Tuesday 28 February 2017

मिशनरियों की मदद से बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया

नटरमा, रवांडा के एक चर्च में ये तस्वीर बेन कर्टिस ने ली थी | 1994 में इस कैथोलिक चर्च में शरण लिए आदिवासी दंगा पीड़ितों को मिशनरियों की मदद से बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया था | कैथोलिक दंगाई इस देश में सौ दिन तक लोगों को काटते रहे थे |

रवांडा के कैथोलिक चर्च ने 1994 के इस नरसंहार में अपने घृणित कुकर्मों के लिए 20 नवम्बर, 2016 को माफ़ी मांगी है | इस नरसंहार में बलात्कार और अन्य कुकर्मों के अलावा सौ दिन में रवांडा की करीब 30% आबादी कैथोलिक हमलों में ख़त्म हो गई थी |


"युद्ध की तैयारी करो बाजी...शायद यह हमारा अंतिम युद्ध है...हमारी सेना उनके मुकाबले बहुत कम है...उनके मुकाबले के हथियार हमारे पास नहीं है..लगता है हम विशालगढ तक नहीं पहूंच पायेंगे।"...शिवाजी ने बिजापूर से लड़ने आयी विशाल सेना को देखते हुये कहा। "महाराज आप जाइये ! जब तक मैं खड़ा हूँ मैं इन्हें यह गोलखिंडी दर्रा(घाटी) पार नहीं करने दूँगा। स्वराज को आपकी जरूरत है", बाजीप्रभू देशपांडे ने शिवाजी के पैर छुते हुये कहा।

शिवाजी ने बाजी प्रभु को गले लगाया और कहा "जैसे ही मैं उपर पहूंच कर तोप दाग दूँ तो समझ जाना मैं सुरक्षित उपर पहूंच गया हूँ। तुम तुरंत वापस आ जाना।

शिवाजी के लगातार हमलों से भड़के बिजापूर के बादशाह ने सिद्दी जौहर, अफजल खां की मौत का बदला लेने के लिये धधक रहे उसके बेटे फाजल खां के नेतृत्व में सेना भेजी।शिवाजी ने चकमा दे कर पन्हाला किले से 600 सैनिकों के साथ विशालगढ़ की ओर निकल गये।उन्होंने 300 सैनिकों को अपने साथ लिया और 300 बाजीप्रभू को सौंप दिये। सिद्दी जौहर ने अपने दामाद सिद्दी मसूद और फाजल खां को 4000 सैनिकों के साथ शिवाजी को पकड़ने उनके पिछे भेज दिया।

शिवाजी बाजीप्रभू को गोलखिंडी दर्रे पर छोड़ विशालगढ की ओर बढ गये। विपक्षी सेना की पहली टुकड़ी दर्रे के नीचे आ खड़ी हुई। मराठाओं की तादात बहुत कम थी। लेकिन ऐसे पहाड़ी युद्ध करने में वह हमेशा से ही पारंगत थे। हथियार कम थे इसलिये बाजीप्रभू ने बड़ी मात्रा में पत्थर इकट्ठे किये। और पुरी ताकत से नीचे से उपर आती सिद्दी जौहर की सेना पर भीषण हमला किया। बिजापूर की सेना हैरान परेशान थी। उन्हें इस तरह के युद्ध की कल्पना नहीं थी। इस हमले में उन्हें भयानक क्षति पहूंची। बड़ी संख्या में विरोधी सैनिक मारे गये। सेना पिछे हट गयी। तभी दुसरी टुकड़ी मदत के लिये पहूंच गयी। पत्थर खतम हो गये थे। अब बारी थी सीधे हमले की। इसमें भी मराठाओं ने विरोधीयों को रौंद दिया। पर मराठाओं के भी बड़े से सैनिक मारे गये। लगातार युद्ध से बाजीप्रभू थकने लगे।

वहाँ विशालगढ के रास्ते में भी बीजापूरी सेना तैनात थी। उन्हें हरा शिवाजी आगे बढे। इधर बाजीप्रभू का शरीर खुन से लथपथ था पर उनकी आँखे शत्रु पर हाथ हथियार पर तथा कान तोप की आवाज के लिये विशालगढ पर थे। इतने में फाजल खां की सेना भी पहूंच गयी। मराठाओं ने हार नहीं मानी। अंत तक लड़े। भागे नहीं। लगभग सारे सैनिक मारे गये। गोलखिंडी दर्रा खुन से लाल हो गया। लड़ते लड़ते तीर बाजीप्रभू के छाती में धंस गया। तभी विशालगढ से तोप की गर्जना हुुई। महाराज सुरक्षित पहूंच गये थे। तब जा कर बाजी प्रभू ने बचे हुये मुठ्ठी भर सैनिकों को वापस जाने कहा। और अपना कर्तव्य पुरा कर प्राण त्याग दिये। महज 279 सैनिक गंवा कर 3000 हजार सैनिकों को मराठाओं ने खतम कर दिया।

इस युद्ध में दोनों पक्षों को भारी नुकसान हुआ। मराठाओं से लड़ कर टुट चुकी सिद्दी जौहर और फाजलं खान की सेना तोप से हुये हमलों के सामने टिक नहीं पायी। बाप अफजल खां जिसकी शिवाजी महाराज ने पेट फाड़ अतड़ीयाँ निकाल दी थी उसका बदला लेने आया बेटा फाजल खां वहाँ से भाग खड़ा हुआ। और महज अपने वचन निभाने और स्वराज्य के लिये शिवाजी को जिंदा रखने हेतु महान योद्धा बाजीप्रभू देशपांडे ने प्राणों की आहुति दे दी। महाराज ने इस बलिदान को पूजते हुये दर्रे का नाम गोलखिंडी से पावन खिंडी कर दिया।

समय लगता है स्वराज्य बनने में। छत्रपति बिना बलिदान के नहीं बनते। कुछ घंटे की लाइनों और निजी नुकसान से हारना नहीं है। मैदान छोड़ भागना नहीं है।
वेद को छोड़ने के दुष्परिणाम :

1. मनमानी पूजा पद्धतियां- पिछले 10-15 वर्षों में हिंदुत्व को लेकर व्यावसायिक संतों, ज्योतिषियों और धर्म के तथाकथित संगठनों और राजनीतिज्ञों ने हिंदू धर्म के लोगों को पूरी तरह से गफलत में डालने का जाने-अनजाने भरपूर प्रयास किया, जो आज भी जारी है। हिंदू धर्म की मनमानी व्याख्या और मनमाने नीति-नियमों के चलते खुद को व्यक्ति एक चौराहे पर खड़ा पाता है। समझ में नहीं आता कि इधर जाऊँ या उधर।भ्रमित समाज लक्ष्यहीन हो जाता है। लक्ष्यहीन समाज में मनमाने तरीके से परम्परा का जन्म और विकास होता है, जोकि होता आया है। मनमाने मंदिर बनते हैं, मनमाने देवता जन्म लेते हैं और पूजे जाते हैं। मनमानी पूजा पद्धति, चालीसाएँ, प्रार्थनाएँ विकसित होती है। व्यक्ति पूजा का प्रचलन जोरों से पनपता है। भगवान को छोड़कर संत, कथावाचक या पोंगा पंडितों को पूजने का प्रचलन बढ़ता है।

2. धर्म का अपमान : आए दिन धर्म का मजाक उड़ाया जाता है, मसलन कि किसी ने लिख दी लालू चालीसा, किसी ने बना दिया अमिताभ का मंदिर। रामलीला करते हैं और राम के साथ हनुमानजी का भी मजाक उड़ाया जाता है। राम के बारे में कुतर्क किया है, कृष्ण पर चुटकुले बनते हैं। दुर्गोत्सव के दौरान दुर्गा की मूर्ति के पीछे बैठकर शराब पी जाती हैं आदि अनेकों ऐसे उदाहरण है तो रोज देखने को मिलते हैं। भगवत गीता को पढ़ने के अपने नियम और समय हैं किंतु अब तो कथावाचक चौराहों पर हर माह भागवत कथा का आयोजन करते हैं। यज्ञ के महत्व को समझे बगैर वेद विरुद्ध यज्ञ किए जाते हैं और अब तमाम वह सारे उपक्रम नजर आने लगे हैं जिनका सनातन हिंदू धर्म से कोई वास्ता नहीं है।

3 . बाबाओं के चमचे : अनुयायी होना दूसरी आत्महत्या है।'- वेद ,रुद्राक्ष या ॐ को छोड़कर आज का युवा अपने-अपने बाबाओं के लॉकेट को गले में लटकाकर घुमते रहते हैं। उसे लटकाकर वे क्या घोषित करना चाहते हैं यह तो हम नहीं जानते। हो सकता है कि वे किसी कथित महान हस्ती से जुड़कर खुद को भी महान-बुद्धिमान घोषित करने की जुगत में हो। लेकिन कुछ युवा तो नौकरी या व्यावसायिक हितों के चलते उक्त संत या बाबाओं से जुड़ते हैं तो कुछ के जीवन में इतने दुख और भय हैं कि हाथ में चार-चार अँगूठी, गले में लॉकेट, ताबीज और न जाने क्या-क्या। गुरु को भी पूजो, भगवान को भी पूजो और ज्योतिष जो कहे उसको भी, सब तरह के उपक्रम कर लो...धर्म के विरुद्ध जाकर भी कोई कार्य करना पड़े तो वह भी कर लो।

4. धर्म या जीवन पद्धति : हिन्दुत्व कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है- ये वाक्य बहुत सालों से बहुत से लोग और संगठन प्रचारित करते रहे हैं। उक्त वाक्य से यह प्रतिध्वनित होता है कि इस्लाम, ईसाई, बौद्ध और जैन सभी धर्म है। धर्म अर्थात आध्यात्मिक मार्ग, मोक्ष मार्ग। धर्म अर्थात जो सबको धारण किए हुए हो, अस्तित्व और ईश्वर है, लेकिन हिंदुत्व तो धर्म नहीं है। जब धर्म नहीं है तो उसके कोई पैगंबर और अवतारी भी नहीं हो सकते। उसके धर्मग्रंथों को फिर धर्मग्रंथ कहना छोड़ो, उन्हें जीवन ग्रंथ कहो। गीता को धर्मग्रंथ मानना छोड़ दें? भगवान कृष्ण ने धर्म के लिए युद्ध लड़ा था कि जीवन के लिए? जहाँ तक हम सभी धर्मों के धर्मग्रंथों को पढ़ते हैं तो पता चलता है कि सभी धर्म जीवन जीने की पद्धति बताते हैं। यह बात अलग है कि वह पद्धति अलग-अलग है। फिर हिंदू धर्म कैसे धर्म नहीं हुआ? धर्म ही लोगों को जीवन जीने की पद्धति बताता है, अधर्म नहीं। क्यों संत-महात्मा गीताभवन में लोगों के समक्ष कहते हैं कि 'धर्म की जय हो-अधर्म का नाश हो'?

5. मनमानी व्याख्या के संगठन : पहले ही भ्रम का जाल था कुछ संगठनों ने और भ्रम फैला रखा है उनके अनुसार ब्रह्म सत्य नहीं है शिव सत्य है और शंकर अलग है। आज आप जहाँ खड़े हैं अगले कलयुग में भी इसी स्थान पर इसी नाम और वेशभूषा में खड़े रहेंगे- यही तो सांसारिक चक्र है। इनके अनुसार समय सीधा नहीं चलता गोलगोल ही चलता है। इन लोगों ने वैदिक विकासवाद के सारे सिद्धांत और समय व गणित की धारणा को ताक में रख दिया है। एक संत या संगठन गीता के बारे में कुछ कहता है, तो दूसरा कुछ ओर। एक राम को भगवान मानता है तो दूसरा साधारण इंसान। हालाँकि राम और कृष्ण को छोड़कर अब लोग शनि की शरण में रहने लगे हैं।वेद, पुराण और गीता की मनमानी व्याख्याओं के दौर से मनमाने रीति-रिवाज और पूजा-पाठ विकसित होते गए। लोग अनेकों संप्रदाय में बँटते गए और बँटते जा रहे हैं। संत निरंकारी संप्रदाय, ब्रह्माकुमारी संगठन, जय गुरुदेव, गायत्री परिवार, कबिर पंथ, साँई पंथ, राधास्वामी मत आदि अनेकों संगठन और सम्प्रदाय में बँटा हिंदू समाज वेद को छोड़कर भ्रम की स्थिति में नहीं है तो क्या है?संप्रदाय तो सिर्फ दो ही थे- शैव और वैष्णव। फिर इतने सारे संप्रदाय कैसे और क्यूँ हो गए। प्रत्येक संत अपना नया संप्रदाय बनाना क्यूँ चाहता है? क्या भ्रमित नहीं है आज का हिंदू?
आखिर कौन हैं वामपंथी?? क्या है इनका इतिहास ??

इतने बड़े विचारकों, विश्व राजनीति-अर्थनीति की गहरी समझ, तमाम नेताओं की अप्रतिम ईमानदारी और विचारधारा के प्रति समर्पण के किस्सों के बावजूद भारत का वामपंथी आंदोलन क्यों जनता के बीच स्वीकृति नहीं पा सका? अब लगता है, भारत की महान जनता इन राष्ट्रद्रोहियों को पहले से ही पहचानती थी, इसलिए इन्हें इनकी मौत मरने दिया। जो हर बार गलती करें और उसे ऐतिहासिक भूल बताएं, वही वामपंथी हैं।

** वामपंथी वे हैं जो 24 मार्च, 1943 को भारत के अतिरिक्त गृह सचिव रिचर्ड टोटनहम ने टिप्पणी लिखी कि ''भारतीय कम्युनिस्टों का चरित्र ऐसा कि वे किसी का विरोध तो कर सकते हैं, किसी के सगे नहीं हो सकते, सिवाय अपने स्वार्थों के।''

** वे वही है "जो पाकिस्तान निर्माण के समय "पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगा रहे थे। जो आज तक JNU में भी जारी है।

** वे वही हैं जो चीन के साथ हुए युद्ध में भारत विरोध में खड़े रहे। क्योंकि चीन के चेयरमैन माओ उनके भी चेयरमेन थे।

** वे ही हैं जो आपातकाल के पक्ष में खड़े रहे।

** वे ही हैं जो अंग्रेजों के मुखबिर बने और आज भी उनके बिगड़े शहजादे (माओवादी) जंगलों में आदिवासियों का जीवन नरक बना रहे हैं।

** वे वही है, भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ वामपंथी अंग्रेजों के साथ खड़े थे।

** वे वही है, मुस्लिम लीग की देश विभाजन की मांग का भारी समर्थन वामपंथी कर रहे थे।

** वे वही है, आजादी के क्षणों में नेहरू को 'साम्राज्यवादियों' का दलाल वामपंथियों ने घोषित किया।

** वे वही है , वामपंथियों ने कांग्रेस के गांधी को 'खलनायक' और जिन्ना को 'नायक' की उपाधि दे दी थी।

** खंडित भारत को स्वतंत्रता मिलते ही वामपंथियों ने हैदराबाद के निजाम के लिए पाकिस्तान में मिलाने के लिए लड़ रहे मुस्लिम रजाकारों की मदद से अपने लिए स्वतंत्र तेलंगाना राज्य बनाने की कोशिश की।

** वामपंथियों ने भारत की क्षेत्रीय, भाषाई विविधता को उभारने की एवं इनके आधार पर देशवासियों को आपस में लड़ाने की रणनीति बनाई।

** भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले गांधी और उनकी कांग्रेस को ब्रिटिश दासता के विरूध्द भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व कर रहे जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन जैसे देशभक्तों पर वामपंथियों ने 'देशद्रोही' का ठप्पा लगाया। भले पश्चिम बंगाल में माओवादियों और साम्यवादी सरकार के बीच कभी दोस्ताना लडाई चल चुकी हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर दोनों के बीच समझौता था। चीन को अपना आदर्श मानने वाली कथित लोकतंत्रात्क पार्टी माक्र्सवादी काम्यूनिस्ट पार्टी और भारतीय काम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) एक ही आका के दो गुर्गे हैं।

** भले चीन भारत के खिलाफ कूटनीतिक युद्ध लड रहा हो लेकिन इन दोनों साम्यवादी धड़ों का मानना है कि चीन भारत का शुभचिंतक है लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का नम्बर एक दुश्मन।

**देश के सबसे बडे साम्यवादी संगठन के नेता कामरेड प्रकाश करात ने चीन के बनिस्पत देश के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ज्यादा खतरनाक बताया है।

** संत लक्ष्मणानंद की हत्या कम्युनिस्टों और ईसाई मिशनरी गठजोड़ का प्रमाण थी।केरल में, आंध्र प्रदेश में, उडीसा में, बिहार और झारखंड में, छातीसगढ में, त्रिपुरा में यानी जहाँ भी साम्यवादी हावी हैं। वहां इनके टारगेट में राष्ट्रवादी हैं और आरएसएस कार्यकर्ताओं की हत्या इनके एजेंडे में शमिल है।

** देश की अस्मिता की बात करने वालों को अमेरिकी एजेंट ठहराना और देश के अंदर साम्यवादी चरंपथी, इस्लामी जेहादी तथा ईसाई चरमपंथियों का समर्थन करना इस देश के साम्यवादियों की कार्य संस्कृति का अंग है। चीनी फरमान से अपनी दिनचर्या प्रारंभ करने वाले ये वही ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने दिल्ली दूर और पेकिंग पास के नारे लगाते रहे हैं।

**ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने सन 62 की लडाई में हथियार कारखानों में हडताल का षडयंत्र किया था, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने कारगिल की लडाई को भाजपा का षडयंत्र बताया था, ये वही साम्यवादी हैं।

** ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने पाकिस्तान के निर्माण को जायज ठहराया था।

** ये वही साम्यवादी हैं जो यह मानते हैं कि आज भी देश गुलाम है और इसे चीन की ही सेना मुक्त करा सकती है।

** ये वही साम्यवादी हैं जो बाबा पशुपतिनाथ मंदिर पर हुए माओवादी हमले का समर्थन कर रहे थे।

** ये वही साम्यवादी हैं जो महान संत लक्ष्मणानंद सरस्वती को आतंकवादी ठहरा रहे हैं।

** ये वही साम्यवादी हैं जो बिहार में पूंजीपतियों से मिलकर किसानों की हत्या करा रहे हैं, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने महात्मा गांधी को बुर्जुवा कहा।

** ये वही है जिन्हें 'हिन्दुत्व को कमजोर करने का सुख तो मिलता है। इसीलिए भारतीय वामपंथ हर उस झूठ-सच पर कर्कश शोर मचाता है जिससे हिन्दू बदनाम हो सकें। न उन्हें तथ्यों से मतलब है, न ही देश-हित से। विदेशी ताकतें उनकी इस प्रवृत्ति को पहचानकर अपने हित में जमकर इस्तेमाल करती है। मिशनरी एजेंसियाँ चीन या अरब देशों में इतने ढीठ या आक्रामक नहीं हो पाते, क्योंकि वहां इन्हें भारतीय वामपंथियों जैसे स्थानीय सहयोगी उपलब्ध नहीं हैं। चीन सरकार विदेशी ईसाई मिशनरियों को चीन की धरती पर काम करने देना अपने राष्ट्रीय हितों के विरूद्ध मानती है। किंतु हमारे देश में चीन-भक्त वामपंथियों का भी ईसाई मिशनरियों के पक्ष में खड़े दिखना उनकी हिन्दू विरोधी प्रतिज्ञा का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है।

**वामपंथी दलों में आंतरिक कलह, अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की पराकाष्ठा, पश्चिम बंगाल में राशन के लिए दंगा, देश की लगभग हर मुसीबत में विपरीत बातें करना, चरम पर भ्रष्टाचार, देशविरोधी हरकतें, विरोधी राजनीतिक कार्यकर्ताओं की सरेआम हत्या जैसे वाकयों को लेकर वामपंथ बेनकाब हो चुका है।

**पाकिस्तान बनवाने के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी करने वाले भारतीय कम्युनिस्टों का हिन्दू-विरोध यथावत है। किंतु जैसे ही किसी गैर-हिन्दू समुदाय की उग्रता बढ़ती है-चाहे वह नागालैंड हो या कश्मीर-उनके प्रति कम्युनिस्टों की सहानुभूति तुरंत बढऩे लगती है। अत: प्रत्येक किस्म के कम्युनिस्ट मूलत: हिन्दू विरोधी हैं। केवल उसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग रंग में होती है। पीपुल्स वार ग्रुप के आंध्र नेता रामकृष्ण ने कहा ही है कि 'हिन्दू धर्म को खत्म कर देने से ही हरेक समस्या सुलझेगी'। अन्य कम्युनिस्टों को भी इस बयान से कोई आपत्ति नहीं है। सी.पी.आई.(माओवादी) ने अपने गुरिल्ला दस्ते का आह्वान किया है कि वह कश्मीर को 'स्वतंत्र देश' बनाने के संघर्ष में भाग ले। भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में चल रहे प्रत्येक अलगाववादी आंदोलन का हर गुट के माओवादी पहले से ही समर्थन करते रहे हैं। अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थिति भी बहुत भिन्न नहीं। माकपा के प्रमुख अर्थशास्त्री और मंत्री रह चुके अशोक मित्र कह ही चुके हैं, 'लेट गो आफ्फ कश्मीर'-यानी, कश्मीर को जाने दो।

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मामला "फ्रीडम ऑफ़ स्पीच या एक्सप्रेशन" का नहीं है, मकसद सिर्फ सरकार को दमनकारी साबित करना है। आप इसे 2014 का सदमा और 2019 के डर के तौर पर भी देख सकते हैं....आश्चर्य होता है कि जिस यूनिवर्सिटी कैंपस में देश की बर्बादी के नारे लग रहे हों वहां सिर्फ एक ही छात्र संगठन उसका विरोध कर रहा था, बाकी के आज़ादी की मांग कर रहे लोगों के कंधे पर बंदूक रखकर केंद्र सरकार पर निशाना साधने का मौक़ा तलाश रहे थे..रही बात हिंसा की तो "भारत मुर्दाबाद", "कश्मीर/बस्तर मांगे आज़ादी" सुनने के बाद अगर कुछ छात्रों का खून खौल जाता है तो इसका मतलब है कि अभी उनके खून ठंडा नहीं हुआ।
मुस्लिम,वामपंथियों और सेक्युलरो को समर्पित!

सनातन धर्म की वैज्ञानिकता !
और प्रेरणा एक बार फिर!

रात्रि के अंतिम प्रहर में एक बुझी हुई चिता की भस्म पर अघोरी ने जैसे ही आसन लगाया!
एक प्रेत ने उसकी गर्दन जकड़ ली और बोला- मैं जीवन भर विज्ञान का छात्र रहा और जीवन के उत्तरार्ध में तुम्हारे पुराणों की विचित्र कथाएं पढ़कर भ्रमित होता रहा!
यदि तुम मुझे पौराणिक कथाओं की सार्थकता नहीं समझा सके तो मैं तुम्हे भी इसी भस्म में मिला दूंगा!

अघोरी बोला- एक कथा सुनो-

रैवतक राजा की पुत्री का नाम रेवती था। वह सामान्य कद के पुरुषों से बहुत लंबी थी, राजा उसके विवाह योग्य वर खोजकर थक गये और चिंतित रहने लगे।
थक-हारकर वो योगबल के द्वारा पुत्री को लेकर ब्रह्मलोक गए। राजा जब वहां पहुंचे तब गन्धर्वों का गायन समारोह चल रहा था, राजा ने गायन समाप्त होने की प्रतीक्षा की।
गायन समाप्ति के उपरांत ब्रह्मदेव ने राजा को देखा और पूछा- कहो, कैसे आना हुआ?
राजा ने कहा- मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने बनाया है अथवा नहीं?
ब्रह्मा जी जोर से हंसे और बोले- जब तुम आये तबतक तो नहीं, पर जिस कालावधि में तुमने यहाँ गन्धर्वगान सुना उतनी ही अवधि में पृथ्वी पर २७ चतुर्युग बीत चुके हैं और २८ वां द्वापर समाप्त होने वाला है, अब तुम वहां जाओ और कृष्ण के बड़े भाई बलराम से इसका विवाह कर दो, अच्छा हुआ की तुम रेवती को अपने साथ लाए जिससे इसकी आयु नहीं बढ़ी!

अब इस कथा का वैज्ञानिक संदर्भ समझो- आर्थर सी क्लार्क ने आइंस्टीन की थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी की व्याख्या में एक पुस्तक लिखी है-
मैन एंड स्पेस(Man and Space), उसमे गणना है की 10 वर्ष का बालक यदि प्रकाश की गति वाले यान में बैठकर एंड्रोमेडा गैलेक्सी का एक चक्कर लगाये तो वापस आनेपर उसकी आयु 60 वर्ष की होगी पर धरती पर 40 लाख वर्ष बीत चुके होंगे।
यह आइंस्टीन की time dilation theory ही तो है जिसके लिए जॉर्ज गैमो ने एक मजाकिया कविता लिखी थी-
There was a young girl named Miss Bright,
Who could travel much faster than light
She departed one day in an Einstein way
And came back previous night!

वह विज्ञान का छात्र प्रेत यह सुनकर चकित था और बोला-

यह कथा नहीं है, यह तो पौराणिक विज्ञान है, हमारी सभ्यता इतनी अद्भुत रही है, अविश्वसनीय है।
तभी तो आइंस्टीन पुराणों को अपनी प्रेरणा कहते थे। मैं अब सभी शवों और प्रेतों को यह विज्ञानकथा बताऊंगा ताकि वो राष्ट्रीय शरीर धारण कर सकें। अनेक वामपंथी प्रेत यह कहते फिरते हैं कि यदि इतना ही उन्नत था हमारा प्राचीन पुराण!
तो प्रमाण क्या है?
अब उनको देता हूँ यह प्रमाण!
अघोरी मुस्कुराता रहा और प्रेत वायु में विलीन हो गया!

हम विश्व की सबसे उन्नत संस्कृति हैं यह विश्वास मत खोना!

आपस में जाति, मत, पूजा पद्धति को लेकर उलझने वालों को देश का शत्रु मानो.....!

कोई शक!

गुरमेहर का कंपेन से अचानक हट जाने का मतलब साफ है वो आपियो वामपंथियो के हाथ बिक गई थी !

शहीद पिता जिंदा होते तो बेटी की देशद्रोही हरकत पर कितना शर्मिंदा होते......देश के प्रति सम्मान और समर्पण ही "राष्ट्रवाद" है ! 
गुरमेहर की कंपेन से हटने का साफ मतलब है कि उसका बैनवास किया गया था उसको ये नहीं मालूम था कि वो क्या कर रही है बस आपमें आपको प्रोजेक्ट करना था ।देर ए दुरुस्त आये।#I_supportABVP..........Rishu Rungta

गुरमेहर कौर की टाइमलाईन देखेंगे तो हर 14 अगस्त को उसने पाकिस्तान की स्वतंत्रता की बधाई दी है लेकिन अगले दिन 15 अगस्त को भारत की आजादी पर कुछ नही लिखा..............जहर अंदर तक भरा गया है ...2 साल में पिता शहीद हो गए ..माँ कोटे से मिले पेट्रोल पम्प पर ही ध्यान देती रही ...पैसो की कोई कमी नही ..1.3 करोड़ मिले ..शहीद पिता की नौकरी तक पूरी सेलेरी..... 76% के बाद भी शहीद कोटे से श्रीराम कालेज में एडमिशन मिला जहां 99.9% कट ऑफ़ है ।कुल मिलाकर कैम्पस में बैठे कामुक वामपंथी भेड़ियों के लिए गुरमेहर एक परफेक्ट शिकार थी ..

sabhar_DrPankaj Gupta...........Kamlesh Chavda



"बड़ा खुलासा : गुरमेहर कौर ने उरी अटैक के बाद सर्जिकल स्ट्रइक का भी विरोध किया था ".....Raju Dave

आज एबीवीपी के विरुद्ध होने वाले मार्च में AISA और NSUI के साथ जेएनयू का शिक्षक संघ भी शामिल होगा। छात्रों की लड़ाई में शिक्षकों का क्या काम ? इससे सिद्ध होता है कि जेएनयू में देशद्रोह छात्रों द्वारा नहीं बल्कि शिक्षकों द्वारा उन्हें इसके लिए भड़काया जाता है। मार्च में शामिल होने वाले सभी शिक्षकों को बर्खास्त करना चाहिए और उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए। ऐसे शिक्षकों की ABVP अगर पिटाई करती है तो देश का हर नौजवान खुश होगा।.................Suresh Vidyarthi
अब में भी कुछ कह दूँ क्या ? यह देश हम सबका है हमारा सबका कर्तव्य बनता है इसको साफ सुथरा रखने का ।पर हो क्या रहा है कभी जे एन यू तो कभी बंगाल तो कभी केरल और कभी कुछ तो ऐसा होना जरुरी है क्या एक साथ मिलकर नही रह सकते क्या ।जो देश के खिलाफ आवाज उठाए उसे तुरंत गोली मार दो कंही न बख्शो क्यंकि आस्तीन का सांफ हमेशा तुन्हें ही काटेगा ।यह पोस्ट कुछ लोगों को बुरी भी लगेगी पर कोई नही देश के लिए हम बुरे ही सही ।भाई में तो नही छोडूंगा किसी को जो देश के खिलाफ आवाज उठाएगा ।मेरे लिए जाती धर्म सब बाद में है पहले मेरे लिए मेरा देश है ।धन्यबाद जय युवा जय भारत .......................जितेन्द्र सनातनी रामपुर







देश का पहला हेलीपोर्ट दिल्ली में शुरू, पर्यटन से लेकर एयर एंबुलेंस तक की सुविधा

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दिल्ली और आसपास के इलाकों में उड़ान भरने के लिए सौ करोड़ रुपये की लागत से बने भारत के पहले हेलीपोर्ट का मंगलवार को शुभारम्भ किया गया. नगर विमानन मंत्री अशोक गजपति राजू ने उत्तर दिल्ली के रोहिणी में अत्याधुनिक हेलीपोर्ट का उद्घाटन करते हुए कहा कि दक्षिण एशिया में यह इस तरह का पहली समन्वित सुविधा है.
हेलीपोर्ट से आईजीआई हवाई अड्डे पर भीड़भाड़ कम होने की उम्मीद है. साथ ही इससे आसपास के तीर्थस्थानों के लिए हवाई कनेक्टिविटी के अलावा चिकित्सकीय आपातकालीन स्थिति में मरीजों को सेवाएं दी जा सकेगी.रोहिणी हेलीपोर्ट से सबसे पहले गैर सरकारी संगठन क्राई के पांच छोटे बच्चे बच्चियों ने दिल्ली के आकाश में उड़ान भरी. पवन हंस लिमिटेड की ओर से सौ करोड़ रुपये के निवेश से स्थापित यह हेलीपोर्ट 25 एकड़ भूमि पर फैला हुआ है. इसके टर्मिनल भवन की क्षमता 150 यात्रियों की है और 16 हेलीकॉप्टर की पार्किंग क्षमता वाले चार हैंगर हैं. इसमें नौ पार्किंग स्थल हैं.हेलीपोर्ट के उद्घाटन के बाद राजू ने कहा, 'दक्षिण एशिया में यह अपनी तरह की पहली सुविधा है जिसे यहां पवन हंस लिमिटेड ने बनाया है.' हेलीपोर्ट में पवन हंस के बेड़े में शामिल हेलीकॉप्टर की मरम्मत, देखरेख के साथ ही दूसरी कंपनियों के हेलीकॉप्टर के देखरेख की सुविधा भी है.
मंत्री ने कहा कि देश में हेलीकॉप्टर और कार्गो को उच्च स्तर पर ले जाने के लिए प्रशिक्षण (कौशल विकास में प्रशिक्षण) की जरूरत है. जनवरी में देश में घरेलू हवाई यातायात 25 फीसदी से ज्यादा बढ़ा.

केरल : नाबालिग लड़की ने दिया बच्चे को जन्म, दोषी पादरी गिरफ्तार...

 कन्नूर जिले के कोत्तियूर में एक नाबालिग लड़की का यौन उत्पीड़न करने और उसे गर्भवती करने के आरोप में एक चर्च के पादरी को गिरफ्तार किया गया है. नाबालिग ने एक बच्चे को जन्मदिन दिया है. जन्म के बाद बच्चे को एक अनाथालय में छोड़ दिया. पुलिस ने बताया कि कोत्तियूर में सेंट सेबेस्टियंस चर्च के 48 वर्षीय फादर रॉबिन मैथ्यू को कल रात हिरासत में लिया गया और आईपीएस की धारा 376 और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम के तहत उसे गिरफ्तार कर लिया गया.

इस अपराध का तब पता लगा जब कोत्तियूर के पास नींदुनोक्की निवासी 16 वर्षीय लड़की ने सात फरवरी को कूथुपारम्बा के एक निजी अस्पताल में एक लड़के को जन्म दिया. बच्चों की सुरक्षा तथा अधिकार के लिए काम करने वाली संस्था 'चाइल्डलाइन' को जब एक नाबालिग द्वारा बच्चे को जन्म देने की सूचना मिली तो उसने लड़की से संपर्क किया. लड़की ने बच्चे के जन्म के लिए अपने पिता को जिम्मेदार बताया.

पुलिस ने जब इस मामले में लड़की के पिता से पूछताछ की तो पिता ने भी इसके लिए खुद को ही जिम्मेदार ठहराया, लेकिन लड़की तथा पिता के बयानों में कुछ विरोधाभास पाकर पुलिस ने जब गहराई से पड़ताल की तो इस मामले के पीछे पादरी को दोषी पाया.  

पुलिस को पिता की बात पर शंका होने पर सख्ताई से पूछताछ की तो सारे मामले का खुलासा हुआ. लड़की ने पुलिस को बताया कि पादरी उसके साथ अक्सर दुष्कर्म किया करता था. आरोपी पादरी उसी स्कूल का प्रबंधक था, जिसमें पीड़िता पढ़ती थी.

पहले फरार चल रहे मैथ्यू को सोमवार की रात थिसूर जिले में चलाकुड्डी से पकड़ा गया और यहां लाया गया. पुलिस को यह भी पता चला कि शिशु को वयनाड जिले में व्यिथरी के एक अनाथालय में छोड़ दिया गया. अब उसे एक सरकारी अनाथालय में भेजा गया.

(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

Monday 27 February 2017

" जीवन अपनी सुविधा और सरलता के लिए अगर व्यावहारिक जीवन में अपने नैतिक मूल्यों, आदर्शों और सिद्धांतों से समझौता करने के अभ्यस्त हो जाए तो ऐसी जीवन शैली को व्यवहारिकता के नाम पर सामाजिक स्वीकृति प्रदान करना समझ की ऐसी गलती होगी जो अंततः उसके पतन का कारन बनेगी,
ऐसे इसलिए क्योंकि समय की जिन आवश्यकताओं के माध्यम से मानवीय चेतना का विकास होना था अगर मानवीय समझ उन्हीं आवश्यकताओं को भय मानकर उनसे बचने का हर संभव प्रयास करता दिखे तो समय का संघर्ष केवल जीवन के पुर्सार्थ और आत्मबल के स्तर को ही अपने परिणाम के रूप में प्रतिबिंबित करेगा।
व्यावहारिक क्या होना चाहिए यह कोई मान्यता, परंपरा या प्रचलन नहीं बल्कि उस वर्तमान की वास्तविकता निर्धारित करती है जो उन परिस्थितियों को अपने यथार्थ में जीती है, ऐसे में, अगर व्यक्ति स्वेक्षा से परिस्थितियों द्वारा शाषित होने का निर्णय कर ले तो यह उसका व्यक्तिगत निर्णय हो सकता है पर आदर्श परिस्थितियों में व्यक्ति में इतना पुर्सार्थ और आत्मबल होना चाहिए जो वह परिस्थितियों अथवा घटनाओं द्वारा शाषित होने के बजाये उन्हें परिभाषित करने का सामर्थ रखे।
अगर व्यावहारिक वही विचार है जो हम सामाजिक जीवन में अपने आचरण द्वारा यथार्थ में रूपांतरित करते हैं, तो व्यावहारिक क्या होना चाहिए यह परिस्थितियां नहीं बल्कि हमारे आचरण निर्धारित करते हैं; ऐसे में, परिस्थितियों अथवा घटनाओं को दोष देना व्यर्थ होगा क्योंकि व्यावहारिक वही होगा जो हम तय करते हैं।
निष्कर्ष की दृष्टि से हमारे निर्णय का आधार क्या है यह अत्यंत महत्वपूर्ण है; अगर सही-गलत के बीच का अंतर स्पष्ट हो तो जीवन को कभी लाभ -हानि के गणित की भ्रान्ति महत्वपूर्ण हो ही नहीं सकती, और इसलिए अगर यह कहा जाए की जीवन के स्पष्टता का आभाव ही इस वर्त्तमान की समस्त समस्याओं का मूल है तो गलत न होगा।
किसी भी सिद्धांत को जटिल बनाकर उसे महत्वपूर्ण बनाने के प्रयास से अच्छा होगा की क्रमबद्ध शैली में उदाहरणों के साथ उसे सरलता से समझने और सुलझाने का प्रयास किया जाए; फिर जीवन के लिए विषय व्यवहारिकता ही क्यों न हो।
संवेदनाओं को समय की आवश्यकता महसूस करनी होगी, कल्पनाशक्ति को अपनी रचनात्मकता से परिस्थितियों के आधार पर सभी संभावित समाधान के विकल्प तलाशने होंगे और पुर्सार्थ को अपने प्रयोग के प्रयास से व्यावहारिक जीवन में नयी संभावनाओं को जन्म देना होगा। परिस्थितियों के परिवर्तन के प्रक्रिया में नए की जन्म की यही शैली रही है और आज इसी विचार को व्यव्हार में अनुवाद करने की आवश्यकता है। पर जब व्यक्ति व्यवहारिकता के बहाने इतना समझदार हो जाए की वह अनुकूलन के प्रभाव में परिस्थितियों के इतना अभ्यस्त और आदि हो जाए की उसे परिवर्तन की आवश्यकता ही महसूस न हो तब नयी संभावनाओं का जन्म स्वाभाविक ही समस्या बन जायेगी, यही तो आज हो रहा है,
ऐसे में, निर्णय हमें करना है की आखिर करना क्या है, ऐसे ही कुंठाग्रस्त रहना है या अपने उत्क्रांति का प्रयास करना है। जैसा निर्णय वैसी नियति।“

गरीब के घर की डॉक्टर गिलोय सभी बुखार/ज्वर से लेकर अस्थमा, बवासीर, मधुमेह तक 10 रोगों की चमत्कारी औषिधि

गिलोय एक प्रकार की लता/बेल है, जिसके पत्ते पान के पत्ते की तरह होते है। यह इतनी अधिक गुणकारी होती है, कि इसका नाम अमृता रखा गया है। आयुर्वेद में गिलोय को बुखार की एक महान औषधि के रूप में माना गया है। गिलोय का रस पीने से शरीर में पाए जाने वाली विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ दूर होने लगती हैं। गिलोय की पत्तियों में कैल्शियम, प्रोटीन तथा फास्फोरस पाए जाते है। यह वात, कफ और पित्त नाशक होती है। यह हमारे शरीर की रोगप्रतिरोधक शक्ति को बढाने में सहायता करती है। इसमें विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण एंटीबायोटिक तथा एंटीवायरल तत्व पाए जाते है जिनसे शारीरिक स्वास्थ्य को लाभ पहुँचता है। यह गरीब के घर की डॉक्टर है क्योंकि यह गाँवो में सहजता से मिल जाती है।
गिलोय में प्राकृतिक रूप से शरीर के दोषों को संतुलित करने की क्षमता पाई जाती है। गिलोय एक बहुत ही महत्वपूर्ण आयुर्वेदिक जडीबूटी है। गिलोय बहुत शीघ्रता से फलने फूलनेवाली बेल होती है। गिलोय की टहनियों को भी औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। गिलोय की बेल जीवन शक्ति से भरपूर होती है, क्योंकि इस बेल का यदि एक छोटा-सा टुकडा भी जमीन में डाल दिया गया तो वहाँ पर एक नया पौधा बन जाता है।
आइये हम गिलोय से होने वाले शारीरिक फायदे की ओर देखें :
1. रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है – गिलोय में हमारे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढाने का एक बहुत ही महत्वपूर्ण गुण पाए जाते है। गिलोय में एंटीऑक्सीडंट के विभिन्न गुण पाए जाते हैं, जिससे शारीरिक स्वास्थ्य बना रहता है, तथा भिन्न प्रकार की खतरनाक बीमारियाँ दूर रखने में सहायता मिलती है। गिलोय हमारे लीवर तथा किडनी में पाए जाने वाले रासायनिक विषैले पदार्थों को बाहर निकालने का कार्य भी करता है। गिलोय हमारे शरीर में होनेवाली बीमारीयों के कीटाणुओं से लड़कर लीवर तथा मूत्र संक्रमण जैसी समस्याओं से हमारे शरीर को सुरक्षा प्रदान करता है।
2. ज्वर से लड़ने के लिए उत्तम औषधी – गिलोय की वजह से लंबे समय तक चलने वाले बुखार को ठीक होने में काफी लाभ होता है। गिलोय में ज्वर से लड़ने वाले गुण पाए जाते हैं। गिलोय हमारे शरीर में होने वाली जानलेवा बीमारियों के लक्षणों को उत्पन्न होने से रोकने में बहुत ही सहायक होता है। यह हमारे शरीर में रक्त के प्लेटलेट्स की मात्रा को बढ़ाता है जो कि किसी भी प्रकार के ज्वर से लड़ने में उपयोगी साबित होता है। डेंगु जैसे ज्वर में भी गिलोय का रस बहुत ही उपयोगी साबित होता है। यदि मलेरिया के इलाज के लिए गिलोय के रस तथा शहद को बराबर मात्रा में मरीज को दिया जाए तो बडी सफलता से मलेरिया का इलाज होने में काफी मदद मिलती है।
3. पाचन क्रिया करता है दुरुस्त – गिलोय की वजह से शारीरिक पाचन क्रिया भी संयमित रहती है। विभिन्न प्रकार की पेट संबंधी समस्याओं को दूर करने में गिलोय बहुत ही प्रचलित है। हमारे पाचनतंत्र को सुनियमित बनाने के लिए यदि एक ग्राम गिलोय के पावडर को थोडे से आंवला पावडर के साथ नियमित रूप से लिया जाए तो काफी फायदा होता है।
4. बवासीर का भी इलाज है गिलोय – बवासीर से पीडित मरीज को यदि थोडा सा गिलोय का रस छांछ के साथ मिलाकर देने से मरीज की तकलीफ कम होने लगती है।
5. डॉयबिटीज का उपचार – अगर आपके शरीर में रक्त में पाए जाने वाली शुगर की मात्रा अधिक है तो गिलोय के रस को नियमित रूप से पीने से यह मात्रा भी कम होने लगती है।
6 उच्च रक्तचाप को करे नियंत्रित – गिलोय हमारे शरीर के रक्तचाप को नियमित करता है।

7. अस्थमा का बेजोड़ इलाज –
 अस्थमा एक प्रकार की अत्यंत ही खतरनाक बीमारी है, जिसकी वजह से मरीज को भिन्न प्रकार की तकलीफों का सामना करना पडता है, जैसे छाती में कसाव आना, साँस लेने में तकलीफ होना, अत्याधिक खांसी होना तथा सांसो का तेज तेज रूप से चलना। कभी कभी ऐसी परिस्थिती को काबू में लाना बहुत मुश्किल हो जाता है। लेकिन क्या आप जानते है, कि अस्थमा के उपर्युक्त लक्षणों को दूर करने का सबसे आसान उपाय है, गिलोय का प्रयोग करना। जी हाँ अक्सर अस्थमा के मरीजों की चिकित्सा के लिए गिलोय का प्रयोग बडे पैमाने पर किया जाता है, तथा इससे अस्थमा की समस्या से छुटकारा भी मिलने लगता है।
8. आंखों की रोशनी बढ़ाने हेतु – गिलोय हमारी आंखों के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए भी प्रयोग में लाया जाता है। यह हमारी आंखों की दृष्टी को बढाता है, जिसकी वजह से हमे बिना चश्मा पहने भी बेहतर रूप से दिखने लगता है। यदि गिलोय के कुछ पत्तों को पानी में उबालकर यह पानी ठंडा होने पर आंखों की पलकों पर नियमित रूप से लगाने से काफी फायदा होता है।
9. सौंदर्यता के लिए भी है कारगार – गिलोय का उपयोग करने से हमारे चेहरे पर से काले धब्बे, कील मुहांसे तथा लकीरें कम होने लगती हैं। चेहरे पर से झुर्रियाँ भी कम होने में काफी सहायता मिलती है। यह हमारी त्वचा को युवा बनाए रखने में मदद करता है। गिलोय से हमारी त्वचा का स्वास्थ्य सौंदर्य बना रहता है। तथा उस में एक प्रकार की चमक आने लगती है।
10. खून से जुड़ी समस्याओं को भी करता है दूर – कई लोगों में खून की मात्रा की कमी पाई जाती है। जिसकी वजह से उन्हें शारीरिक कमजोरी महसूस होने लगती है। गिलोय का नियमित इस्तेमाल करने से शरीर में खून की मात्रा बढने लगती है, तथा गिलोय हमारे खून को भी साफ करने में बहुत ही लाभदायक है।

Sunday 26 February 2017

भगवान विष्णु सनातन धर्म में त्रिदेवों में से एक हैं। उन्हें जगत का पालनकर्ता भी कहा जाता है। भगवान विष्णु पुराणों के आधार भगवान हैं। सभी पुराणों में भगवान विष्णु की महत्वत्ता का वर्णन किया गया है। भगवान विष्णु के 24 अवतार माने गये हैं। आइये जानते हैं इन अवतारों को और उनके रहस्य को कि क्यों भगवान अवतार लेते हैं?
हिन्दू धर्म ग्रंथों में अनेक देवी-देवताओं के अवतार बताए गए हैं। जिनमें विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश आदि देवताओं ने अलग-अलग अवतारों से जगत के दु:खों का अंत किया। किंतु हम यहां मात्र भगवान विष्णु जिनको जगत का पालन करने वाले देवता माना जाता है, के 24 अवतारों के पीछे छुपे रहस्य को जानते हैं –
दरअसल अवतार का शाब्दिक अर्थ होता है ऊपर से नीचे आना या उतरना। इसी तरह धर्म का सरल शब्दों में मतलब होता है – जिंदगी को चलाने के लिए नियत की गई धर्म व्यवस्था या तंत्र।
भगवान ने 24 अवतार लिए हैं पर उन्होंने मानव रुप में 10 अवतार लिए हैं, उन्होनें इन अवतारों में मानवों के जीवन जीने की आधारभूत कला बताई है। भगवान अपने अवतारों में धर्म का निरूपण करते हैं और सभी को धर्म पर चलने की सीख देते हैं।।
हिंदू धम्र में ईश्वर के पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अवतरित होने की मान्यता है। धरती पर अधर्म, अत्याचार, एवं अव्यवस्था बढऩे पर ईश्वर मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं। हिंदू धर्म में विष्णु भगवान के मानव रूप  के दस अवतार माने गए हैं:
  1. मत्स्य अवतार
  2. कूर्म अवतार
  3. वराह अवतार
  4. नरसिंह अवतार
  5. वामन अवतार
  6. परशुराम अवतार
  7. राम अवतार
  8. कृष्ण अवतार
  9. बुद्ध अवतार
  10. कलकि अवतार
जिसके द्वारा जगत में रहने वाले किसी भी प्राणी को नुकसान पहुंचाए बिना जीवन जीने के सूत्र बताए जाते है। किंतु जब कोई व्यक्ति या प्राणी मर्यादा, गरिमा, नियमों को तोड़कर जगत को दु:ख और कष्ट देता है। तब यही स्थिति धर्म हानि के रुप में देखी जाती है। इसी व्यवस्था की रक्षा और बुराई के नाश के लिए धार्मिक मान्यताओं के अनुसार अलग-अलग युगों में देव अवतार हुए। हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु के अवतारों से धार्मिक आस्था जुड़ी है। इसलिए अलग-अलग काल और रूप में 24 अवतारों का महत्व बताया गया है।
वैसे भी धार्मिक आस्था से कहा जाता है कि कण-कण में भगवान बसें हैं। इस नजरिए से मानव भी देव अवतार ही है। विष्णु के 24 अवतारों का गुढ़ संदेश यही है कि स्वार्थ भावना को छोड़कर कर्म, धर्म और दायित्व का पालन करें। सनातन धर्म कहता है कि कोई व्यक्ति जन्म से पापी नहीं होता। उसके अच्छे-बुरे काम ही उसका भविष्य नियत करते हैं। इसलिए हर व्यक्ति अपने अच्छे चरित्र व व्यवहार से समाज की व्यवस्था को सुधारने और विकास करने का ही संकल्प करे। यही सूत्र छुपे हैं विष्णु के 24 अवतारों में।
12 अगस्त 1939 का हिन्दुस्तान टाइम्स ... हेडलाइन है --"कांग्रेस ने नेताजी सुभाष को अनुशासनहीनता की सजा दी उन्हें सभी कमेटियो से बर्खास्त किया गया और चुनाव लड़ने पर रोक लगाई गयी ..

नीचे लिखा है की ये सिपारिश नेहरु की अध्यक्षता की कमेटी ने किया था ..

सोचिये .. ये नीच देशद्रोही कांग्रेस और कामुक लम्पट नेहरु कैसे सत्ता के लिए एक एक करके सभी सेनानियों को ठिकाने लगाता गया ... भगत सिंह की फांसी का नेहरु और गाँधी ने समर्थन किया था ..नेताजी को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया .. चंद्रशेखर आजाद को नेहरु ने मुखबिरी करके उन्हें मौत के घाट उतार दिया ..सावरकर को साजिश करके कालापानी भेजवा दिया .. और खुद गाँधी नेहरु की रंगा बिल्ला की जोड़ी देश के साथ बलात्कार करती रही
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यूं ही नहीं कोई 'सावरकर' बन जाता है

सावरकर, क्या था इस शब्द में? कुछ भी नहीं, लेकिन इस शब्द को जिस रूप में हम जान रहे हैं, वह महत्वपूर्ण विषय है। वह एक ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने साम्राज्यवाद के रथ पर काबिज होकर चलने वाले अंग्रेजों की क्रूरता की पराकाष्ठा झेली और फिर उस भारत को भी देखा जो जाति भेद की आग में जल रहा था। उनको पढ़कर बहुत सी ऐसी बातें समझीं जो यह प्रमाणित करती हैं कि उस दौर में ‘उनसे’ बेहतर विचार नहीं हो सकते थे।

विनायक दामोदर सावरकर का नाम कुछ समय पहले सुर्खियों में छाया हुआ था। भारत में एक नई परंपरा शुरू हो गई है जिसके आधार पर राजनीतिक पार्टियां क्रांतिकारियों और महापुरुषों को अपनी सुविधानुसार बांट लेती हैं और फिर उनके नाम पर जी भरकर राजनीति करती हैं...

कोई पार्टी स्वयं को सावरकर हितैषी बताकर उनके लिए भारत रत्न की मांग करती है तो कोई सावरकर को गद्दार बना देती है। इन दोनों ही विचार परिवारों के समर्थक इस बात पर जी जान लगाकर बहस करते हैं कि सावरकर देशभक्त थे अथवा गद्दार, सावरकर को भारत रत्न मिलना चाहिए अथवा नहीं। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि कोई महापुरुष अथवा क्रांतिकारी किसी ‘दल’ विशेष का नहीं होता और महापुरुष वही होता है जो सामान्य व्यक्ति से बेहतर तरीके से समाज के प्रति स्वयं को समर्पित करे। हो सकता है उस ‘महापुरुष’ की विचारधारा हमसे 100 प्रतिशत ना मिलती हो, लेकिन क्या ऐसे में आप उससे 100 प्रतिशत असहमत हो सकते हैं?

आपका तर्क कुछ भी हो लेकिन इसका जवाब ‘नहीं’ में ही मिलेगा। समाज के विषय में सकारात्मक दृष्टिकोण से सोचने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में एक विशिष्ट विचार है। यदि आप किसी विचार से 100 प्रतिशत असहमत हैं तो इसका साफ तौर पर मतलब है कि आप उसका विरोध अज्ञानतावश अथवा द्वेषवश कर रहे हैं, और यदि आप किसी से 100 प्रतिशत सहमत होने का दावा कर रहे हैं तो इसका भी अर्थ यही है कि या तो आप अज्ञानी हैं अथवा अंधभक्त हैं। अब बात करते हैं कि आखिर आज क्यों विनायक दामोदर सावरकर जैसे दिव्य पुरुष के विषय में चिंतन करने की आवश्यकता महसूस हो रही है

एक राजनीतिक दल यह आरोप लगाता है कि पोर्ट ब्लेयर (अंडमान द्वीप) जेल से अपनी ‘काले पानी’ की सजा से रिहाई के लिए अंग्रेजों से क्षमा याचना की थी। हो सकता है ऐसा हो, लेकिन क्या ऐसा करने का उद्देश्य यह नहीं हो सकता कि सावरकर ने भी वही सोचा हो जो एक समय श्रीकृष्ण ने सोचा था, जिसकी वजह से वह रणछोड़ कहलाए। परिस्थिति का विवेचन एक सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ करें तो पाएंगे कि अपने-अपने समय में इन व्यक्तित्वों ने जो निर्णय लिए वे एकमात्र विकल्प थे। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं इसका एक कारण है, यदि हम स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान की सोच को उस दौर के क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ कर समझने का प्रयास करेंगे तो सामने आएगा कि उस दौर के अधिकतर क्रांतिकारी जान देने के पक्ष में नहीं थे। इसका कारण यह नहीं था कि वह जान देने से डरते थे, बल्कि इसका कारण यह था कि उनको पता था कि देश की स्वतंत्रता के लिए जीवित रहकर संघर्ष करना अतिआवश्यक है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के बीच का अंसेबली में बम फेंकने से पहले का संवाद है।

शहीद भगत सिंह से जुड़े साहित्य को पढ़ने पर पता लगता है कि जब भगत सिंह ने सांडर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लेने के बाद असेंबली में बम फेंकने का निर्णय लिया तब चंद्रशेखर आजाद ने पूरी योजना तैयार की कि किसी तरह और किन रास्तों से बम विस्फोट करने के बाद निकालकर भागा जा सकता है। उन्होंने यह योजना भगत सिंह को बताई लेकिन भगत सिंह ने इस पर अमल करने से साफ तौर से मना कर दिया। भगत सिंह गिरफ्तार होना चाहते थे। इस मुद्दे पर आजाद से भगत सिंह की गर्मागर्म बहस भी हुई। भगत सिंह का कहना था, ‘हम असेंबली में बम किसी की जान लेने के लिए नहीं फेंकने वाले हैं। हमारा उद्देश्य है, लोगों को जगाना और उस उद्देश्य को मैं गिरफ्तार होकर ज्यादा बेहतर तरीके से पूरा कर सकता हूं। केस चलेगा, जिरह होगी और उस जिरह हमें अपनी बात देशवासियों तक पहुंचाने का मौका मिलेगा।’

इस पर आज़ाद का कहना था कि केस का मतलब होगा मौत की सजा। इसके बाद भगत सिंह ने आजाद से कहा, ‘मैं जान देने के लिए ही गिरफ्तार होना चाहता हूं, मैं जीवित रहकर आजादी के आंदोलन में उतना योगदान नहीं दे पाऊंगा जितना मरकर दे सकता हूं।’ भगत सिंह बोले, ‘मेरी मौत कई भगत सिंह पैदा कर देगी।’ दोनों महान क्रांतिकारियों के बीच लंबी बहस हुई लेकिन भगतसिंह अपनी जिद के पक्के थे। आखिरकार आजाद को उनके आगे हार माननी पड़ी। फिर वही हुआ जो भगतसिंह चाहते थे। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि एक क्रांतिकारी संगठन से जुड़े व्यक्ति द्वारा जीवन को व्यर्थ नष्ट कर देने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। भगत सिंह तथा उनके साथी क्रांतिकारियों का उद्देश्य साफ था कि उनकी मौत एक नए आंदोलन को खड़ा करेगी लेकिन सभी क्रांतिकारी सिर्फ अपनी जान कुर्बान कर देते तो शायद आज हम स्वतंत्र देश में सांस नहीं ले रहे होते। कुछ ऐसे ही विचार विनायक दामोदर सावरकर के भी बन गए थे। और यह विचार क्यों बने होंगे, इस बात का अंदाजा आप तब तक नहीं लगा सकते जब तक उस दौर की स्थितियों के विषय में अध्ययन न कर लें।

10 मई, 1907 को सावरकर ने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। सावरकर भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सन् 1857 की लड़ाई को भारत का ‘स्वाधीनता संग्राम’ बताते हुए लगभग एक हजार पृष्ठों का इतिहास लिखा। जून 1908 में तैयार हो चुकी पुस्तक ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857’ में सावरकर ने इस लड़ाई को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई घोषित किया था। इस पुस्तक से भारत में भगत सिंह सहित कई लोगों ने प्रेरणा ली।

हो सकता है कि अब कोई यह तर्क दे कि भगत सिंह तो सावरकर के हिंदुत्व के विरोधी थे। बिलकुल थे, क्योंकि उन्होंने सावरकर के हिंदुत्व को समझा नहीं था। जब सावरकर की पुस्तक भारत में कोहराम मचा रही थी तब भगत सिंह अपने शैशव काल में थे और सावरकर उस दौर में अंग्रेजों के गढ़ में रहकर मां भारती के चरणों की जंजीरों को तोड़ने के लिए प्रयास कर रहे थे। इसे आयु आधारित अनुभव कहें तो गलत न होगा। आगे जिस रूप में भगत सिंह ने सावरकर के हिंदुत्व को समझा, अगर मैं भी वैसा ही मान लूं तो मैं भी विरोध करूंगा लेकिन वास्तविकता यह है कि सावरकर के हिंदुत्व की व्यापकता उतनी सीमित नहीं जितना प्रचारित की गई। यह बिलकुल वैसा ही था जैसे एक 13-14 साल का छोटा सा बच्चा गांधी- गांधी करते हुए एक बुजुर्ग नेता के पीछे घूमता रहता है और फिर जब वह नेता अहिंसा के नाम पर अपने आंदोलन को वापस लेने की घोषणा करता है तो बच्चा उस नेता के रास्ते को नकार कर उसके विपरीत सिद्धांत आधारित रास्ते का चुनाव कर लेता है। इस विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि महात्मा गांधी ने अपने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को वापस लेकर कुछ गलत किया था। इसी आधार पर सावरकर को भी सिर्फ एक व्यक्ति के दृष्टिकोण के चलते गलत नहीं माना जा सकता।

आइए, सावरकर से जुड़े कुछ विषयों का विश्लेषण करते हैं:
क्या बंगाल विभाजन के दौरान 1905 में पुणे में अभिनव भारत संगठन द्वारा विदेशी कपड़ों की होली जलाना कोई सामान्य कदम था, उस समय जब हम गुलाम थे और सोशल मीडिया जैसी कोई चीज नहीं होती थी।

क्या यह झूठ है कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सावरकर की योग्यता, क्षमता और प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें छात्रवृत्ति दी थी।

क्या यह भी झूठ है कि भगत सिंह, राजाराम शास्त्री से कहा करते थे मुझे सावरकर जी के जीवन प्रसंगों, जैसे लंदन में रहते हुए मदनलाल ढींगरा को क्रांति की ओर प्रेरित करना, गिरफ्तारी के दौरान भारत लाए जाते समय जहाज से समुद्र में कूद पड़ऩा आदि ने बहुत प्रभावित किया है। (काशी विद्यापीठ के युवा राजाराम शास्त्री को लाला लाजपतराय जी ने द्वारका दास पुस्तकालय का प्रबंधक मनोनीत किया था। भगत सिंह से राजाराम के मैत्रीपूर्ण संबंध बन गये थे। राजाराम शास्त्री ने कई जगह अपने और भगत सिंह के संवाद का जिक्र किया है।)

क्या यह भी झूठ है कि सावरकर की प्रेरणा से ही जर्मनी में संपन्न होने वाली इंटरनैशनल सोशलिस्ट कांग्रेस में सरदार सिंह राणा और श्रीमती भीखाजी ने भारत का प्रतिनिधि बनकर वन्दे मातरम् लिखित ध्वज को फहराया।

क्या यह भी झूठ है कि वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में दो आजीवन कारावास की सजा पाने वाले एकमात्र क्रांतिकारी हैं।

क्या यह भी झूठ है कि सावरकर ने अंडमान जेल में रहते हुए, अंग्रेजों के कानूनों के जाल में उनको ही फंसाकर कैदियों को सामान्य सुविधाएं उपलब्ध कराई थीं।

क्या यह भी झूठ है कि ‘सवर्ण’ होते हुए भी दलितों को सम्मान दिलाने के लिए उन्होंने रत्नागिरी में प्रथम प्रयास किया।

क्या यह भी झूठ है कि अस्पृश्यता निवारण के लिए जमीनी स्तर पर कार्य करते हुए सावरकर ने अपने ब्राह्मणत्व कर्म का प्रतिपालन किया।

क्या यह भी झूठ है कि ‘भाषा शुद्धि’ यानी हिंदी तथा देवनागरी के संरक्षण हेतु उन्होंने प्रयास किए।

क्या यह भी झूठ है कि सुभाष चन्द्र बोस को रासबिहारी बोस के उस पत्र से आजाद हिंद फौज बनाने की प्रेरणा मिली जो उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर को लिखा था।

ऐसे बहुत सारे विषय हैं जो अटल जी द्वारा की गई सावरकर की व्याख्या को प्रमाणित करते हैं। स्वातंत्र्य वीर विनायक सावरकर के सिद्धांतों की वर्तमान समाज में एक विशिष्ट प्रासंगिकता इसलिए भी है क्योंकि आज भी कानूनों के आधार पर देश के प्रधान की तस्वीर के साथ छेड़छाड़ करने वाले को जेल हो जाती है और भारत की बर्बादी के नारे लगाने वाले जेल के सीकचों से बाहर ही रहते हैं। उन सिद्धांतों की प्रासंगिकता इसलिए भी है क्योंकि हमारे गांवों में आज भी ‘बिछड़े जनों’ को स्वयं से अलग ही समझा जाता है।

मेरा मानना है कि रानी लक्ष्मीबाई हों या रानी चेन्नमा, चन्द्रशेखर आजाद हों या भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां हों या बहादुर शाह जफर, जवाहर लाल नेहरू हों या महात्मा गांधी, सभी ने अपने स्तर पर कुछ ना कुछ तो अच्छा किया है। जो अच्छा है, जो सकारात्मक है, जो अनुकरणीय है, उसे आत्मसात करने अथवा उसकी प्रशंसा करने में क्या बुराई है? हिंदुत्व शब्द से परेशानी है तो स्पष्ट समझ लें कि ‘श्रीराम को पूजना हिंदुत्व नहीं बल्कि श्रीराम को आत्मसात करना हिंदुत्व है।’




सावरकर .... कुछ तथ्य जिन्हें इतिहास से गायब कर दिया गया

1 - सावरकर दुनिया के अकेले स्वतंत्र योद्धा थे जिन्हें दो -दो आजीवन कारावास की सजा मिली ,सजा झेला ..फिर राष्ट्र जीवन में सक्रिय हो गए।

2- वे विश्व के ऐसे पहले लेखक थे जिनकी कृति 1857 का प्रथम स्वत्रंतता को दो -दो देशो ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबन्ध कर दिया था। 

3 -वह पहले ऐसे भारतीय राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने सवर्प्रथम विदेशी वस्त्रों का होली जलाई।

4 -वह विश्व के पहले इन्सान थे जिनकी स्नातक की डिग्री वापस ले ली गयी थी ...उनकी स्नातक की उपाधि स्वत्रंता आंदोलन में भाग लेने के कारण अंग्रेज सरकार ने वापस ले लिया।

5 - वह पहले ऐसे विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी के सपथ लेने से मना कर दिए जिसे फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया। मजे की बात ये की गाँधी ने इंग्लैण्ड के राजा के प्रति वफादारी की कसम खाकर ही बैरिस्टर की डिग्री ली थी

6 --वह एक ऐसे कवि थे जिन्होंने अपना कविता अंदमान के जेल की दीवारों पर कोयले से लिखी फिर उसे याद किया। इस तरह याद किया दस हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से निकलने के बाद पुनः लिखा।

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सावरकर के पिटिशन को पढिये ... आपके आँखों में आंसू आ जायेंगे ..अंग्रेज चाहते तो उन्हें फांसी पर लटका सकते थे .. सावरकर ने यही लिखा ..या तो यहाँ से दुसरे जेल भेजो ..या फांसी दो .. लेकिन रोज मुझे यूँ मत तडपाओ .. 14 साल से लगातार हर रोज टार्चर झेल रहा हूँ .. और यदि मुझे नही तो इस जेल में बंद मेरे साथियो को आजाद करो .. रोज नारियल की जटाओ से रस्सी बनाते बनाते मेरे हाथो से खून निकलता है .. दवा नही मिलने से घाव सड़ गया है ... फिर तीस मन सरसों का तेल खुद बैल की जगह खुद ही कोल्हू से निकालो ..

Saturday 25 February 2017

अमेरिका, फिनलैण्ड, सोवियत गणराज्य, चीन एवं मंगोलिया, तिब्बत, जापान, ईरान, तुर्किस्तान, इटली, एबीसिनिया, इथोपिया, अफगानिस्तान, नेपाल, पाकिस्तान आदि विभिन्न देशों में किसी न किसी रूप में वर्तमानकाल में जैनधर्म के सिद्धांतों का पालन देखा जा सकता है। उनकी संस्कृति एवं सभ्यता पर इस धर्म का प्रभाव परिलक्षित होता है। इन देशों में मध्यकाल में आवागमन के साधनों का अभाव एक-दूसरे की भाषा से अपरिचित रहने के कारण, रहन-सहन, खानपान में कुछ-कुछ भिन्नता आने के कारण हम एक-दूसरे से दूर हटते ही गये और अपने प्राचीन संबंधों को सब भूल गये।
अमेरिका में लगभग २००० ईसापूर्व में संघपति जैन आचार्य ‘क्वाजन कोटल’ के नेतृत्व में श्रवण साधु अमेरिका पहुँचे और तत्पश्चात् सैकड़ों वर्षों तक श्रमण अमेरिका में जाकर बसते रहे। अमेरिका में आज भी अनेक स्थलों पर जैन धर्म श्रमण-संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। वहाँ जैन मंदिर के खण्डहर, प्रचुरता में पाये जाते हैं।
कतिपय हस्तलिखित ग्रंथों में महत्वपूर्ण प्रमाण मिले हैं कि अफगानिस्तान, ईरान, ईराक, टर्की आदि देशों तथा सोवियत संघ के जीवन-सागर एवं ओब की खाड़ी से भी उत्तर तक तथा जाटविया से उल्लई के पश्चिमी छोर तक, किसी काल में जैनधर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार था। इन प्रदेशों में अनेक जैन-मंदिरों, जैन-तीर्थंकरों की विशाल मूर्तियों, धर्मशास्त्रों तथा जैन-मुनियों की विद्यमानता का उल्लेख मिलता है।
चीन में जैन धर्म
चीन की संस्कृति पर जैन-संस्कृति का व्यापक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। चीन में भगवान ऋषभदेव के एक पुत्र का शासन था। जैन-संघों ने चीन में अहिंसा का व्यापक प्रचार-प्रसार किया था। अति प्राचीनकाल में भी श्रमण-सन्यासी यहाँ विहार करते थे। हिमालय क्षेत्र आविस्थान कोदिया और कैस्पियाना तक पहले ही श्रमण-संस्कृति का प्रचार-प्रसार हो चुका था।
चीन और मंगोलिया में एक समय जैनधर्म का व्यापक प्रचार था। मंगोलिया के भूगर्भ से अनेक जैन-स्मारक निकले हैं तथा कई खण्डित जैन-मूतियाँ और जैन-मंदिरों के तोरण मिले हैं, जिनका आँखों देखा पुरातात्विक विवरण ‘बम्बई समाचार’ (गुजराती) के ४ अगस्त सन् १९३४ के अंक में निकला थीं।
यात्रा-विवरणों के अनुसार सिरगम देश और ढाकुल की प्रजा और राजा सब जैन धर्मानुयायी थे। तातार-तिब्बत, कोरिया, महाचीन, खासचीन आदि में सैकड़ों विद्या-मंदिर हैं। इस क्षेत्र में आठ तरह के जैनी हैं। चीन में ‘तलावारे’ जाति के जैनी हैं। महाचीन में ‘जांगड़ा’ जाति के जैनी थे।
चीन के जिगरम देश ढाकुल नगर में राजा और प्रजा सब जैन-धर्मानुयायी थे। पीकिंग नगर में ‘तुबाबारे’ जाति के जैनियों के ३०० मंदिर हैं, सब मंदिर शिखरबंद हैं। इनमें जैन-प्रतिमायें खड्गासन व पद्मासनमुद्रा में विराजमान है। यहाँ जैनियों के पास जो आगम है, वे ‘चीन्डी लिपि’ में हैं। कोरिया में भी जैनधर्म का प्रचार रहा है। यहाँ ‘सोवावारे’ जाति के जैनी हैं।
‘तातार’ देश में ‘जैनधर्मसागर नगर’ में जैन मंदिर ‘यातके’ तथा ‘घघेरवाल’ जातियों के जैनी हैं। इनकी प्रतिमाओं का आकार साढे तीन गज ऊँचा और डेढ़ गज चौड़ा है।
‘मुंगार’ देश में जैनधर्म है, यहाँ ‘बाधामा’ जाति के जैनी हैं। इस नगर में जैनियों के ८००० घर हैं तथा २००० बहुत सुंदर जैन मंदिर हैं।
तिब्बत और जैनधर्म
तिब्बत में जैनी ‘आवरे’ जाति के हैं। एरूल नगर में एक नदी के किनारे बीस हजार जैन-मंदिर हैं। तिब्बत में सोहना-जाति के जैन भी हैं। खिलवन नगर में १०४ शिखर बंद जैन मंदिर हैं। वे सब मंदिर रत्न जटिल और मनोरम हैं। यहाँ के वनों में तीस हजार जैन मंदिर हैं। दक्षिण तिब्बत के हनुवर देश में दस-पंद्रह कोस पर जैनियों के अनेक नगर हैं, जिनमें बहुत से जैन मंदिर हैं। हनुवर देश के राजा-प्रजा सब जैनी हैं।
यूनान और भारत में समुद्री सम्पर्वâ था। यूनानी लेखकों के अनुसार जब सिकन्दर भारत से यूनान लौटा था, तब तक्षशिला में एक जैन मुनि ‘कोलानस’ या ‘कल्याण मुनि’ उनके साथ यूनान गये, और अनेक वर्षों तक वे एथेन्स नगर में रहे। उन्होंने एथेन्स में सल्लेखना ली। उनका समाधि स्थान यहीं पर हैं।
जापान में जैनधर्म
जापान में प्राचीनकाल में जैन-संस्कृति का व्यापक प्रचार था, तथा स्थान-स्थान पर श्रमण संघ स्थापित थे। उनका भारत के साथ निरंतर सम्पर्क बना रहता था। बाद में भारत से संपर्क दूर हो जाने पर इन जैन श्रमण साधुओं ने बौद्धधर्म से संबंध स्थापित कर लिया। चीन और जापान में ये लोग आज भी जैन-बौद्ध कहलाते हैं।
मध्य एशिया जैनधर्म
मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में लेनिनग्राड स्थित पुरातत्व संस्थान के प्रोफेसर ‘यूरि जेडनेयोहस्की’ ने २० जून सन् १९६७ को दिल्ली में एक पत्रकार सम्मेलन में कहा था कि ‘‘भारत और मध्य एशिया के बीच संबंध लगभग एक लाख वर्ष पुराना है। अत: यह स्वाभाविक है कि जैनधर्म मध्य एशिया में फैला हुआ था।’’
प्रसिद्ध प्रसीसी इतिहासवेत्ता श्री जे.ए. दुबे ने लिखा है कि आक्सियाना कैस्मिया, बल्ख ओर समरकंद नगर जैनधर्म के आरंभिक केन्द्र थे। सोवियत आर्मीनिया में नेशवनी नामक प्राचीन नगर हैं। प्रोफेसर एम.एस. रामस्वामी आयंगर के अनुसार जैन मुनि संत ग्रीस, रोम, नार्वे में भी विहार करते थे। श्री जान लिंगटन आर्किटेक्ट एवं लेखक नार्वे के अनुसार नार्वे म्यूजियम में ऋषभदेव की मूर्तियाँ हैं। वे नग्न और खड्गासन हैं। तर्जिकिस्तान में सराज्य के पुरातात्विक उत्खनन में प्राप्त पंचमार्क सिक्कों तथा सीलों पर नग्न मुद्रायें बनीं हैं। जो कि सिंधु घाटी सभ्यता के सदृश हैं। हंगरी के ‘बुडापेस्ट’ नगर में ऋषभदेव की मूर्ति एवं भगवान महावीर की मूर्ति भूगर्भ से मिली हैं।
ईसा से पूर्व ईराक, ईरान और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु हजारों की संख्या में चहुं ओर फैले थे, पश्चिमी एशिया, मिर, यूनान और इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों अगणित श्रमण-साधु रहते थे, जो अपने त्याग और विद्या के लिए प्रसिद्ध थे। ये साधु नग्न थे। वानक्रेपर के अनुसार मध्य-पूर्व में प्रचलित समानिया सम्प्रदाय श्रमण का अपभ्रंश है। यूनानी लेखक मिस्र एचीसीनिया और इथियोपिया में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व बताते हैं।
प्रसिद्ध इतिहास-लेखक मेजर जनरल जे.जी. आर फर्लांग ने लिखा है कि अरस्तू ने ईसवी सन् से ३३० वर्ष पहले कहा है, कि प्राचीन यहूदी वास्तव में भारतीय इक्ष्वाकु-वंशी जैन थे, जो जुदिया में रहने के कारण ‘यहूदी’ कहलाने लगे थे। इस प्रकार यहूदीधर्म का स्रोत भी जैनधर्म प्रतीत होता है। इतिहासकारों के अनुसार तुर्किस्तान में भारतीय-सभ्यता के अनेकानेक चिन्ह मिले हैं। इस्तानबुल नगर से ५७० कोस की दूरी पर स्थित तारा तम्बोल नामक विशाल व्यापारिक नगर में बड़े-बड़े विशाल जैन मंदिर उपाश्रय, लाखों की संख्या में जैन धर्मानुयायी चतुर्विध संघ तथा संघपति जैनाचार्य अपने शिष्यों-प्रशिष्यों के साथ विद्यमान थे। आचार्य का नाम उदयप्रभ सूरि था। वहाँ का राजा और सारी प्रजा जैन धर्मानुयायी थी।
प्रसिद्ध जर्मन-विद्वान वानक्रूर के अनुसार मध्य पूर्व एशिया प्रचलित समानिया सम्प्रदाय श्रमण जैन-सम्प्रदाय था। विद्वान जी.एफ कार ने लिखा है कि ईसा की जन्मशती के पूर्व मध्य एशिया ईराक, डबरान और फिलिस्तीन, तुर्कीस्तान आदि में जैन मुनि हजारों की संख्या में फैलकर अहिंसा धर्म का प्रचार करते रहे। पश्चिमी एशिया, मिस्र, यूनान और इथियोपिया के जंगलों में अगणित जैन-साधु रहते थे।
मिस्र के दक्षिण भाग के भू-भाग को राक्षस्तान कहते हैं। इन राक्षसों को जैन-पुराणों में विद्याधर कहा गया है। ये जैन धर्म के अनुयायी थे। उस समय यह भू भाग सूडान, एबीसिनिया और इथियोपिया कहलाता था। यह सारा क्षेत्र जैनधर्म का क्षेत्र था।
मिस्र (एजिप्ट) की प्राचीन राजधानी पैविक्स एवं मिस्र की विशिष्ट पहाड़ी पर मुसाफिर लेखराम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘कुलपति आर्य मुसाफिर’ में इस बात की पुष्टि की है कि उसने वहाँ ऐसी मूर्तियाँ देखी है, जो जैन तीर्थ गिरनार की मूर्तियों से मिलती जुलती है।
प्राचीन काल से ही भारतीय
मिस्र, मध्य एशिया, यूनान आदि देशों से व्यापार करते थे, तथा अपने व्यापार के प्रसंग में वे उन देशों में जाकर बस गये थे। बोलान के अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुआ। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत (उच्चनगर) में भी जैनधर्म का बड़ा प्रभाव था। उच्चनगर का जैनों से अतिप्राचीनकाल से संबंध चला आ रहा है तथा तक्षशिला के समान ही वह जैनों का केन्द्र-स्थल रहा है। तक्षशिला, पुण्डवर्धन, उच्चनगर आदि प्राचीन काल में बड़े ही महत्वपूर्ण नगर रहे हैं, इन अतिप्राचीन नगरों में भगवान ऋषभदेव के काल से ही हजारों की संख्या में जैन परिवार आबाद थे। घोलक के वीर धवल के महामंत्री वस्तुपाल ने विक्रम सं. १२७५ से १३०३ तक जैनधर्म के व्यापक प्रसार के लिए योगदान किया था। इन लोगों ने भारत और बाहर के विभिन्न पर्वत शिखरों पर सुन्दर जैन मंदिरों का निर्माण कराया, और उनका जीर्णोद्धार कराया एवं सिंध (पाकिस्तान), पंजाब, मुल्तान, गांधार, कश्मीर, सिंधुसोवीर आदि जनपदों में उन्होंने जैन मंदिरों, तीर्थों आदि का नव निर्माण कराया था, कम्बोज (पामीर) जनपद में जैनधर्म पेशावर से उत्तर की ओर स्थित था। यहाँ पर जैनधर्म की महती प्रभावना और जनपद में बिहार करने वाले श्रमण-संघ कम्बोज, याकम्बेडिग गच्छ के नाम से प्रसिद्ध थे। गांधार गच्छ और कम्बोज गच्छ सातवीं शताब्दी तक विद्यामान थे। तक्षशिला के उजड़ जाने के समय तक्षशिला में बहुत से जैन मंदिर और स्तूप विद्यमान थे।
अरबिया में जैनधर्म इस्लाम के फैलने पर अरबिया स्थित आदिनाथ नेमिनाथ और बाहुबली के मंदिर और अनेक मूर्तियाँ नष्ट हो गई थीं। अरबिया स्थित पोदनपुर जैनधर्म का गढ था, और यह वहाँ की राजधानी थी। वहाँ बाहुबली की उत्तुंग प्रतिमा विद्यमान थी।
ऋषभदेव को अरबिया में ‘‘बाबा आदम’’ कहा जाता है। मौर्य सम्राट सम्प्रति के शासनकाल में वहाँ और फारस में जैन संस्कृति का व्यापक प्रचार हुआ था, तथा वहाँ अनेक बस्तियाँ विद्यमान थी।
मक्का में इस्लाम की स्थापना के पूर्व वहाँ जैनधर्म का व्यापक प्रचार प्रसार था। वहाँ पर अनेक जैन मंदिर विद्यमान थे। इस्लाम का प्रचार होने पर जैन मूर्तियाँ तोड़ दी गई, और मंदिरों को मस्जिद बना दिया गया। इस समय वहाँ जो मस्जिदें हैं, उनकी बनावट जैन मंदिरों के अनुरूप है। इस बात की पुष्टि जैम्सफग्र्यूसन ने अपनी ‘विश्व की दृष्टि’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक के पृष्ठ २६ पर की है। मध्यकाल में भी जैन दार्शनिकों के अनेक संघ बगदाद और मध्य एशिया गये थे, और वहाँ पर अहिंसा धर्म का प्रचार किया था।
यूनानियों के धार्मिक इतिहास से भी ज्ञात होता है, कि उनके देश में जैन सिद्धांत प्रचलित थे। पाइथागोरस, पायरों, प्लोटीन आदि महापुरूष श्रमणधर्म और श्रमण दर्शन के मुख्य प्रतिपादक थे। एथेन्स में दिगम्बर जैन संत श्रमणाचार्य का चैत्य विद्यमान है, जिससे प्रकट है कि यूनान में जैनधर्म का व्यापक प्रसार था। प्रोफेसर रामस्वामी ने कहा था कि बौद्ध और जैन श्रमण अपने-अपने धर्मों के प्रचारार्थ यूनान रोमानिया और नार्वें तक गये थे। नार्वे के अनेक परिवार आज भी जैन धर्म का पालन करते हैं। आस्ट्रिया और हंगरी में भूकम्प के कारण भूमि में से बुडापेस्ट नगर के एक बगीचे से महावीर स्वामी की एक प्राचीन मूर्ति हस्तगत हुई थी। अत: यह स्वत: सिद्ध है कि वहाँ जैन श्रावकों की अच्छी बस्ती थी।
सीरियां में निर्जनवासी श्रमण सन्यासियों के संघ और आश्रम स्थापित थे। ईसा ने भी भारत आकर संयास और जैन तथा भारतीय दर्शनों का अध्ययन किया था। ईसा मसीह ने बाइबिल में जो अहिंसा का उपदेश दिया था, वह जैन संस्कृति और जैन सिद्धांत के अनुरूप है।
स्केडिनेविया में जैन धर्म के बारे में कर्नल टाड अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘राजस्थान’ में लिखते हैं कि ‘‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में चार बुद्ध या मेधावी महापुरुष हुये हैं। इनमें पहले आदिनाथ और दूसरे नेमिनाथ थे। ये नेमिनाथ की स्केडिनेविया निवासियों के प्रथम औडन तथा चीनियों के प्रथम ‘फे’ नामक देवता थे। डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार के अनुसार सुमेर जाति में उत्पन्न बाबुल के सिल्दियन सम्राट नेबुचंद नेजर ने द्वारका जाकर ईसा पूर्व ११४० में लगभग नेमिनाथ का एक मंदिर बनवाया था। सौराष्ट में इसी सम्राट नेबुचंद नेजर का एक ताम्र पत्र प्राप्त हुआ है।’’ कोश्पिया में जैनधर्म मध्य एशिया में बलख क्रिया मिशी, माकेश्मिया, उसके बाद मासवों नगरों अमन, समरवंâद आदि में जैनधर्म प्रचलित था, इसका उल्लेख ईसापूर्व पांचवीं, छठी शती में यूनानी इतिहास में किया गया था। अत: यह बिल्कुल संभव है कि जैनधर्म का प्रचार केश्पिया, रूकाबिया और समरवंâद बोक आदि नगरों में रहा था।
ब्रह्मदेश (वर्मा) में जैनधर्म
शास्त्रों में ब्रह्मदेश को स्वर्णद्वीप कहा गया है। जनमत प्रसिद्ध जैनाचार्य कालकाचार्य और उसके शिष्य गया स्वर्णद्वीप में निवास करते थे, वहाँ से उन्होंने आसपास के दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों में जैनधर्म का प्रचार किया था। थाइलैण्ड स्थित नागबुद्ध की नागफणवाली प्रतिमायें पाश्र्वनाथ की प्रतिमायें हैं।
श्रीलंका में जैनधर्म
भारत और लंका (सिंहलद्वीप) के युगों पुराने सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। सिंहलद्वीप में प्राचीनकाल में जैनधर्म का प्रचार था। मंदिर, मठ, स्मारक विद्यमान थे, जो बाद में बौद्ध संघाराम बना लिये गये।
सम्पूर्ण सिंहलद्वीप के जन-जीवन पर जैन संस्कृति की स्पष्ट छाप दृष्टिगोचर होती है। जैन मुनि यश:कीर्ति ने ईसाकाल की प्रारंभिक शताब्दियों में सिंहलद्वीप जाकर जैनधर्म का प्रचार किया था। श्री लंका में जैन-श्रावकों और साधुओं के स्थान-स्थान पर चौबीसों जैन तीर्थंकरों के भव्य मंदिर बनवाये। सुप्रसिद्ध पुरातत्वविद् फग्र्यूसन ने लिखा है कि कुछ यूरोपियन लोगों ने श्रीलंका में सात ओर तीन फणों वाली मूर्तियों के चित्र लिये। ये सात फण पाश्र्वनाथ की मूर्तियों पर और तीन फण उनके शासनदेव-धरणेन्द्र और शासनदेवी पद्मावती की मूर्ति पर बनाये जाते हैं। भारत के सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता श्री पी.सी. राय चौधरी ने श्रीलंका में जैनधर्म के विषय में विस्तार से शोध-खोज की है।
तिब्बत देश में जैनधर्म
तिब्बत के हिमिन मठ में रूसी पर्यटक नोटोबिच ने पालीभाषा का एक ग्रंथ प्राप्त किया था, उसमें स्पष्ट लिखा है कि ‘‘ईसा ने भारत तथा मौर्य देश जकार वहाँ अज्ञातवास किया था, और वहाँ उन्होंने जैन-साधुओं के साथ साक्षात्कार किया था।’’ हिमालय क्षेत्र के निवासित वर्तमान हिमरी जाति के पूर्वज तथा गढ़वाल और तराई के क्षेत्र में पूर्वज जैनों हेतु प्रयुक्त ‘हिमरी’ शब्द ‘दिगम्बरी’ शब्द का अपभ्रंशरूप है। जैन-तीर्थ अष्टापद (कैलाश पर्वत) हिम-प्रदेश के नाम से विख्यात है, जो हिमालय-पर्वत के बीच शिखरमाल में स्थित है, और तिब्बत में है, जहाँ आदिनाथ भगवान की निर्वाण भूमि है।
अफगानिस्तान में जैनधर्म
अफगानिस्तान प्राचीनकाल में भारत का भाग था, तथा अफगानिस्तान में सर्वत्र जैन साधु निवास करते थे। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व संयुक्त महानिर्देशक श्री टी.एन. रामचंद्रन अफगानिस्तान गये। उन्होंने एक शिष्टमंडल के नेता के रूप में यह मत व्यक्त किया था, कि ‘‘मैंने ई. छठी, सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के इस कथन का सत्यापन किया है, कि यहाँ जैन तीर्थंकरों के अनुयायी बड़ी संख्या में हैं। उस समय एलेग्जेन्ड्रा में जैनधर्म और बौद्धधर्म का व्यापक प्रचार था।’’
चीनी यात्री ह्वेनसांग ६८६-७१२ ईस्वी के यात्रा के विवरण के अनुसार कपिश देश में १० जैनमंदिर हैं। वहाँ निग्र्रन्थ जैन मुनि भी धर्म प्रचारार्थ विहार करते हैं। ‘काबुल’ में भी जैनधर्म का प्रसार था। वहाँ जैन-प्रतिमायें उत्खनन में निकलती रहती हैं।
हिन्द्रेशिया, जावा, मलाया, कम्बोडिया आदि देशों में जैनधर्म-
इन द्वीपों के सांस्कृतिक इतिहास और विकास में भारतीयों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इन द्वीपों के प्रारंभिक अप्रवासियों का अधिपति सुप्रसिद्ध जैन महापुरूष ‘कौटिल्य’ था, जिसका कि जैनधर्म-कथाओं में विस्तार से उल्लेख हुआ है। इन द्वीपों के भारतीय आदिवासी विशुद्ध शाकाहारी थे। इन देशों से प्राप्त मूर्तियाँ तीर्थंकर मूर्तियों से मिलती जुलती है। यहाँ पर चैत्यालय भी मिलते हैं, जिनका जैन परम्परा में बड़ा महत्व है।
नेपाल देश में जैनधर्म
नेपाल का जैनधर्म के साथ प्राचीनकाल से ही बड़ा संंबंध रहा है। आचार्य भद्रबाहु वीर निर्वाण संवत् १७० में नेपाल गये थे, और नेपाल की कन्दराओं में उन्होंने तपस्या की थी, जिससे सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र में जैनधर्म की बड़ी प्रभावना हुई थी।
नेपाल का प्राचीन इतिहास भी इस बात का साक्षी है। उस क्षेत्र की बद्रीनाथ, केदारनाथ एवं पशुपतिनाथ की मूर्तियाँ जैन मुद्रा ‘पद्मासन’ में हैं, और उन पर ऋषभ-प्रतिमा के अन्य चिन्ह भी विद्यमान हैं। नेपाल के राष्ट्रीय अभिलेखागार में अनेक जैन ग्रंथ उपलब्ध है, तथा पशुपतिनाथ के पवित्र क्षेत्र में जैन तीर्थंकरों की अनेक मूर्तियाँ विद्यमान हैं। वर्तमान में संयुक्त जैन समाज द्वारा नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में एक विशाल जैन मंदिर का निर्माण किया जा चुका है। वर्तमान नेपाल में लगभग ५०० परिवार जैनधर्म को मानने वाले हैं। यहाँ श्री उमेशचंद जैन एवं श्री अनिल जैन आदि सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
भूटान में जैनधर्म
भूटान में जैनधर्म का खूब प्रसार था, तथा जैन मंदिर और जैन साधु-साध्वियाँ विद्यमान थे। विक्रम संवत् १८०६ में दिगम्बर जैन तीर्थयात्री लागचीदास गोलालारे ब्रह्मचारी भूटान देश में जैन तीर्थयात्रा के लिए गया था, जिसके विस्तृत यात्रा विवरण की १०८ प्रतियाँ भिन्न भिन्न जैन शास्त्र भण्डारों (एक प्रति जैन शास्त्र भंडार, तिजारा राजस्थान) में सुरक्षित है।
पाकिस्तान की परवर्ती-क्षेत्रों में जैनधर्म
आदिनाथ स्वामी ने भरत को अयोध्या, बाहुबली को पोदनपुर तथा शेष ९८ पुत्रों को अन्य देश प्रदान किये थे। बाहुबली ने बाद में अपने पुत्र महाबलि को पोदनपुर का राज्य सौंपकर मुनि दीक्षा ली थी। पोदनपुर वर्तमान पाकस्तिान क्षेत्र में विन्ध्यार्ध पर्वत के निकट सिंधु नदी के सुरम्य एवं रम्यक देश के उत्तरार्ध में था और जैन-संस्कृति का जगत विख्यात विश्व केन्द्र था। कालांतर में पोदनपुर अज्ञात कारणों से नष्ट हो गया।
तक्षशिला जनपद में जैनधर्म
तक्षशिला अति प्राचीनकाल में शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था, तथा जैनधर्म के प्रचार का भी महत्वपूर्ण केन्द्र रहा। इस दृष्टि से प्राचीन जैन परम्परा से यह स्थान तीर्थस्थल सा हो गया था। सिंहपुर भी प्राचीन जैन प्रसार केन्द्र के रूप में विख्यात था। सम्राट हर्षवर्धन के काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने यहाँ की यात्रा की थी, जिसने इस स्थान पर जगह जगह जैन श्रमणों का निवास बताया था।
सिंहपुर जैन महातीर्थ
यहाँ एक जैन स्तूप के पास जैन मंदिर और शिलालेख थे, यह जैन महातीर्थ १४ वीं शताब्दी तक विद्यमान था। इस महाजैन तीर्थ का विध्वंस सम्भवत: सुल्तान सिकन्दर बुतशिकन ने किया था। डॉ. बूह्लर की प्रेरणा से डॉ. स्टॉइन ने सिंहपुर के जैन मंदिरों का पता लगाने पर कटाक्ष से दो मील की दूरी पर स्थित मूर्ति गांव में खुदाई से बहुत सी जैन मूर्तियाँ और जैन मंदिरों तथा स्तूपों के खण्डहर प्राप्त किये, जो २६ ऊँटों पर लादकर लाहौर लाये गये, और वहाँ के म्यूजियम में सुरक्षित किये गये।
ब्राह्मीदेवी मंदिर-एक जैन महातीर्थ
यह स्थान किसी समय श्रमण संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था। इस क्षेत्र में जैन साधुओं की यह परम्परा एक लम्बे समय से अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। ‘कल्पसूत्र’ के अनुसार भगवान ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी इस देश की महाराज्ञी थी, अंत में वह साध्वी-प्रमुख भी बनीं, और उसने तप किया।
मोअनजोदड़ों आदि की खुदाइयों में जो अनेकानेक सीलें प्राप्त हुई हैं, उन पर नग्न दिगम्बर मुद्रा में योगी अंकित हैं।
मोअनजोदड़ों, हड्प्पा, कालीबंगा आदि २०० से अधिक स्थानों के उत्खनन से जो सीलें, मूर्तियाँ एवं अन्य पुरातात्विक सामग्री प्राप्त हुई है, वह सब शाश्वत जैन परम्परा की द्योतक हैं।
कश्यपमेरु (कश्मीर जनपद) में जैनधर्म
कवि कल्हणकृत राजतरि गिरि के अनुसार कश्मीर अफगानिस्तान का राजा सत्यप्रतिज्ञ अशोक जैन था, जिसने और जिसके पुत्रों ने अनेक जैन मंदिरों का निर्माण कराया था, तथा जैनधर्म का व्यापक प्रसार किया।
हड़प्पा-परिक्षेत्र में जैनधर्म
इसके अतिरिक्त सक्खर मो-अन-जो-दड़ों, हड़प्पा, कालीबंगा आदि की खुदाईयों से भी महत्वपूर्ण जैन पुरातत्व सामग्री प्राप्त हुई है, जिसमें बड़ी संख्या में जैन-मूर्तियाँ, प्राचीन सिक्के, बर्तन आदि विशेष ज्ञातव्य हैं।
गांधार और पुण्ड जनपद में जैनधर्म
सिंधु नदी के काबुल नदी तक का क्षेत्र मुल्तान और पेशावर गांधारमण्डल में सम्मिलित थे, पश्चिमी पंजाब और पूर्वी अफगानिस्तान भी इसमें सम्मिलित थे। गांधार जनपद में विहार करने वाले जैन साधु गांधार कच्छ के नाम से विख्यात थे। सम्पूर्ण जनपद जैनधर्म बहुल जनपद था।
बांग्लादेश एवं निकटवर्ती-क्षेत्रों में जैनधर्म
बांग्लादेश और उसके निकटवर्ती पूर्वी क्षेत्र और कामरूप जनपद में जैन संस्कृति का व्यापक प्रचार प्रसार रहा है, जिसके प्रचुर संकेत सम्पूर्ण वैदिक और परवर्ती साहित्य में उपलब्ध हैं।
आज इस कामरूप प्रदेश में जिसमें बिहार, उड़ीसा और बंगाल भी आते हैं, सर्वत्र गाँव-गाँव जिलों-जिलों में प्राचीन सराक जैन संस्कृति की व्यापक शोध खोज हो रही है, और नये नये तथ्य उद्घाटित हो रहे हैं।
पहाड़पुर (राजशाही बंगलादेश) में उपलब्ध ४७८ ईस्वी के ताम्रपत्र के अनुसार पहाड़पुर में एक जैन मंदिर था, जिसमें ५००० जैन मुनि, ध्यान अध्ययन करते थे, और जिसके ध्वंसावशेष चारों ओर बिखरे पड़े हैं। ‘मौज्डवर्धन’ और उसके समीपस्थ ‘कोटिवर्ष’ दोनों ही प्राचीनकाल में जैनधर्म के प्रमुख केन्द्र थे। श्रुतकेवली भद्रबाहु और आचार्य अर्हद्बलि दोनों ही आचार्य इसी नगर के निवासी थे। परिणामत: जैनधर्म बंगाल एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। सम्भवत: प्रारंभिक काल में बंगाल के लोकप्रिय बन जाने के कारण ही जैनधर्म इस प्रदेश के समुद्री तटवर्ती भू भागों से होता हुआ उत्कल प्रदेश के विभिन्न भू-भागों में भी अत्यंत शीघ्र गति से फैल गया।
विदेशों में जैन-साहित्य और कला-सामग्री
लंदन-स्थित अनेक पुस्तकालयों में भारतीय ग्रंथ विद्यमान हैं, जिनमें से एक पुस्तकालय में तो लगभग १५०० हस्तलिखित भारतीय ग्रंथ हैं। अधिकतर ग्रंथ प्राकृत, संस्कृत भाषाओं में हैं, और जैनधर्म सें संबंधित हैं।
जर्मनी में भी बर्लिन स्थित एक पुस्तकालय में बड़ी संख्या में जैन ग्रंथ विद्यमान हैं, अमेरिका के बाशिंगटन और बोस्टन नगर में ५०० से अधिक पुस्तकालय हैं, इनमें से एक पुस्तकालय में ४० लाख हस्तलिखित पुस्तवेंâ हैं, जिनमें से २०००० पुस्तवेंâ प्राकृत, संस्कृत भाषाओं में हैं, जो भारत से गई हुई हैं।
में ११०० से अधिक बड़े पुस्तकालय हैं, जिनमें पेरिस स्थित बिब्लियोथिक नामक पुस्तकालय में ४० लाख पुस्तवेंâ हैंं। उनमें १२ हजार पुस्तवेंâ प्राकृत, संस्कृत भाषा की हैं, जिनमें जैन ग्रंथों का अच्छी संख्या है।
रूस में एक राष्ट्रीय पुस्तकालय है, जिसमें ५ लाख पुस्तवेंâ हैं। उनमें २२ हजार पुस्तवेंâ प्राकृत, संस्कृत की हैं। इसमें जैन ग्रंथों की भी बड़ी संख्या है।
इटली के पुस्तकालयों में ६० हजार पुस्तवें तो प्राकृत, संस्कृत की हैं, और इसमें जैन पुस्तकें बड़ी संख्या में हैं।
नेपाल के काठमाण्डू स्थित पुस्तकालयों में हजारों की संख्या में जैन प्राकृत और संस्कृत ग्रंथ विद्यमान हैं।
इसी प्रकार चीन, तिब्बत, वर्मा, इंडोनेशिया, जापान मंगोलिया, कोरिया, तुर्की, ईरान, अल्जीरिया, काबुल आदि के पुस्तकालयों में भी जैन-भारतीय ग्रंथ बड़ी संख्या में उपलब्ध है।
भारत से विदेशों में ग्रंथ ले जाने की प्रवृत्ति केवल अंग्रेजीकाल से ही प्रारंभ नहीं हुई, अपितु इससे हजारों वर्ष पूर्व भी भारत की इस अमूल्य निधि को विदेशी लोग अपने अपने देशों में ले जाते रहे हैं।
वे लोग भारत से कितने ग्रंथ ले गये, उनकी संख्या का सही अनुमान लगाना कठिन है। इसके अतिरिक्त म्लेच्छों, आततायियों, धर्मद्वेषियों ने हजारों, लाखों की संख्या में हमारे साहित्य रत्नों को जला दिया।
इसी प्रकार जैन मंदिरों, मूर्तियों, स्मारकों, स्तूपों आदि पर भी अत्यधिक अत्याचार हुये हैं। बड़े-बड़े जैन तीर्थ, मंदिर स्मारक आदि भंजकों ने धराशायी किये। अफगानिस्तान, काश्यपक्षेत्र, सिंधु, सोवीर, बलूचिस्तान, बेबीलोन, सुमेरिया, पंजाब, तक्षशिला तथा कामरूप प्रदेश बांग्लादेश आदि प्राचीन जैन संस्कृति बहुल क्षेत्रों में यह विनाशलीला चलती रही। अनेक जैन मंदिरों को हिन्दु और बौद्ध मंदिरों में परिवर्तित कर लिया गया या उनमें मस्जिदें बना ली गई। अनेक जैन मंदिर, मूर्तियों आदि अन्य धर्मियों के हाथों में चले जाने से अथवा अन्य देवी-देवताओं के रूप में पूजे जाने से जैन इतिहास और पुरातत्व एवं कला सामग्री को भारी क्षति पहुँची है।