Friday 13 January 2017



अगर मिशिनारियों को उपन्यास पढ़ने का शौक हो तो वो क्या पढ़ेंगे ?
 कई बार लोग थोड़े समय के लिए धर्म का प्रचार करने भी थर्ड वर्ल्ड यानि पिछड़े देशों में निकल पड़ते हैं। ये पूरे समय वाले इसाई मिशनरी नहीं होते, अक्सर एक आध पीढ़ी पहले ही धर्म परिवर्तन कर के ईसाई बने होते हैं। पेशे से डॉक्टर, या शिक्षा से जुड़े हुए लोग, जिनकी श्रद्धा कामयाबी फ़ौरन ना मिलने पर डिगे ना, ये भी जरूरी है। जाहिर है ये लोग लगातार बाइबिल तो पढ़ते ही हैं, साथ ही इनके पास अक्सर आपको Death Came for the Archbishop भी मिल जायेगी। ये करीब सौ साल पहले, 1927 के दौर में लिखी गई किताब है।
बहुत पहले अमेरिका का मेक्सिको प्रान्त कोई आजाद देश नहीं था। वहां स्पेन का शासन था। यही वजह है कि अमेरिका में आज भी अंग्रेजी से ज्यादा स्पेनिश बोलने वाले लोग हैं। इस दौर में रेड इंडियन्स कहलाने वाले ज्यादातर लोग रिलिजन के हिसाब से तो ईसाई हो गए थे लेकिन बर्ताव में उन्होंने अपने पुराने संस्कार नहीं छोड़े थे। इनसे निपटने के लिए, या कहिये कि इनको सुधार कर ‘शुद्ध’ इसाई बनाने के लिए वेटिकन ने दो फ़्रांसिसी कैथोलिक प्रीस्ट, अमेरिकी दक्षिण-पश्चिम इलाके में भेजे। बिशप (Bishop) जीन मेरी लाटूर और उनके विकर (Vicar) फादर जोसफ इस इलाके में 1851 में आये थे। विल्ला कैथेर का ये उपन्यास 1927 में उनकी कहानी सुना रहा होता है।
 दोनों प्रीस्ट इलाके में घूम रहे हैं, और रास्ते में कई लोगों से मिलते हैं। कई लोगों की छोटी छोटी कहानियों के एक बंडल के तौर पर भी आप इस किताब को देख सकते हैं। हर कहानी में एक कोई मुश्किल परिस्थिति होती है, जिससे निपटने में दोनों प्रीस्ट की श्रद्धा-आस्था काम आती है। दोनों प्रीस्ट की रिलिजन के प्रति आस्था में फर्क भी है, दोनों के व्यक्तित्व अलग हैं। बार बार कैसे श्रद्धा के वजह से उनकी मुश्किल हल होती है यही हर कहानी में दिखाया है।
हर चरित्र किस मौके पर कैसा महसूस कर रहा है, उसका विस्तार से वर्णन है। एक ही घटना अलग अलग लोगों पर क्या असर डाल रही है ये पढ़ने वाले को महसूस होता रहता है। किताब में कोई बड़े राक्षस नहीं है जिनसे लड़ के जीता गया हो। रेड इंडियन्स के प्रति क्रूरता दिखाने वाले नॉन-रिलीजियस, मजहब का ‘सही मतलब ना समझे’ लोग हैं। प्रीस्ट हर बार लड़ कर नहीं, बल्कि बहला फुसला कर, ‘प्यार से’ लोगों को सही रास्ता दिखाते हैं।
 कुल मिला कर लोगों के संस्कार, उनके पहले के बर्ताव, उनकी धारणाओं को कैसे बदला गया ये उसकी कहानी है। पूरी किताब में आस्था कहीं भी जोर जबरदस्ती नहीं बदली जाती। भड़काया-उकसाया नहीं जा रहा होता है लोगों को। विकर और बिशप अपना काम बिलकुल ईसाईयों वाले तरीके से ही करते हैं : प्यार से, बहला फुसला कर। आज मैक्सिको के इलाके में जो ईसाई धर्म का प्रभाव दिखता है उसमें इन दोनों का बहुत बड़ा योगदान है।
अगर  धर्म-परिवर्तन, कैसे होता है, कैसे किया जाता है, और कैसे नहीं किया जाता ये समझना हो तो ये किताब बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। करीब दो सौ पन्ने की ये किताब इन्टरनेट से मुफ्त डाउनलोड की जा सकती है। धार्मिक प्रचार कैसे होना चाहिए उसमें रूचि हो तो पढ़ के सीख सकते हैं।
(अगर असर समझना हो तो इस आखरी वाक्य में हमने लिखा था “धार्मिक प्रचार कैसे होना चाहिए उसमें रूचि हो तो पढ़ लीजिये।” मगर वो सीधा आदेश होता इसलिए बदल कर “पढ़ के सीख सकते हैं” कर दिया है।)
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अच्छे लोगों से गलत काम और भयानक दुराचारी से भी पुण्य हो ही जाता है। ऐसे ही चरित्र ग्राहम ग्रीन की किताब ‘द पॉवर एंड द ग्लोरी’ में हैं। ये कहानी एक प्रीस्ट की है जो 1930 के दौर का है। ये एक नंबर का शराबी कैथोलिक प्रीस्ट जान बचा के भाग रहा होता है।
एक पुलिस लेफ्टिनेंट उसका पीछा कर रहा था, कहानी में लेफ्टिनेंट का नाम नहीं बताते। ये वो दौर था जब मेक्सिको की सरकार, कैथोलिक चर्च को सुधारने पर तुली थी। एक तरफ जहाँ कैथोलिक प्रीस्ट शराबी है, वहीँ दूसरी तरफ पुलिसिया ऐसा है कि वो प्रीस्ट की खबर उगलवाने के लिए लोगों को उठा ले जाने और किसी को गोली मारने से भी नहीं हिचकता।
पूरी कहानी में अच्छे और बुरे दोनों ही पक्ष सही और गलत दोनों हरकतें कर रहे होते हैं। इस किताब की चर्च ने बड़ी निंदा की थी और वेटिकन ने इसे वापिस लेने भी कहा था। मगर ग्राहम ग्रीन कैथोलिक तो थे, मगर चतुर भी थे। उनसे जब इस किताब को वापिस लेने कहा गया था तो उनका जवाब था कि कॉपीराइट तो प्रकाशक के पास है ! पेंगुइन ने इस किताब को वापिस नहीं लिया।



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