Sunday 6 September 2015

कर्मभोग चक्र....


सच्ची सेवा..है दया ,करुणा..दुसरे के दुःख से दुखी तथा सुख से सुखी होना..यही साधना है.
.कोमल ह्रदय में प्रभु का निवास है....
श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी के प्रवचन का सार...
क्या आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, पाप-पुण्य की बातें बिल्कुल निरर्थक हैं और मनुष्य को एक मात्र स्वार्थ-सिद्धि पर ही दृष्टि रखनी चाहिए~
. दुनिया में अनेक बार ऐसी घटनाएँ दिखलाई पड़ती हैं, जो ईश्वरीय न्याय के बिल्कुल विपरीत जान पड़ती हैं। एक सज्जन व्यक्ति दरिद्रता का जीवन बिता रहा है और दूसरा प्रसिद्ध कुकर्मी मौज कर रहा है। परिश्रमी सीधा-सादा किसान, गरीब मजदूर ठोकरें खाता फिरता है और दिन भर गद्दी पर लेटे-लेटे दूसरों की सम्पत्ति हड़पने की तरकीब सोचने वाले तिकडमी व्यक्ति स्वामी बने रौब दिखा रहे हैं। इस तरह की भावना के कारण मनुष्य और भी अनेक प्रकार के भ्रमों में पड़ कर अनुचित कार्य करने लग जाता है।
इस लिए हमको कर्म रहस्य का ज्ञान प्राप्त करके जानना-समझना चाहिए कि किस प्रकार हमारे शुभाशुभ कर्मों का प्रभाव हमारी अन्तरात्मा/ अन्तर्मन पर पड़ता रहता है और वह कभी तो तुरन्त एवं कभी बहुत समय बाद फलरूप में प्रकट होता है।
 दुःख/ ताप तीन प्रकार के होते हैं- दैविक, दैहिक और भौतिक। दैविक दुःख वे कहे जाते हैं जो मन को होते हैं जैसे- चिन्ता, आशंका, क्रोध, अपमान, शत्रुता, भय और शोक आदि। दैहिक दुःख वे होते हैं जो शरीर को होते हैं जैसे- रोग, चोट, आघात, विष आदि के प्रभाव से होने वाले कष्ट । भौतिक दुःख वे हैं जो अचानक अदृश्य प्रकार से आते हैं जिनके बारे में कल के लेख में विस्तार से चर्चा की जा चुकी है।
 दैविक दुःख/ताप मन के होते हैं जिनके उत्पन्न होने का कारण वे मानसिक पाप हैं जो स्वेच्छापूर्वक तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर किए जाते हैं। जैसे- ईर्ष्या, कृतघ्नता, छल-कपट, दम्भ, घमंड, क्रूरता, स्वार्थपरता आदि । इन कुविचारों के कारण जो वातावरण मष्तिष्क में घुटता रहता है उससे अन्तःचेतना पर उसी प्रकार का दुष्प्रभाव पड़ता है।
. आत्मा स्वभावतः पवित्र होने के कारण- इन तीव्र इच्छा से, जानबूझ कर किए गए पापों को निकाल बाहर करने के लिए आतुर/ व्याकुल हो उठती है। बाहरी मन स्थूल बुद्धि को उस अदृश्य प्रक्रिया का कुछ भी पता नहीं लगता, पर अन्तर्मन चुपके-चुपके ऐसे अवसर एकत्रित करने में लगा रहता है जिससे वह भार हट जाए।
. अपमान, असफलता, विछोह, शोक,दुख आदि होने के अवसरों को वह कहीं से एक न एक दिन किसी प्रकार खींच ही लाता है ताकि उन दुर्भावनाओं का,पाप संस्कारों का इन अप्रिय परिस्थितियों में समाधान हो जाय।
. शरीर द्वारा किये हुये चोरी, डकैती, व्यभिचार, अपहरण, हिंसा आदि में मन ही प्रमुख है। हत्या करने में हाथ का कोई स्वार्थ नहीं है, वरन् मन के आदेश की पूर्ति है। इसीलिए इस प्रकार के कार्य जिनके करते समय इन्द्रियों को सुख न पहुँचता हो, मानसिक पाप कहलाते हैं।
 ऐसे पापों का फल मानसिक संताप/दुख होता है। स्त्री- पुत्र आदि परिजनों की मृत्यु, धन-नाश, लोकनिन्दा, अपमान, पराजय, असफलता, दरिद्रता आदि मानसिक दुख हैं जिनसे मनुष्य में वैराग्य भाव उत्पन्न होते हैं और भविष्य में अधर्म न करने एवं धर्म में प्रवृत्त रहने की प्रवृति बढ़ती है।
धन नाश होने पर मनुष्य भगवान को पुकारता है। पराजित और असफल व्यक्ति का घमण्ड चूर हो जाता है। मानसिक दुःखों का एकमात्र उद्देश्य मन में जमे हुए ईर्ष्या, कृतघ्नता, स्वार्थपरता, क्रूरता, छल-कपट, अहंकार आदि की सफाई करना होता है।
. दुःख इसलिए आते हैं कि आत्मा के ऊपर जमा हुआ प्रारब्ध कर्मों का पाप संस्कार निकल जाए। पीड़ा और वेदना की धारा उन पूर्व कृत प्रारब्ध कर्मों के निकृष्ट संस्कारों को धोने के लिए प्रकट होती है।..शांति कुञ्ज...
🌾प्रश्न- सुख-दुःख क्या है? तथा इनकी निवृति कैसे हो??
🌾उत्तर- जगत मे सुख दुःख है ही नहीँ।हमें जो परिस्थितिया प्राप्त होती है,यदि वो मन के अनुकूल हो तो सुख हो गया यदि परिस्थितिया मन के प्रतिकूल हो गई तो दुःख हो गया।सुख दुःख वस्तुतः है नही,केवल हमारे बनाये हुए हैं।मन का होने तथा मन के विपरीत न होने से सुख तथा मन का न होने अथवा मन के विपरीत होने से दुःख होता है।
इसकी निवृति का सीधा तरीका है,जो हो जाये उसमे प्रसन्न रहो क्योकि जो होना है वह तो होकर रहेगा ही।उसको रोकना हमारे बस मे है क्या???
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