Wednesday 11 January 2017

भारत का महान औद्दोगिक इतिहास : भारतीय ऐसा लौह/स्टील उत्पाद बनाते थे जिसमें कभी जंग नहीं लगता था

एक समय था जब भारत को धरती पर सोने की चिड़िया कहा जाता था। जिसका कारण भारत का बेहद संपन्न एवं विकसित होना था। यह वो समय था जब भारत सुई से लेकर बड़े बड़े हथियारों तक का निर्माण खुद ही करता था। जब अमेरिका ब्रिटेन व यूरोपीय देशों में लोग खानाबदोशों की तरह जीवन यापन करते थे तब उस समय भारत में घर घर में ऐसी विशिष्ट प्रणाली के उत्पाद तैयार किये जाते थे जो आज भी दुनिया के लिए मिसाल हैं।
यहाँ हम बात कर रहे हैं भारत में खनिजों व इस्पातों की सहायता से तैयार किये जाने वाले उत्पादों व् उनकी निर्माण प्रणाली के बारे में जो धरती पर सबसे उच्चतम तो थी ही इसके साथ ही भारतीयों के पास ऐसी ऐसी तकनीकि थी जिसके सहारे किया गया निर्माण ना ही मात्र बेहद टिकाऊ व बेहद मजबूत होता था बल्कि उसमें कभी भी जंग नही लगता था।
इस प्रणाली से होने वाले कई निर्माण आज भी जस के तस सुरक्षित हैं और उनमे जंग का नामोनिशान तक नही है, चाहे क़ुतुब मीनार परिसर में लगा लौह स्तंभ हो या फिर संग्रहालयों में रखे सदियों पुराने हथियार सभी एकदम सुरक्षित हैं।
लौह स्तंभ राजधानी दिल्ली स्थित क़ुतुब मीनार परिसर में लगा एक विशाल स्तम्भ है। यह अपने आप में प्राचीन भारतीय इस्पात कला का अनूठा उदाहरण है। इस स्तंभ का निर्माण महान राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने करवाया था।
इस स्तंभ की उँचाई लगभग सात मीटर है जो पहले हिंदू मंदिर का हिस्सा हुआ करता था। तेरहवीं सदी में मुस्लिम आक्रमणकारी कुतुबुद्दीन ऐबक ने मंदिर को नष्ट करके इसे क़ुतुब मीनार नाम दिया। बताया जाता है क़ुतुब मीनार वास्तव में खगोलविद वराहमिहिर की वेध शाळा थी और इस मीनार का नाम विष्णु स्तंभ हुआ करता था।
लौह-स्तंभ में लोहे की मात्रा लगभग 98% है और अभी तक इसमें जंग नहीं लगा है। सदियों से यह ऐसे ही खुले आसमान के नीचे सभी मौसमों में अविचल खड़ा है। इतने वर्षों में आज तक उसमें जंग नहीं लगी, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है।
भारतीय लुहार इस्पातों से बने खंभों को कुछ इस तरह बनाते थे जो बिना कोई कील लगाये या फिर बिना किसी जोड़ के ही निर्मित होता था भारतवर्ष में आज से हजारों वर्ष पूर्व गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की आश्चर्यजनक तकनीक भी रिसर्च का विषय है, क्योंकि इन पूरे लौह स्तंभों में एक भी स्थान पर कहीं जोड़ नहीं दिखाई देता। सदियों से खुले में रहने के बाद भी इन लौह स्तंभों के वैसे के वैसे बने रहने (जंग न लगने) की स्थिति ने विशेषज्ञों को भी चकित किया हुआ है। इसमें फास्फोरस की अधिक मात्रा व सल्फर तथा मैंगनीज कम मात्रा में है।
बताया जाता है कि, स्लग की अधिक मात्रा अकेले तथा सामूहिक रूप से जंग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं। इसके अतिरिक्त 50 से 600 माइक्रोन मोटी (एक माइक्रोन = 1 मि.मी. का एक हजारवां हिस्सा) आक्साइड की परत भी स्तंभ को जंग से बचाती है। इसके प्रयोग में प्राचीन भारत के लुहार बेहद पारंगत थे जिस कारण वह ऐसे निर्माण करने में सक्षम थे जिसमें कभी भी जंग नही लगता था और वो हमेशा की तरह ही चमकती रहती थी। 
भारत ब्रिटिशों के आने तक भी दुनिया का सब से बड़ा लोहे/स्टील का निर्यातक था, चीन जैसे पडोसी देश हों या फिर अरब यूरोप हर जगह भारतीय उत्पादों का निर्यात किया जाता था।खासकर भारतीय स्टील से निर्मित तलवार जिसके प्रशंसक पूरी दुनिया में थे। इस स्टील को वर्तमान में दमास्कस स्टील के नाम से जाने जाता है जिससे बनी तलवार दुनिया की सबसे कीमती और शानदार मानी जाती है और आज तक इसे दोबारा कोई नहीं बना सका है। इस तकनीकि और निर्माण प्रणाली का एक मात्र स्रोत भारत था और भारत के हर गाँव में लुहारो के परिवार ऐसा स्टील/लोहा बनाते थे। रोजाना प्रयोग होने वाले इस्पात से बने यंत्र हों या फिर हथियार भारतीय लुहार हर वस्तु बेजोड़ बनाते थे जिसके प्रमाण आज भी समय समय पर जगह जगह मिलते रहते हैं।
वर्तमान के कर्नाटक, तमिलनाडू, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और ओडिशा में इनका प्रमुखता से निर्माण होता था जिसे यूरोप/अरब के व्यापारी खरीद कर ले जाते थे। उस समय भारतीय उत्पादक इनकी पेमेंट सिर्फ सोने चांदी जैसे मूल्यवान वस्तुओं के बदले ही करते थे।
यही कारण था कि भारत में धरती पर सबसे ज्यादा सोना पाया जाता था। बताया जाता है कि, ज्यादातर विदेशी व्यापारी भारत से बने बनाये उत्पाद तो ले ही जाते थे लेकिन कुछ ऐसे भी व्यापारी भी थे जो सीधे इस्पात ही खरीदते थे और अपने देशों में ले जाकर उन्हें गलाकर अपने मन मुताबिक़ उत्पाद तैयार करते थे। ये सभी व्यापारी भारत की बनी हुई तलवारे सोने के बराबर तौल के बेचा करते थे और राजे महाराजे इन्हें बेहद शान से रखते थे। यहाँ तक की पश्चिम इतिहास की सब से प्रसिद्द तलवार ‘एक्सकैलिबर’ भी इसी भारतीय लोहे से बनी थी। जेम्स फ्रैंकलिन नामक अंग्रेज विद्वान ने जिसने भारत के स्टील व लौह उत्पादों पर काफी अध्ययन किया था उसने भी भारतीय स्टील की विशेषताओं का व्याख्यान करते हुए भारत के एज्म्क्र प्रशंसा की है
ब्रिटिश धातुकर्मी विशेषज्ञ ‘जेम्स फ़्रेंकलिन’ के अनुसार “भारत का स्टील दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है। भारत के कारीगर स्टील को बनाने के लिए जो भट्टियाँ तैयार करते हैं वो दुनिया में कोई नही बना पाता।”वो कहता है कि, इंग्लैंड में लोहा बनाना तो हमने 1825 के बाद शुरू किया भारत में तो लोहा 10वीं शताब्दी से ही हजारों हजारों टन में बनता रहा है और दुनिया के देशों में बिकता रहा है।” फ़्रेंकलिन बताता है कि, “मैं भारत से एक बार स्टील का एक नमूना लेकर आया था जिसे मैंने इंग्लैंड के सबसे बड़े विशेषज्ञ डॉ॰ स्कॉट को दिया था और उनको कहा था की लंदन रॉयल सोसाइटी की तरफ से आप इसकी जांच कराइए।”
जेम्स फ़्रेंकलिन बताता है कि, “डॉ॰ स्कॉट ने उस स्टील की जांच कराने के बाद कहा की ये भारत का स्टील इतना अच्छा है की सर्जरी के लिए बनाए जाने वाले सारे उपकरण इससे बनाए जा सकते हैं, जो दुनिया में किसी देश के पास उपलब्ध नहीं हैं।”
अंत में फ़्रेंकलिन कहता हैं कि, मुझे ऐसा लगता है की भारत का ये स्टील हम पानी में भी डालकर रखे तो इसमे कभी जंग नही लगेगा क्योंकि इसकी क्वालिटी इतनी अच्छी है। ज्यादातर अंग्रेज साजिशकर्ताओं व भारत के वामपंथी इतिहासकारों ने भारत से संबंधित इन तथ्यों को जमकर गायब करने का प्रयत्न किया लेकिन जब हम भारत के संग्रहालयों की यात्रा करते हैं व कुछ प्रमाणिक इतिहासकारों को पढ़ते हैं तो तस्वीर अपने आप साफ़ हो जाती है कि प्राचीन भारत में किस कदर हर कला की तरह इस्पात कला भी महानतम थी।

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