Friday 15 July 2016

कश्मीरी कवि सर्वानन्द कॉल के जीवन की ये कहानी
 हर हिन्दू की आँखें खोल देगी  ...
19 जनवरी, 1990 की अंधेरी रात घाटी में रहने वाले कश्मीरी पंडितों के लिए सबसे बुरे सपने के समान थी, जिसने उनकी ज़िन्दगी में हडकंप मच गया था। शांति से अपना जीवन बसर कर रहे कश्मीरी हिन्दुओं का जिस तरह कश्मीर से सफाया हुआ, वो बड़ा ही दर्दनाक था। ऐसा ही कुछ हुआ था, सर्वानन्द कौल प्रेमी (उम्र 64 साल) के साथ, जो कश्मीर के जाने माने poet भी थे और ज्ञानी माने जाते थे। पेशे से स्कूल मास्टर थे और रिटायर हो गए थे।
बात उस समय की है जब घाटी में हिन्दुओं के कत्ल और इस्लामिक आतंक के वारदातें बढ़ने लगी थी। सर्वानन्द के रिश्तेदारों ने उन्हें घाटी से भाग जाने की सलाह दी। लेकिन प्रेमी जी तो “धर्म-निरपेक्ष” परम्पराओं मे यकीन रखने वाले थे। प्रेमी जी तो हर धर्म में विश्वास रखते थे, इसका प्रमाण उनके पूजा घर में कुरान की किताब के साथ अन्य धर्म ग्रंथों का होना था। वह हर धर्म को बराबर समझते थे और सबकी इज्ज़त करते थे। इसलिए वो अपना घर, अपनी जन्म भूमि को छोड़ कहीं नहीं गए। लेकिन सर्वानन्द कौल प्रेमी की ‘धर्म निरपेक्षता’ का ये भ्रम 29 अप्रैल, 1990 की उस शाम को टूट गया जब कुछ हथियारबंद इस्लामिक आतंकी उनके घर घुस आये और उन इस्लामिक आतंकियों ने घर के सभी सदस्यों को एक कमरे में इकठ्ठा कर दिया। आतंकियों ने एक सूटकेस में घर का सारा कीमती जेवर, नगदी, पश्मीना जैसी चीज़ों को भरने का हुक्म दिया। यहां तक कि, महिलाओं ने जो जेवर पहने थे वो भी इस्लामिक आतंकियों ने उनसे छीन लिए।
इस्लामिक आतंकियों ने उस भरे हुए सूटकेस को उठाया और सदमे से विचलित बुजुर्ग सर्वानन्द कौल को अपने साथ चलने को कहा। उनका कहना था कि वो सर्वानन्द कौल प्रेमी को थोड़ी देर में छोड़ देंगे। ये देख कर उनके बेटे वीरेंदर कॉल (उम्र 27 साल) को लगा कि, इतनी रात को उसके बूढ़े पिता कैसे वापस आयेंगे और उसने भी साथ जाने की विनती की। और फिर बाप-बेटा दोनों इस्लामिक आतंकियों के साथ चले गए। उसके बाद वो लौट कर तो नही .आये, मगर दो दिन बाद उनकी लाशें ज़रूर मिलीं। उनकी लास्शों की जो बदतर हालत इस्लामिक आतंकियों ने की थी, उसे देखकर एक बार तो हिटलर के नाज़ी भी शर्मा जायेंगे।

भौं के ठीक बीच में जहाँ सर्वानन्द तिलक लगाते थे, उस हिस्से को गर्म सलाख से जला दिया गया था। उनकी खाल खींच ली गई थी। पूरे शरीर को सिगरेट से दागा गया था। हाथ पांव और अन्य हड्डियाँ तोड़ दी गई थीं। बाप और बेटे दोनों की आँखें नोच ली गई थीं। उन्हें फांसी पर टांग कर मारा गया था और फिर तस्सली के लिए लाशों को गोलियों से दाग गिया गया था। ये कहानी सिर्फ सर्वानन्द कौल की नहीं है, ये उन तमाम कश्मीरी  हिन्दुओं की है जो सच में धर्म-निरपेक्षता में विश्वास रखते थे और उसी के लिए शहीद भी हो गए। लेकिन आजकल के फर्जी ‘Seculars’ इस बात को क्या समझेंगे। जो केवल बोलने और दिखाने के लिए ‘‘धर्म निरपेक्षता’ का राग अलापते हैं।

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