Sunday 12 July 2015

किशोरावस्था से ही राष्ट्राभिमानी वृत्ति के नेताजी

 सुभाषचंद्र बोस !

१. भविष्य में महान कार्य करने की दृष्टि से कष्टमय जीवनयापन का 

अभ्यास करने वाले सुभाषचंद्र बोस !

एक बार शरद ऋतु में मूसलाधार वर्षा हो रही थी । आधी रात में मां प्रभावतीदेवी की नींद खुली, तो उन्हें
 सुभाष की चिंता होने लगी । उन्होंने सुभाष के कक्ष में जाकर देखा, तो किशोर सुभाष पलंग छोड कर भूमि 
पर दरी बिछा कर सो रहा था । यह देख कर उन्हें बडा दुःख हुआ । उन्होंने सुभाष को जगाया और उन दोनो 
में आगे का संभाषण हुआ ।
मां : बेटा, तुम भूमि पर क्यों सो रहे हो ? इससे तो ठंड लगकर बीमार पडजाओगे ।
सुभाष : मां, मैं कष्ट सहने का अभ्यास कर रहा हूं । मुझे बडा होकर बडा कार्य करना है ।
मां :बेटा, बडा काम करने के लिए भूमि पर सोना एवं कष्ट सहना आवश्यक है क्या ?
सुभाष :हां मां, सुख-सुविधा में जीने वाले बडे काम नहीं कर सकते । (तुमतो जानती हो) कि हमारे ऋषि-मुनि
 वनों में आश्रम बनाकर रहते थे तथा भूमि पर सोते थे । इसलिए वे महान ग्रंथों की रचना कर सके ।
 राम एवं कृष्ण के विषय में आपने बताया ही है कि वे विश्वामित्र एवं सांदीपनी ऋषियों के आश्रमों में कठोरता से 
जीवन-यापन किया करते थे ।

२. भारत को दास्यता से मुक्त करने हेतु प्राणों को न्योछावर करने की 

सिध्दता रखने वाला बालक सुभाष (सुभाषचंद्र बोस) !

सुभाष बाबू के जीवन पर विद्यालय के प्रधानाचार्य श्री बेनीप्रसाद माधव का बडा प्रभाव पडा । वे ११ वर्ष की अवस्था 
में विद्यालय के अत्यंत उदार तथा सच्चे देशभक्त गुरु श्री बेनीप्रसाद के संपर्क में आए । स्वयं बेनीप्रसाद माधव 
बालक सुभाष की कुशाग्र बुदि्ध तथा परिश्रमी वृत्ति से बहुत प्रभावित थे । उन्होंने सुभाषसे कहा—‘तुम जब
 कुछ पूछना चाहो, तो मेरे पास किसी भी समय निःसंकोच आ सकते हो ।’ सुभाष तो यही चाहते थे; क्योंकि 
उनके मन में समाज की दुरवस्था के विषय में अनेक प्रश्न उठते थे । साथियों से प्रश्न करने पर उचित समाधान
 नहीं हो पाता था । एक दिन सुभाष जी और उनके प्रधानाचार्य जी आगे का संवाद हुआ ।
सुभाष : ‘बाबूजी, हम अंगेंरजों के दास क्यों है ? क्या हम सदा से इनके दास रहे हैं और इसी प्रकार सदा के लिए
 दास बने रहेंगे ?
बाबूजी : ‘बेटा, भारत सदा से ऐसा नहीं है । हम तो संसार में सबसे पराक्रमी और महान थे । हमारे देश में इतना
धन होता था कि दूसरे देशों के लोग इसे सोने की चिडिया कहते थे । रोम,चीन,जापान आदि देशों के लोग यहां 
ज्ञान प्राप्त करने आया करते थे । हमारा भारत देश प्राचीन काल में विश्वगुरु कहलाता था।
सुभाष : फिर हमारा देश पराधीन क्यों हुआ ?
बाबूजी : हमारी आपसी फूट के कारण । दुष्ट विदेशियों ने हमारी सरलता और फूट का लाभ उठा कर हम पर
अपना राज्य स्थापित कर लिया ।
सुभाष :बाबूजी मैं इन दासता की कडियों को काटकर फेक देना चाहता हूं ।
बाबूजी : विचार तो श्रेष्ठ है सुभाष, लेकिन अभी तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी है। पहले पढ-लिखकर बडे तथा योग्य 
बन जाओ, फिर यह प्रयास अवश्य करना ।
सुभाष : बाबूजी, मैं भारतमाता को पराधीनता से मुक्त कराने के लिए प्राणों की बाजी तक लगा सकता हूं । तबसे
 सुभाष अनेक रातें देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के उपाय सोचने में व्यतीत करने लगे । उन्होंने
 इतिहास तथा संस्कृत का अध्ययन किया तथा अनेक संस्कृत सुभाषित कंठस्थ किए । आगे, उनके गुरु, बाबूजी
 की प्रेरणा ने उन्हें बालक सुभाष से भारत का गौरव पुरुष-नेताजी सुभाष चंद्र बोसबना दिया ।
संदर्भ :’गीता स्वाध्याय’,जनवरी २०११

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