Friday 15 December 2017

खतरे की घंटी
हमारे चारो ओर खतरे की घंटियां निरन्तर बज रही हैं,और हम बेखबर है। हम जिन्दा हैं,स्वस्थ हैं - ये ही आश्चर्य का विषय है,न कि बीमार हैं,मर रहे हैं...क्यों कि मरने का सामान हमारे पास अधिक इकट्ठा हो गया है,जीने के साधन की तुलना में। खाद्य –पदार्थ से लेकर वायु और जल तक दूषित ही नहीं अतिशय प्रदूषित हो चुका है,या कहें हमने कर लिया है। और सबकुछ दूषित हो चुका है,तो फिर विचार तो दूषित होना ही है न ! 
परन्तु कमाल की बात तो ये है कि इसे ही हमने विकास मान लिया है। कृत्रिमता के गिरफ्त में हम इस कदर जकड़ते जा रहे हैं कि मूल ही निर्मूल होता जा रहा है। रुप,रस,गन्ध सब कुछ बनावटी हो गया है। हम खुश हैं कि हमने कृत्रिम लहु भी बना लिया है, कृत्रिम हृदय भी...किन्तु दुःख की बात है कि हमारे रिश्ते-नाते,सम्बन्ध भी कृत्रिम ही हो चले हैं। नौ महीने गर्भ के पले बच्चे और टेस्टट्यूब बेबी में आंखिर बिलकुल साम्य कहां से पा सकते हैं ! औरस और दत्तक एक कैसे हो सकता है ! 
निरापद जीवनयापन के लिए कभी विचार करना भी चाहते हैं कि क्या करें,क्या खायें-पीयें,कैसे रहें,कहां रहें....तो थक-हार कर जो सामने दीखता है,उसे ही अंगीकार करने को विवश होजाते हैं। काम और कामनाओं से जकड़े मनुष्य की आबादी भेड़-बकरियों सी बढ़ने लगी,तो हमने विविध निरोधों का सहारा लिया,किन्तु ‘निरोध’शब्द की व्युतपत्ति और मूलार्थ को ही विसार कर। हम ‘अवरोध’ को ही निरोध मान बैठे। ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ में चित्तवृत्तियों का शमन-दमन नहीं है,अवरोध तो बिलकुल ही नहीं है। 
खैर,हम यहां विचार कर रहे थे निरापद जीवन यापन की,जो दिनोदिन दुर्लभ होता जा रहा है। जनसंख्या नियंत्रण के सारे हथकंडे अपना लेने के बावजूद सन्तोष नहीं हुआ ,तो संसाधनों का ही खींचतान करने लगे। जनसंख्या तो बढ़ती रही,पर जमीन को खींच कर बढ़ाना कैसे होता,अतः कृषिभूमि को बढ़ाने में असमर्थता के कारण पैदावार को ही बढ़ाने में जुट गये,ताकि गुणन गति से बढ़ती जनसंख्या की उदर पूर्ति की जासके। प्राकृतिक खाद को विसार कर,कृत्रिम खाद का धुंआधार प्रयोग करने लगे। यूरिया,फॉसफेट और पोटाश के साथ-साथ विविध कीटनाशकों(जानलेवा विष)का प्रचुर प्रयोग इस कदर बढ़ा कि पांच साल के बच्चे को भी यूरिक एसिड की समस्या झेलनी पड़ रही है। आंखिर इस जहर से हम बच भी कैसे सकते हैं? खाद्यान्न से लेकर फल-सब्जियों तक को भयंकर रसायनिक गिरफ्त में धकेल दिया गया है- कुछ विकास के नाम पर,कुछ संरक्षण के नाम पर। फल-सब्जियों तक को इन्जेक्शन लगाया जा रहा है। मांग और पूर्ति के अर्थशास्त्रीय महासूत्र की सार्थकता सिद्ध करने हेतु हम अनर्थ पर अनर्थ किये जा रहे हैं। पूंजीवादी विकास धारा ने इस कदर अंधा बना दिया है कि परिणामवाद पर विचार करने का जरुरत ही नहीं समझते। जैसे भी हो जितना जल्दी हो सके अधिक से अधिक पैसे पैदा कर लेना है। चार दिनों बाद तैयार होने वाले कद्दू को एक रात में ही पिट्यूसीन देकर तैयार कर लेते हैं। एक किलो दूध देने वाली गाय को पिट्यूसीन देकर चार किलो दूध उतार लेते हैं। बछड़े को तो हम पहले ही मार देते हैं,ताकि उसके हिस्से का दूध भी हम पी सकें,और जो अपने गर्भ के बच्चे की चिन्ता नहीं करता वो भला गाय के बच्चे की क्या चिन्ता करेगा! 
खाद्य-संरक्षण का एक दूसरा पहलु है ,जो आलस्य और आरामतलबी के गर्भ से पैदा हुआ है। रोटी सेंकने में कठिनाई होती है,अतः ब्रेड खाना पसन्द करते हैं,और ये जानना जरुरी भी नहीं समझते कि इसके निर्माण में पोटैशियम ब्रोमेट,पोटैशियम आयोडेट जैसे घातक रसायन का प्रचुर प्रयोग किया गया है,जो कैंसर का महाजनक है,थायरॉयड का परम सहयोगी भी। ऐसे घातक रसायनों का प्रयोग पिज्जा,वर्गर,बन,विस्कुट, आदि लगभग सभी संरक्षित खाद्य पदार्थों में धड़ल्ले से किया जाता है मानक क्षमता की धज्जियां उड़ाकर । नूडल हंगामा अभी हाल का उदाहरण है। शीतल पेय पदार्थों की तो बात ही न करें,वो तो पहले से ही महान हैं- मानवजीवन से खिड़वाड़ करने में,और उनका सहारा है सोडियम बेन्जोयेट,और पता नहीं क्या क्या। विश्वप्रसिद्ध ‘जॉनसन प्रोडक्ट’ जिसे हम अपने नवजात भविष्य का रक्षक मानकर इठलाते हैं,उनकी कहानी भी हम सुन चुके हैं,जिन पर हजारों की संख्या में शिकायतें दर्ज हैं,और उनके ही देश की सरकार ने अरबों रुपये का जुर्माना भी लगाया है। क्या ये भी महज राजनैतिक खेल है,जैसा कि हमारे यहां आमतौर पर होता है। बेचारे नेता जी तो अपराध करते ही नहीं हैं,वे तो विरोधी दल के साजिश का शिकार सिर्फ होते हैं। 
कोई दुर्घटना होती है,हो हंगामा होता है,तो जनता को फुसलाने के लिए तत्काल जांच कमेटी बैठा दी जाती है,और फिर जांच तो जांच ही है न। नियमानुसार ये जांच पहले ही किया जाता रहा होता तो ये नौबत ही क्यों आती? गौरतलब है कि जिस रसायन को सन्1992 में ही विभिन्न देशों में बैन कर दिया गया,इन्टरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर ने जिसे 1999 में ही घातक सिद्ध कर दिया था, सेन्टर फॉर सायन्स एंड एनवायर्मेन्ट ने भी लाल कलम लगाये जिनपर ,उसे भी हम आज ढोये जा रहे बेरहमी और बेशर्मी पूर्वक। 
अभी हाल में ही सुनने-जानने को मिला कि 80% डॉक्टर बेशर्मी पूर्वक सिर्फ कमीशन के लोभ में बड़े-बड़े जांच लिखते हैं,और उन दवाओं को खाने का भी सुझाव देते हैं,जिन्हें कठोरता पूर्वक अवैध और घातक घोषित कर दिया गया है। कमाल की बात तो ये है कि जिस जांच-रिपोर्ट पर आँखमूंद कर हमारे तथाकथित भगवान भरोसा कर लेते हैं,उस जांच को करने वाला एक्सपर्ट भी कोई ननमैट्रिक या अर्डरग्रैजुयेट भटकता बेरोजगार ही होता है,जो चन्द रुप्पलों के लिए लैब में काम कर रहा होता है। अब भला आम आदमी उन 20%सही डॉक्टर का चुनाव(जांच) किस लेबोरेट्री से कराये,जो पूर्ण रुप से डॉक्टर यानी मानव-जीवन-रक्षक हो?
हमारी सजगता,संयम और सावधानी ही हमारा एकमात्र रक्षक हो सकता है- मुझे तो ऐसा ही लगता है। शायद आपको भी !

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