Monday 10 August 2015

आत्मानुभूति कैसे करें ??
गतांक से आगे ....
कोई भी मनुष्य बिना कर्म किये नही रह सकता ।जितना भी कर्म करता है, उस कर्म का परिणाम ( फल ) उसे अवश्य मिलता है । यह अलग बात है कि वह फल कब मिलेगा। यदि वर्तमान में जिस किसी भी कर्म का फल मनुष्य को मिलता है , उस फल से प्रायः मनुष्य सन्तुष्ट नही हो पाता है। हताश- निराश होता है ,खिन्न रहता है असन्तोष चेहरे से स्पष्ट दिखाई देता है । 
मनुष्य अपने कर्मो के फलो से कभी प्रसन्न नही हो पाता है ऐसा इसलिए होता है कि वह व्यक्ति अपनी इच्छा , ज्ञान , बल आदि योग्यताओं के आधार पर ही कर्म करता है अथार्त् जितनी इच्छा से , जिस प्रकार के ज्ञान से , जितनी शक्ति आदि से पुरुषार्थ करता है , उसका फल भी उसी के अनुरूप दिया जाता है । फिर भी मनुष्य असन्तुष्ट रहता है , तो उस मनुष्य की अज्ञानता ही कहलायेगी । फिर भी मनुष्य को जितना फल प्राप्त होता है , उसी में सन्तुष्ट हो कर और अधिक फल पाने के लिए और अधिक इच्छा , ज्ञान , बल आदि को उतपन्न करे, जिससे अधिक फल पा सके । मनुष्य यह जान नही पा रहा है कि सन्तोष करने से जितना सुख मिलता है उतना सुख संसार की किसी भी वस्तु से नही मिल सकता ।        महर्षि पतञ्जलि ने कहा है कि ' सन्तोषादनुत्तमसुखलाभः ' अथार्त् संसार में सांसारिक पदार्थो से अधिक सुख सन्तोष से मिलता है । इस कारण योग्य साधक पूर्ण सन्तोष का पालन करता है। तो उसका मन विचलित नही होता है और मन में व्यर्थ विचार उतपन्न नही होते हैं। जिससे मन सरलता से एकाग्र हो जाता है और एकाग्र मन आत्मानुभूति कराने में समर्थ हो जाता है।
संसार में प्रत्येक मनुष्य तप करता है , परन्तु आत्मानुभूति के लिए उतना तप न करने के कारण योग साधक आत्मानुभूति नही कर पा रहा है। महर्षि वेद व्यास के अनुसार बिना विशेष तप के कोई भी साधक आत्मानुभूति नही कर सकता । शारीरिक व वाचनिक तप तो बहुत सारे लोग करते हैं , परन्तु मानसिक तप कोई - कोई कर पाता है । मानसिक आवेगों को रोके रखना प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नही है। क्योंकि शारीरिक व वाचनिक तप अन्यो को दिखाई देता है , इसलिए व्यक्ति दिखावे के लिए बहुत कुछ तप करता है , परन्तु मानसिक तप स्वयं व परमेश्वर के अतिरिक्त किसी को दिखाई नही देता है। इसलिए व्यक्ति मानसिक तप नही कर पाता हैं।
     शारीरिक और वाचनिक तप करके व्यक्ति उत्कृष्ट तपस्वी तो बन जाता है पर मानसिक रूप से उत्कृष्ट भोगी बना रहता है जब तक मानसिक भोग को दूर नही किया जाता तब तक मन को एकाग्र नही किया जा सकता । इसलिए साधक को विशेष रूप से मानसिक तप को अत्यधिक करके मन को शांत करना चाहिए । जिससे मन एकाग्र हो कर आत्मानुभूति करा सके । क्योंकि तप से ही योग की सिद्धि होती है भोग से कदापि नही।
क्रमशः ....

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