयंकर तबाही मचाने की क्षमता रखते थे.

महाभारत के नायकों ने इन हथियारों को कठोर परिश्रम के बाद प्राप्त किया था.

आधुनिक समय में इस तरह के हथियार भले ही मिथक ही माने जाते हैं, लेकिन इन हथियारों की जानकारी महाभारत जैसे हिन्दू धर्मग्रंथों में मिलती है.