Saturday 5 November 2016


सती अनसूया
भारतवर्ष की सती-साध्वी नारियों में अनसूया जी का स्थान बहुत ऊंचा है। इनका जन्म अत्यन्त उच्च कुल में हुआ था। ब्रह्माजी के मानस पुत्र परम तपस्वी महर्षि अत्रि को इन्होंने पति के रूप में प्राप्त किया था। अपनी सतत सेवा तथा प्रेम से इन्होंने महर्षि अत्रि के हृदय को जीत लिया था।
भगवान को अपने भक्तों का यश बढ़ाना होता है। तो वे नाना प्रकार की लीलाएं करते हैं। श्री लक्ष्मीजी, श्री सतीजी और श्रीसरस्वती जी को अपने पातिव्रत्य का बड़ा अभिमान था। तीनों देवियों के अंहकार को नष्ट करने के लिए भगवान ने नारद जी के मन में प्रेरणा की। फलत: वे श्री लक्ष्मी जी के पास पहुंचे। लक्ष्मी जी ने कहा- ‘आइये, नारद जी ! आप तो बहुत दिनों बाद आये। कहिये, क्या हाल है ?
नारद जी बोले- ‘माता जी ! क्या बताऊं, कुछ बताते नहीं बनता। अब की बार मैं घूमता हुआ चित्रकूट की ओर चला गया। वहां मैं महर्षि अत्रि के आश्रम पर पहुँचा। माता जी! मैं तो महर्षि की पत्नी अनसूया जी का दर्शन करके कृतार्थ हो गया। तीनों लोकों में उनके समान पतिव्रता और कोई नहीं है।‘ लक्ष्मी जी को यह बात बहुत बुरी लगी। उन्होंने पूछा- नारद! क्या वह मुझसे भी बढ़कर पतिव्रता है?’ नारद जी ने कहा –‘ माता जी! आप ही नहीं, तीनों लोकों में कोई भी स्त्री सती अनसूया की तुलना में किसी भी गिनती में नहीं है।‘ इसी प्रकार देवर्षि नारद ने सती और सरस्वती के पास जाकर उनके मन में भी सती अनसूया के प्रति ईर्ष्या की अग्नि जला दी। अन्त में तीनों देवियों से त्रिदेवों से हठ करके उन्हें सती अनसूया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिए बाध्य कर दिया।
ब्रहमा, विष्णु और महेश महर्षि अत्रि के आश्रम पर पहुंचे। तीनों देव मुनि वेष में थे। उस समय महर्षि अत्रि अपने आश्रम पर नहीं थे। अतिथि के रूप में आये हुए त्रिदेवों का सती अनसूया ने स्वागत-सत्कार करना चाहा, किंतु त्रिदेवों ने उसे अस्वीकार कर दिया।
सती अनसूया ने उनसे पूछा-‘मुनियों! मुझसे कौन सा अपराध हो गया, जो आप लोग मेरे द्वारा की हुई पूजा को ग्रहण नहीं कर रहें हैं?’ मुनियों ने कहा- देवि! यदि आप बिना वस्त्र के हमारा आतिथ्य करें तो हम आपके यहाँ भिक्षा ग्रहण करेंगें। यह सुनकर सती अनसूया सोच में पड़ गयी। उन्होने ध्यान लगाकर देखा तो सारा रहस्य उनकी समझ में आ गया। वे बोलीं- ‘मैं आप लोगों का विवस्त्र होकर आतिथ्य करूंगी। यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूँ और मैनें कभी भी काम भाव से किसी पर-पुरूष का चिन्तन नहीं किया हो तो आप तीनों छ:-छ: माह के बच्चे बन जायें।
पतिव्रता का इतना कहना था कि त्रिदेव छ:-छ: माह के बच्चे बन गये। माता ने विवस्त्र होकर उन्हें अपना स्तनपान कराया और उन्हें पालने में खेलने के लिए डाल दिया। इस प्रकार त्रिदेव माता अनसूया के वात्सल्य प्रेम के बंदी बन गये। इधर जब तीनों देवियों ने देखा कि हमारे पति तो आये ही नहीं तो वे चिन्तित हो गयीं। आखिर तीनों अपने पतियों का पता लगाने के लिये चित्रकूट गयीं। संयोग से वहीं नारद जी से उनकी मुलाकात हो गयी। त्रिदेवियों ने उनसे अपने पतियों का पता पूछा। नारद ने कहा कि वे लोग तो आश्रम में बालक बनकर खेल रहे हैं। त्रिदेवियों ने अनसूया जी से आश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा मांगी। अनसूया जी ने उनसे उनका परिचय पूछा। त्रिदेवियों ने कहा- ‘माता जी! हम तो आपकी बहुएं हैं। आप हमें क्षमा कर दें और हमारे पतियों को लौटा दें।‘ अनसूया जी का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने बच्चों पर जल छिड़क कर उन्हें उनका पूर्व रूप प्रदान किया और अन्तत: उन त्रिदेवों की पूजा- स्तुति की। त्रिदेवों ने प्रसन्न होकर अपने-अपने अंशों से अनसूया के यहां पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया।

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