Wednesday 5 October 2016



"आर्थिक आधार पर जीवन स्तर की चिंता बहोत हुई, अब समय आ गया है जब सामाजिक प्रयास द्वारा व्यवहारिकता में जीवन को नैतिकता के आधार पर अपने श्रेष्ठतम स्तर का बोध कराया जाए; यही इस वर्तमान की उपलब्धि भी होगी ;
सत्य की मौखिक व्याख्या में संशय स्वाभाविक है और इसीलिए, यथार्थ की अनुभूति द्वारा ही सत्य का सत्यापन संभव है ; पर ऐसे किसी भी प्रयास के लिए विचारधारा का व्यावहारिक प्रयोग आवश्यक होगा , क्या आज हम उसके लिए तैयार हैं ?
एक आत्म निर्भर, आत्मविश्वासी और धर्मनिष्ट समाज ही एक राष्ट्र के रूप में अपने परम वैभव को प्राप्त कर सकता है जो केवल आर्थिक प्रगति से प्राप्त कर पाना संभव नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि नैतिकता के आभाव में आर्थिक प्रगति ही समाज में भ्रस्टाचार का कारन बनेगा जिसे लोभ, व् लाभ की मानसिकता प्रेरित व् प्रायोजित करेगी।
आर्थिक दृष्टि से संपन्न समाज आवश्यक नहीं की आदर्श हो पर जीवन में आदर्श का व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत करता हर समाज निश्चित रूप से समृद्ध व् संपन्न होता है, ऐसे में , यह हमें तय करना है की हम अपने बेहतर भविष्य के लिए इस वर्तमान में महत्वपूर्ण व् निर्णायक किसे मानते हैं, आर्थिक लाभ या नैतिक समृद्धि !
किसी तालाब में मान लीजिये एक ऐसा कमल का फूल हो जो प्रतिदिन दुगना हो जाता है, ऐसे में, अगर आधे तालाब को कमल के फूल से भरने में अगर चौदह दिन लगते हैं तो पूरा तालाब कितने दिनों में भरेगा ?
पंद्रह दिनों में, क्योंकि, अगर चौदह दिनों में तालाब फूलों से आधा भर चूका है और चूँकि कमल के फूल हर दिन दुगुने हो जाते हैं तो स्वाभाविक सी बात है की अगले एक दिन में सारा तालाब कमल के फूल से भर जाना चाहिए;
उपर्युक्त उदाहरण के माध्यम से मैं केवल यह समझाना चाह रहा था की कई बार किसी अति विशाल कार्य और प्रक्रिया की जटिलता का उद्देश्य की प्राप्ति से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता क्योंकि प्रक्रिया की सम्पूर्णता विभिन्न चरणों द्वारा सिद्ध होती है और हर चरण में प्रयास के लिए संघर्ष का स्तर भी अलग होता है।
समाज में व्यक्ति निर्माण द्वारा राष्ट्र को उसके 'परम वैभव' तक पहुंचाने का जो प्रयास गत नब्बे वर्षों से चल रहा है, और आगे भी चलता रहेगा, उसे समय ने स्वतः ही अपनी परीक्षाओं के माध्यम से परिपक्वता प्रदान की और प्रक्रिया ने अपना चरण बदला जिस कारन संघ के प्रभाव व् प्रयास के स्तर का ही नहीं बल्कि सामाजिक दायित्व का भी विस्तार हुआ है, पर यह सब इतना स्वाभाविक और सरल रूप से हुआ की संभव में की व्यावहारिक जीवन की व्यस्तता का ध्यान इस पर न गया हो।
शाखाओं में व्यक्ति निर्माण ही नहीं बल्कि नीतियों द्वारा राष्ट्रहित और भविष्य को सुनिश्चित करना आज समाज की प्रभावशाली संगठित शक्ति होने के नाते संघ का कर्त्तव्य ही नहीं दायित्व भी है, इसका महत्व इस बात से और भी बढ़ जाता है जब समाज में संघ द्वारा एक राजनीतिक दल के रूप में वैकल्पिक राजनीति के जिस उदाहरण को जन्म देकर राष्ट्र के सम्मुख प्रस्तुत किया, उसे इस महान देश के जनतंत्र ने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता का दायित्व सौंपा है।
समाज में व्यक्ति और व्यवस्था एक दुसरे के पूरक हैं, जैसा व्यक्ति होगा वह अपने लिए वैसी ही व्यवस्था चुनेगा और जैसी व्यवस्था होगी वह समाज में वैसे ही व्यक्ति का निर्माण करेगा और इसलिए, व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया द्वारा राष्ट्र को उसके परम वैभव को पहुँचाने का जो प्रयास शुरू हुआ है उसे अपने अगले चरण में सामाजिक व्यवस्था और समाज में व्यक्ति के बीच का सेतु बनना पड़ेगा; यह तभी संभव है जब विचारधारा पर राजनीति करने के बजाये राजनीति विचारधारा का अनुसरण करे।
शाशन तंत्र को जिस समाज को सुरक्षा व् व्यवस्था प्रदान करने का दायित्व है, एक समर्पित सामाजिक संगठन उसी समाज का अभिभावक होता है और इसलिए, वह राजनीति से नहीं बल्कि राष्ट्रहित की भावना से शासित होता है ;
ऐसे में, जब समाज का नेतृत्व गलत हो जाए जिसके प्रभाव में समाज अपने विकास की समझ और प्रयास की सही दिशा खो दे तो समाज के संगठित शक्ति के पास राष्ट्र के नेतृत्व परिवर्तन का अधिकार सुरक्षित रहता है और होना भी चाहिए ;
तालाब कमल के फूल से आधा भर चूका है पर यह प्रक्रिया का एक स्तर है, इसे शीर्ष समझ लेना ही पतन का कारन बनेगा, रेखागणित के चित्रों में भी ऐसा ही होता है ;
जितना समय समाज में व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया में लगा शायद उतना समय यहाँ से राष्ट्र को उसके परम वैभव के उद्देश्य को प्राप्त करने में न लगे, बीएस हमें समय द्वारा प्रदत्त अवसरों की उपयोगिता सिद्ध करनी होगी; अगर आने वाले नौ वर्षों के लिए पिछले नब्बे वर्ष आधार बनें तो हो सकता है अगले नौ वर्षों में भारत अपने परम वैभव को पा ले, पर ये प्रक्रिया की समाप्ति नहीं बल्कि एक नए चरण की शुरुआत होगी;
हो क्या रहा है यह प्रत्यक्ष है, होना क्या चाहिए इसका निष्कर्ष व्यक्तिगत विवेक व् परिपक्वता निर्धारित करता है पर जब समाज में बहुमत अपने विवेक का स्तर व् परिपक्वता खो दे तब समाज में व्यवस्था और व्यक्ति के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए कुछ अप्रत्याशित प्रयोग आवश्यक होंगे…
अगर समस्याएं नयी है तो क्यों न समाधान के लिए समस्याओं के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलें , तभी शायद हम नयी संभावनाएं भी देख पाएंगे; क्यों न नेतृत्व के निर्णय का अधिकार बहुमत व् लोकप्रियता के आधार से लेकर नैतिकता को सौंप दिया जाए, आपकी क्या राय है !"

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