Friday 21 October 2016

आत्मा का प्रवेश पंद्रह सप्ताह बाद होता है। इससे पूर्व उसके प्रवेश हेतु प्रारंभिक संरचना बनती है जो पंचभूतादि चौबीस तत्व और प्राण अपान व्यान समान उदान नाग कृकल कूर्म देवदत्त धनंजय आदि के द्वारा होता है। कुछ ऐसा समझिये । आत्मा मेन बिजली है, और प्राणशक्ति इन्वेटर। अधिक जानकारी के लिये मेरे श्रीमद्भागवत के प्रवचनों में सांख्ययोग और पुरंजन उपाख्यान का प्रसंग सुनिए। दरअसल इस सृष्टि की रचना परमात्मा ने नहीं की है। मतलब अकेले नहीं की है। मतलब कि परमात्मा के अलावा किसी का अस्तित्व नहीं है, पर फिर भी परमात्मा ने अकेले इस संसार की रचना नहीं की है। परमात्मा निर्गुण हैं। और संसार त्रिगुणमय (सत रज तम) माया त्रिगुणमयी है, और परमात्मा निर्गुण। पर माया और परमात्मा अलग नहीं है, फिर भी अलग हैं। आप और आपकी शक्ति अलग होते हुए भी अलग नहीं हैं। विचार करके देखिए। तो “संभवाम्यात्ममा यया” अर्थात मैं अपनी माया से स्वयं ही उत्पन्न होता हूँ। संसार में चेतना की ऊर्जा परमात्मा का निर्गुण रूप है और जड़ या अर्ध जड़ परमात्मा का मायामय त्रिगुण रूप है। अब पूर्ण जड़ में पंचमहाभूत, इनकी तन्मात्रा, दस इंद्रियाँ आ गयीं। अर्ध जड़ (या अर्ध चेतन) में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि आ गये। और पूर्ण चेतन में आत्मतत्व आ गया। जैसा कि कहा मैंने, आत्मा मुख्य ऊर्जा है, और ये सब वैकल्पिक ऊर्जा। तो यदि आत्मा के निकलने से मृत्यु हो जाती, तो ऋषि मुनि साधक आदि परकाया प्रवेश न कर पाते, समाधि की अवस्था में अपनी आत्मा को शरीर से अलग करके कई वर्ष तक दिव्य लोकों में न घूम पाते। क्योंकि ऊर्जा के अभाव में शरीर तुरंत विकृत होने लगता और नष्ट हो जाता जिससे उस आत्मा की शरीर में वापसी असंभव हो जाती। इस अवस्था में योगिजन अपनी वैकल्पिक ऊर्जा, प्राणशक्ति को यहीं छोड देते हैं, ताकि शरीर आंतरिक रूप से जीवित रहे, और विकृत न हो। इतना ही नहीं, वे दूर रहकर इस वैकल्पिक ऊर्जा से अपने शरीर को मॉनिटर भी कर सकते हैं एवं उससे रिमोट की तरह तरंगों से भौतिक दिमाग को संदेश देकर काम भी करा सकते हैं।जैसे रोबोट की तरह। अब यदि योगिजन प्राणशक्ति को हमेशा के लिये शरीर में छोड दें,तो उनका पुनर्जन्म नहीं होगा, क्योंकि आत्मा को नये शरीर में नये सिरे से डालने के लिये जो मूलभूत भूमिका बनानी है वह वैकल्पिक ऊर्जा अनुपलब्ध है। अतः कभी कभी प्रकृति कर्मफल के कारण इस वैकल्पिक में कुछ कमी कर देती है तो लोग अंधे बहरे अपाहिज आदि जन्म लेते हैं। यह ऊर्जा उनके कर्मफल के भोग लेने पर वापस कर दी जाती है। योगिजन में इस ऊर्जा का नियंत्रण स्वयं के हाथ में एवं साधारण प्राणियों में प्रकृति के हाथ में होता है। जो खुद को शरीर मानता है वह प्रकृति के द्वारा नियंत्रित होता है तथा आत्मज्ञानी योगिजन अपना नियंत्रण खुद करते हैं। अतः पुनर्जन्म (चाहे धरती पर, चाहे देवलोक, ब्रह्मलोक आदि में) की इच्छा वाले योगिजन प्राणशक्ति और आत्मशक्ति दोनों को लेकर निकलते हैं ताकि मृत्यु की औपचारिकता पूरी हो सके। वहीं पुनः इसी शरीर में लौटने या फिर परमात्मा में समाहित होने की इच्छा रखने वाले लोग सिर्फ आत्मशक्ति को लेकर निकलते हैं। पुनर्जन्म के समय यही प्राणशक्ति जिस शुक्राणु में प्रवेश करती है, वह जंग जीत कर अंडाणु से योजित हो पंद्रह सप्ताह तक आत्मशक्ति के स्थिर होने लायक मूलभूत संरचना बनाती है । इसके बाद उसमें सुसुप्त आत्मशक्ति आती है जो पूर्ण रूप से सातवें महीने में जागृत होती है। लेखक :- श्रीभागवतानंद गुरु (Shri Bhagavatananda Guru) 

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