Sunday 15 November 2015

 श्रमरहित पराश्रित जीवन विकास के द्वार बंद कर देता है।
हर्षि वेदव्यास ने एक कीड़े को तेजी से भागते हुए देखा। उन्होंने उससे पूछा, 'हे क्षुद्र जंतु, तुम इतनी तेजी से कहां जा रहे हो?' उनके प्रश्न ने कीड़े को चोट पहुंचाई और वह बोला, 'हे महर्षि, आप तो इतने ज्ञानी हैं। यहां क्षुद्र कौन है और महान कौन? क्या इस प्रश्न और उसके उत्तर की सही-सही परिभाषा संभव है?' कीड़े की बात ने महर्षि को निरुत्तर कर दिया।
फिर भी उन्होंने उससे पूछा, 'अच्छा यह बताओ कि तुम इतनी तेजी से कहां जा रहे हो?' कीड़े ने कहा, 'मैं तो अपनी जान बचाने के लिए भाग रहा हूं। देख नहीं रहे, पीछे से कितनी तेजी से बैलगाड़ी चली आ रही है।' कीड़े के उत्तर ने महर्षि को चौंकाया। वे बोले, 'तुम तो इस कीट योनि में पड़े हो। यदि मर गए तो तुम्हें दूसरा और बेहतर शरीर मिलेगा।'
इस पर कीड़ा बोला, 'महर्षि, मैं तो इस कीट योनि में रहकर कीड़े का आचरण कर रहा हूं, परंतु ऐसे प्राणी असंख्य हैं, जिन्हें विधाता ने शरीर तो मनुष्य का दिया है, पर वे मुझसे भी गया-गुजरा आचरण कर रहे हैं। मैं तो अधिक ज्ञान नहीं पा सकता, पर मानव तो श्रेष्ठ शरीरधारी है, उनमें से ज्यादातर ज्ञान से विमुख होकर कीड़ों की तरह आचरण कर रहे हैं।' कीड़े की बातों में महर्षि को सत्यता नजर आई। वे सोचने लगे कि वाकई जो मानव जीवन पाकर भी देहासक्ति और अहंकार से बंधा है, जो ज्ञान पाने की क्षमता पाकर भी ज्ञान से विमुख है, वह कीड़े से भी बदतर है।
महर्षि ने कीड़े से कहा, 'नन्हें जीव, चलो हम तुम्हारी सहायता कर देते हैं। तुम्हें उस पीछे आने वाली बैलगाड़ी से दूर पहुंचा देता हूं।' कीड़ा बोला: 'किंतु मुनिवर श्रमरहित पराश्रित जीवन विकास के द्वार बंद कर देता है।' कीड़े के कथन ने महर्षि को ज्ञान का नया संदेश दिया।

No comments:

Post a Comment