Wednesday 29 March 2017

हजारों वर्षों से चली आ रही परंपराओं के कारण हिन्दू धर्म में कई ऐसी अंतरविरोधी और विरोधाभाषी विचारधाराओं का समावेश हो चला है, जो स्थानीय संस्कृति और परंपरा की देन है। लेकिन उन सभी विचारधाराओं का सम्मान करना भी जरूरी है, क्योंकि धर्म का किसी तरह की विचारधारा से संबंध नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ ‘ब्रह्म ज्ञान’ से संबंध है। ब्रह्म ज्ञान अनुसार प्राणीमात्र सत्य है। सत्य का अर्थ ‘यह भी’ और ‘वह भी’ दोनों ही सत्य है। सत् और तत् मिलकर बना है सत्य।यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि जो व्यक्ति जिस भी धर्म में जन्मा है, वह उसी धर्म को सबसे प्राचीन और महान मानेगा। सत्य को जानने का प्रयास कम ही लोग करते हैं। हजारों वर्ष की लंबी परंपरा के कारण हिन्दू धर्म में कई तरह के भ्रम फैल गए हैं। इन भ्रमों के चलते सनातन हिन्दू धर्म पर कई तरह के सवाल उठते रहे हैं। ऐसे ही भ्रमों में एक भ्रम पशु बलि प्रथा है। हम आपको बताएंगे कि पशु बलि प्रथा भ्रम क्या हैं और आखिर उनमें कितनी सच्चाई है।

क्या हिन्दू धर्म में पशु बलि प्रथा है?
देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि का प्रयोग किया जाता है। बलि प्रथा के अंतर्गत बकरा, मुर्गा या भैंसे की बलि दिए जाने का प्रचलन है। सवाल यह उठता है कि क्या बलि प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा है?

”मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।”- ऋग्वेद 1/114/8

अर्थ : हमारी गायों और घोड़ों को मत मार।

विद्वान मानते हैं कि हिन्दू धर्म में लोक परंपरा की धाराएं भी जुड़ती गईं और उन्हें हिन्दू धर्म का हिस्सा माना जाने लगा। जैसे वट वर्ष से असंख्य लताएं लिपटकर अपना ‍अस्तित्व बना लेती हैं लेकिन वे लताएं वक्ष नहीं होतीं उसी तरह वैदिक आर्य धर्म की छत्रछाया में अन्य परंपराओं ने भी जड़ फैला ली। इन्हें कभी रोकने की कोशिश नहीं की गई।बलि प्रथा का प्रचलन हिंदुओं के शाक्त और तांत्रिकों के संप्रदाय में ही देखने को मिलता है लेकिन इसका कोई धार्मिक आधार नहीं है। बहुत से समाजों में लड़के के जन्म होने या उसकी मान उतारने के नाम पर बलि दी जाती है तो कुछ समाज में विवाह आदि समारोह में बलि दी जाती है जो कि अनुचित मानी गई है। वेदों में किसी भी प्रकार की बलि प्रथा कि इजाजत नहीं दी गई है।

”इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।
त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।।”

अर्थ : ”उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार।।” -यजु. 13/50  ..पशुबलि की यह प्रथा कब और कैसे प्रारंभ हुई, कहना कठिन है। कुछ लोग तर्क देते हैं कि वैदिक काल में यज्ञ में पशुओं की बलि दी जाती है। ऐसा तर्क देने वाले लोग वैदिक शब्दों का गलत अर्थ निकालने वाले हैं। वेदों में पांच प्रकार के यज्ञों का वर्णन मिलता है। पशु बलि प्रथा के संबंध में पंडित श्रीराम शर्मा की शोधपरक किताब ‘पशुबलि : हिन्दू धर्म और मानव सभ्यता पर एक कलंक’ पढ़ना चाहिए।
” न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि।।’- सामवेद-2/7

अर्थ : ”देवों! हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं, वेद मंत्र के आदेशानुसार आचरण करते हैं।”वेदों में ऐसे सैकड़ों मंत्र और ऋचाएं हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में बलि प्रथा निषेध है और यह प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है। जो बलि प्रथा का समर्थन करता है वह धर्मविरुद्ध दानवी आचरण करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए सजा का प्रावधान है। मृत्यु के बाद उसे ही जवाब देना के लिए हाजिर होना होगा।

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