Sunday 19 April 2015

कश्मीर शरणार्थियों तथा विस्थापितों का अनजाना सच ...
आम भारतीयों के लिए यह चौंकाने वाली जानकारी हो सकती है कि जम्मू-कश्मीर का जम्मू क्षेत्र आज एशिया में विस्थापितों या कहें कि शरणार्थियों की सबसे घनी आबादी वाला इलाका है. मंदिरों और तीर्थस्थानों के लिए जाने जाने वाले जम्मू को भारत में शरणार्थियों की राजधानी का दर्जा भी दिया जा सकता है. जगह-जगह से विस्थापित करीब 17 लाख लोग यहां तरह-तरह के मुश्किल हालात में रहते हैं.पिछले दो दशक के दौरान जब-जब जम्मू-कश्मीर में शरणार्थियों का जीवन जी रहे लोगों का जिक्र हुआ तो सबसे पहले या केवल कश्मीरी पंडितों का नाम सामने आया. कश्मीर घाटी की तकरीबन तीन लाख लोगों की यह आबादी 1989-90 के दौरान आतंकवादियों के निशाने पर आ गई थी. अपनी जमीन-जायदाद और दूसरी विरासत गंवा चुके इस समुदाय का एक बड़ा हिस्सा जम्मू क्षेत्र में रहते हुए घाटी में वापस लौटने का इंतजार कर रहा है. कश्मीरी पंडित काफी पढ़ी-लिखी कौम है और यह आतंकवाद का शिकार भी हुई जिससे इसकी चर्चा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लगातार होती रही. इसी दौरान बाकी के तकरीबन 14 लाख लोगों की समस्याओं पर शेष भारत या कहीं और कोई गंभीर चर्चा नहीं सुनाई दी.इसके अलावा 1947-48, 1965 और 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध से विस्थापित हुए भारत के सीमांत क्षेत्र के लोग भी जम्मू के इलाके में ही हैं. बेशक भारत इन युद्धों में विजयी रहा लेकिन इन दो लाख लोगों को इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. कभी अपने-अपने इलाकों में समृद्ध किसान रहे हमारे देश के ये लोग उचित पुनर्वास के अभाव में मजदूरी करके या रिक्शा चलाकर अपना जीवनयापन कर रहे हैं.इन लाखों लोगों के साथ घट रही सबसे भयावह त्रासदी यह है कि जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में ही – जहां मानवाधिकारों को लेकर जबरदस्त हो-हल्ला होता रहता है – इनके मानवाधिकारों की कोई सुनवाई नहीं है. सरकार और राजनीतिक पार्टियों से लेकर आम लोगों तक कोई इनकी बातें या जायज मांगें सुनने-मानने को तैयार ही नहीं. हाल ही में उमर अब्दुल्ला सरकार में राहत और पुनर्वास मंत्री रमन भल्ला का बयान इन लोगों के खिलाफ सालों से चल रहे सरकारी रवैये को उजागर करता है. भल्ला ने हाल ही में जम्मू और कश्मीर विधानसभा के सदस्यों को आश्वस्त करते हुए कहा था, ‘सरकार ने पश्चिम पाकिस्तान से आए हुए शरणार्थियों को कोई सहायता नहीं दी है और इन लोगों को राज्य की नागरिकता नहीं दी जा सकती.’ इन शरणार्थियों में ज्यादातर हिंदू और सिख हैं. यानी जम्मू-कश्मीर की आबादी के हिसाब से अल्पसंख्यक. लेकिन राज्य में अल्पसंख्यक आयोग का न होना इनकी मुश्किलें और बढ़ा देता है. राज्य में एक मानवाधिकार आयोग जरूर है लेकिन जब तहलका ने आयोग के एक सदस्य अहमद कवूस से विस्थापितों की समस्या के बारे में जानना चाहा तो उनका जवाब था, ‘अभी तक हमारे पास इस मामले की शिकायत नहीं आई है. अगर शिकायत आएगी तो मामला देखा जाएगा.’जिस राज्य में 17 लाख शरणार्थी अनिश्चित भविष्य के साथ जी रहे हैं वे राज्य के लिए कितनी बड़ी चुनौती हैं यह बताने की जरूरत नहीं है. तो फिर क्या वजह है कि पिछले कई दशकों से बतौर शरणार्थी रह रहे इन लोगों के दुखों को राज्य सरकार समझने को तैयार ही नहीं?इससे मिलती-जुलती हालत उन 10 लाख शरणार्थियों की भी है जो आजादी के समय पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर हुए पाकिस्तानी सेना और कबाइलियों के हमलों से विस्थापित होकर जम्मू आ गए थे. ये लोग भी पिछले छह दशक से अपने पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं.स्टोरी से यह पता चलता है कि तरह-तरह की राजनीति और गड़बड़झालों में फंसे देश में पीछे छूट गए बेबस लोगों के लिए हमारे पास सहारे का ऐसा कोई हाथ नहीं, सद्भावना का ऐसा कोई सीमेंट नहीं जो उन्हें आगे खींचकर थोड़ी मानवीय परिस्थितियों में स्थापित कर सके.इन लोगों में एक बड़ा वर्ग (लगभग दो लाख लोग) बंटवारे के समय पश्चिम पाकिस्तान से आए उन हिंदुओं का है जिन्हें भौगोलिक दूरी के साथ-साथ सांस्कृतिक रूप से जम्मू अपने ज्यादा नजदीक लगा और वे यहीं आकर अस्थायी तौर पर बस गए. इन्हें उम्मीद थी कि भारत के दूसरे प्रदेशों में पहुंचे उन जैसे अन्य लोगों की तरह वे भी धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर की मुख्यधारा में शामिल हो जाएंगे. आज 65 साल हुए लेकिन समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की बात तो दूर वे यहां के निवासी तक नहीं बन पाए हैं. आज इन लोगों की तीसरी पीढ़ी मतदान करने से लेकर शिक्षा तक के बुनियादी अधिकारों से वंचित है.
कश्मीर पर 1947 में ही आजादी मिलने के कुछ दिन बाद ही हुए कबाईली लुटेरों तथा पाकिस्तानी फौजों के संयुक्त हमले के बाद 27 अक्तूबर को भारत की सेना ने आने के पश्चात वीरतापूर्ण संघर्ष कर कश्मीर घाटी में 8 नवम्बर तक उड़ी तक का क्षेत्र मुक्त करा लिया। 1 जनवरी 1948 को भारत पाकिस्तान के खिलाफ यू.एन.ओ. में गया, जनवरी 1949 में युध्दविराम घोषित हुआ। पर यह रहस्य है कि भारत की सेनायें चाहतीं भी थीं, व सक्षम भी थीं कि पूरे जम्मू-कश्मीर को मुक्त करा लेते, पर 13 महीने हाथ पर हाथ रख कर बैठने के बाद भी सेना को आज्ञा क्यों न मिली ? परिणामस्वरूप 85 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में रह गया। 50 हजार हिन्दू-सिख मारे गये, लाखों हिन्दू शरणार्थी हो गये।
यह दोहरा और देशघाती खेल नेहरू और काँग्रेस ने क्यों रचा…??
इसमें कौनसी धर्मनिरपेक्षता और अखंडता की रक्षा की देशद्रोही काँग्रेस नें..??
जम्मू-कश्मीर राज्य में लोकतांत्रिक सरकार के गठन के बाद से ही इस क्षेत्र के साथ भेदभाव किया जाता रहा है। इस समस्या के समाधान के लिए पश्चिम बंगाल के गोरखालैंड की तर्ज पर लद्दाख के दोनों जिलों के संचालन हेतु ‘स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद’ का गठन किया गया लेकिन फिर भी इस क्षेत्र के साथ भेदभाव कम नहीं हुआ है।
लद्दाख से भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस.) में अब तक 4 लोग चुने गए हैं। आश्चर्य की बात यह है कि इनमें से एक भी बौद्ध नहीं बल्कि सभी मुस्लिम थे।
वर्ष 1997-98 में के.ए.एस. और के.पी.एस. अधिकारियों की भर्ती के लिए राज्य लोक सेवा आयोग ने परीक्षा आयोजित की। इन परीक्षाओं में 1 ईसाई, 3 मुस्लिम तथा 23 बौद्धों ने लिखित परीक्षा उत्तीर्ण की 1 ईसाई और 3 मुस्लिम सेवार्थियों को नियुक्ति दे दी गयी जबकि 23 बौद्धों में से मात्र 1 को नियुक्ति दी गयी। इस एक उदाहरण से ही राज्य सरकार द्वारा लद्दाख के बौद्धों के साथ किये जाने वाले भेदभाव का अनुमान लगाया जा सकता है।
जम्मू-कश्मीर राज्य के सचिवालय के लिए कर्मचारियों की एक अलग श्रेणी है जिन्हें सचिवालय कॉडर का कर्मचारी कहा जाता है। वर्तमान में इनकी संख्या 3500 है। इनमें से एक भी बौद्ध नहीं है। यहां तक कि पिछले 52 वर्षों में सचिवालय के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों में एक भी बौद्ध का चयन नहीं हुआ है।
राज्य सरकार के कर्मचारियों की संख्या 1996 में 2.54 लाख थी जो वर्ष 2000 में बढ़कर 3.58 लाख हो गई। इनमें से 1.04 लाख कर्मचारियों की भर्ती फारूख अब्दुल्ला के मुख्यमंत्रित्वकाल में हुई। इनमें से 319 कर्मचारी यानी कुल भर्ती का 0.31 प्रतिशत लद्दाख से थे।
राज्य में सार्वजनिक क्षेत्रों में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या 21,286 है जिनमें राज्य परिवहन निगम में केवल तीन बौद्धों को ही नौकरी मिल सकी। राज्य के अन्य 8 सार्वजनिक उपक्रमों (PSUs) में एक भी बौद्ध को नौकरी नहीं मिली है।
1997 में 24 पटवारियों की भर्ती हुई जिसमें केवल एक बौद्ध और शेष सभी मुसलमान थे। इसी प्रकार 1998 में राज्य शिक्षा विभाग में चतुर्थ श्रेणी के 40 कर्मचारियों की भर्ती हुई जिनमे से एक को छोड़कर सभी मुस्लिम थे।
अन्याय की चरम स्थिति तब देखने को मिलती है जब बौद्धों को पार्थिव देह के अंतिम संस्कार के लिए भी मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अनुमति नहीं मिलती। इसके लिए शव को करगिल की बजाय बौद्ध बहुल क्षेत्रों में ले जाना पड़ता है।
जम्मू क्षेत्र के 26 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र में 2002 की गणनानुसार 30,59,986 मतदाता थे। आज भी 2/3 क्षेत्र पहाड़ी, दुष्कर, सड़क-संचार-संपर्क से कटा होने के पश्चात भी 37 विधानसभा क्षेत्र हैं व 2 लोक सभा क्षेत्र। जबकि कश्मीर घाटी में 15,953 वर्ग किमी. क्षेत्रफल, 29 लाख मतदाता, अधिकांश मैदानी क्षेत्र एवं पूरी तरह से एक-दूसरे से जुड़ा, पर विधानसभा में 46 प्रतिनिधि एवं तीन लोकसभा क्षेत्र हैं।
जम्मू एवं कश्मीर का तुलनात्मक अध्ययन
• प्रति विधानसभा मतदाता 62673 84,270
क्षेत्रफल प्रति सीट 346 वर्ग किमी. 710.6 वर्ग किमी
• प्रति लोकसभा सीट मतदाता 9.61 लाख 15.29 लाख
• जिले (10+10+2=22)
• क्षेत्रफल प्रति जिला 1594 वर्ग.किमी 2629 वर्ग किमी
• सड़क की लम्बाई (कुल 2006) 7129 किमी. 4571 किमी
• सरकारी कर्मचारी 4.0 लाख 1.25 लाख
• सचिवालय में कर्मचारी 1329 462
• केन्द्रीयसंस्थान(केन्द्रीयवि.वि.सहित) एन.आई.टी. कोई नहीं
• पर्यटन पर खर्च 85प्रतिशत 10 प्रतिशत
पर्यटक (गत वर्ष) 8लाख
(5लाख अमरनाथ यात्रियों सहित) 80 लाख
★ 2008 में राज्य को प्रति व्यक्ति केन्द्रीय सहायता 9754 रूपये थी जबकि बिहार जैसे बड़े राज्य को 876 रूपये प्रति व्यक्ति थी।
★ कश्मीर को इसमें से 90 प्रतिशत अनुदान होता है और 10 प्रतिशत वापिस करना होता है, जबकि शेष राज्यों को 70 प्रतिशत वापिस करना होता है।
★ जनसंख्या में धांधली- 2001 की जनगणना में कश्मीर घाटी की जनसंख्या 54,76,970 दिखाई गई, जबकि वोटर 29 लाख थे और जम्मू क्षेत्र की जनसंख्या 44,30,191 दिखाई गई जबकि वोटर 30.59 लाख हैं।
★ उच्च शिक्षा में धांधली- आतंकवाद के कारण कश्मीर घाटी की शिक्षा व्यवस्था चरमरा गई, पर प्रतियोगी परीक्षाओं में वहां के विद्यार्थियों का सफलता का प्रतिशत बढ़ता गया।
★ मेडिकल सीटों में दाखिला- एमबीबीएस दाखिलों में जम्मू का 1990 में 60 प्रतिशत हिस्सा था जो 1995 से 2010 के बीच घटकर औसत 17-21 प्रतिशत रह गया है। सामान्य श्रेणी में तो यह प्रतिशत 10 से भी कम है।
1989-1991 में आये कश्मीर के हिन्दू यह महसूस करते हैं कि हम देश, समाज, सरकार, राजनैतिक दल सभी के ऐजेंडे से आज बाहर हो गये हैं।
52 हजार पंजीकृत परिवारों की अनुमानित आबादी 4 लाख है।
एक के बाद एक आश्वासन, पैकेज – पर धरती पर वही ढाक के तीन पात।
20 वर्ष पश्चात् भी धार्मिक-सामाजिक संपत्तियों के संरक्षण का बिल विधानसभा में पारित नहीं हुआ, राजनैतिक तौर पर विधानसभा में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है।
1991 में 1 लाख से अधिक पंजीकृत मतदाता थे जो आज कम होकर 70 हजार रह गये हैं। विस्थापन के पश्चात उनके वोट बनाने और डालने की कोई उचित व्यवस्था न होने के कारण समाज की रूचि कम होती जा रही है।
आज भी समाज की एक ही इच्छा है कि घाटी में पुन: सुरक्षित, स्थायी, सम्मानपूर्वक रहने की व्यवस्था के साथ सभी की एक साथ वापसी हो।
जम्मू के आतंक पीड़ित क्षेत्रों के विस्थापित- कश्मीर घाटी के पश्चात जम्मू के डोडा, किश्तवाड़, रामबन, उधमपुर, रियासी, पुंछ, राजौरी, कठुआ जिलों के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में यह आतंकवाद आया, पर सरकार ने आज तक इन क्षेत्रों से आंतरिक विस्थापित लोगों की न तो गिनती ही की और न ही उनके लिये उचित व्यवस्था की। यह संख्या भी लगभग एक लाख है। आतंकवाद से प्रभावित लोगों की कुल संख्या तो लगभग 8 लाख है।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पश्चात भी सरकार इनकी उपेक्षा कर रही है। जबकि ये वे लोग हैं जिन्होंने आतंकवाद से लड़ते हुये बलिदान दिये, स्थायी रूप से विकलांग हो गये। गांव-घर-खेत छोड़े, पर न धर्म छोड़ा और न भारत माता की जय बोलना छोड़ा। आज इनके बच्चे बिक रहे हैं, घरों एवं ढाबों में मजदूरी कर रहे हैं।
★ 1947 में लगभग 50 हजार परिवार पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर से विस्थापित होकर भारतीय क्षेत्र स्थित जम्मू-कश्मीर में आये। आज उनकी जनसंख्या लगभग 12 लाख है जो पूरे देश में बिखरे हुए हैं। जम्मू क्षेत्र में इनकी संख्या लगभग 8 लाख है। सरकार ने इनका स्थायी पुनर्वास इसलिये नहीं किया कि पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर हमारे नक्शे में है, हमारा दावा कमजोर हो जायेगा, अगर हम उनको उनका पूरा मुआवजा दे देंगे। आज 66 वर्ष पश्चात भी उनके 56 कैंप हैं जिनमें आज भी वे अपने स्थायी पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं।
¨ जो मकान, जमीन उनको दी गई, उसका भी मालिकाना हक उनका नहीं है।
¨ 1947 में छूट गई संपत्तियों एवं विस्थापित आबादी का ठीक से पंजीकरण ही नहीं हुआ फिर मुआवजा बहुत दूर की बात है।
¨ विभाजन के बाद पाक अधिगृहीत कश्मीर से विस्थापित हुए हिन्दू, जो बाद में देश भर में फैल गये, उनके जम्मू-कश्मीर में स्थायी निवासी प्रमाण पत्र ही नहीं बनते।
¨ विधानसभा में पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के 24 क्षेत्र खाली रहते हैं। विधानसभा और विधान परिषद में इन विस्थापित होकर आये उस क्षेत्र के मूल निवासियों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिये जाने का प्रस्ताव अनेक बार आया है किन्तु इस पर सरकार खामोश है।
¨ इनके बच्चों के लिये छात्रवृत्ति, शिक्षा-नौकरी में आरक्षण आदि की व्यवस्था नहीं है।
★ पश्चिमी पाक के शरणार्थी- इनकी आबादी लगभग दो लाख है। ये 66 वर्ष पश्चात भी जम्मू-कश्मीर के स्थायी नागरिक नहीं हैं। नागरिकता के सभी मूल अधिकारों वोट, उच्च शिक्षा एवं व्यावसायिक शिक्षा में बच्चों को दाखिला, सरकारी नौकरी, संपत्ति खरीदने का अधिकार, छात्रवृति आदि से यह वंचित हैं।
★ छम्ब विस्थापित- 1947 तथा 1965 में युद्ध के समय इस क्षेत्र के लोग विस्थापित हुए। 1971 में इस क्षेत्र को शिमला समझौते में पाकिस्तान को देने के पश्चात स्थायी तौर पर विस्थापितों की यह संख्या भी लगभग एक लाख है। इनका पुनर्वास तो भारत सरकार की जिम्मेदारी थी, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय समझौते में हमने छम्ब की 18 हजार एकड़ भूमि पाकिस्तान को दे दी। भारत सरकार ने वादे के अनुसार न तो भूमि अथवा उसके बदले कीमत दी, घर-पशु आदि के लिये भी एक परिवार को केवल 8,500 रूपये दिये।
महत्वपूर्ण तथ्य व मुद्दा तो यह है कि गत 66 वर्षों से जम्मू विस्थापन की मार झेल रहा है। आज अकेले जम्मू क्षेत्र में लगभग 60 लाख जनसंख्या है जिसमें 42 लाख हिन्दू हैं। इनमें लगभग 15 लाख विस्थापित लोग हैं जो समान अधिकार एवं समान अवसर का आश्वासन देने वाले भारत के संविधान के लागू होने के 60 वर्ष पश्चात भी अपना अपराध पूछ रहे हैं। उनका प्रश्न है कि उन्हें और कितने दिन गुलामों एवं भिखारियों का जीवन जीना है जबकि कश्मीरियत के नाम पर सिर्फ कश्मीर घाटी मे इस्लामी उम्मा का तुष्टिकरण “कश्मीरियत के संरक्षण” के नाम पर किया जा रहा है अलगाववाद को सरकारी संरक्षण दे कर,मानो या ना मानो सच यही है।
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में कांग्रेस के पूर्वनिर्धारित कुकर्म जिन्हे कतई “देशहित” या भारत की अखंडता सहित देश के सम्मान को अक्षुण्ण रखने के कार्य नहीं कहा जा सकता -.
वर्ष 2005-06 में अपनी मुस्लिम वोट की राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय दबाव में मनमोहन सरकार ने पाकिस्तान से गुपचुप वार्ता प्रारंभ की। इसका खुलासा करते हुए पिछले दिनों लंदन में मुशर्रफ ने कहा कि ट्रेक-2 कूटनीति में हम एक समझौते पर पहुंच गये थे। वास्तव में परवेज कियानी- मुशर्रफ की जोड़ी एवं मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दोनों पक्ष एक निर्णायक समझौते पर पहुंच गये थे। परस्पर सहमति का आधार था-
1. नियंत्रण रेखा (एलओसी) को ही अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लेना।
2. बंधन एवं नियंत्रण मुक्त सीमा (Porous and Irrelevant borders )
3. विसैन्यीकरण (Demilitarization)
4. सांझा नियंत्रण (Joint Control)
5. सीमा के दोनों ओर के जम्मू-कश्मीर क्षेत्रों को अधिकतम स्वायत्तता (Autonomy or self-rule to both the regions of J&K)
इस सहमति को क्रियान्वित करते हुये, कुछ निर्णय दोनों देशों द्वारा लागू किये गये :-
1. पाकिस्तान ने उतरी क्षेत्रों (गिलगित-बाल्टिस्तान) का विलय पाकिस्तान में कर अपना प्रांत घोषित कर दिया। वहां चुनी हुई विधानसभा, पाकिस्तान द्वारा नियुक्त राज्यपाल आदि व्यवस्था लागू हो गई। पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर का यह कुल 65,000 वर्ग किमी. क्षेत्रफल है। भारत ने केवल प्रतीकात्मक विरोध किया और इन विषयों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाकर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोई कोशिश नहीं की।
2. भारत ने जम्मू-कश्मीर में 30 हजार सैन्य बल एवं 10 हजार अर्धसैनिक बलों की कटौती की ।
3. दोनों क्षेत्रों में परस्पर आवागमन के लिये पांच मार्ग प्रारंभ किये गये, जिन पर राज्य के नागरिकों के लिए वीजा आदि की व्यवस्था समाप्त कर दी गई।
4. कर मुक्त व्यापार दो स्थानों पर प्रारंभ किया गया।
इस तरह बहुत दिखावटी रूप से जम्मू-कश्मीर के इतिहास में 60 वर्षों में पहली बार प्रदेश के सभी राजनैतिक दलों और सामाजिक समूहों को साथ लेकर स्थायी समाधान का प्रयास किया गया और 25 मई 2005 को आयोजित दूसरी राउंड टेबल कांफ्रेंस में विभिन्न विषयों पर विचार करने के लिये पांच कार्य समूहों की घोषणा की गई।
इन कार्यसमूहों में तीनों क्षेत्रों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व था, हर समूह में सामाजिक नेतृत्व, भाजपा, पैंथर्स पार्टी, जम्मू स्टेट मोर्चा आदि के प्रतिनिधि तथा शरणार्थी नेता भी थे।
24 अप्रैल 2007 को दिल्ली में आयोजित तीसरे गोलमेज सम्मेलन में जब 4 कार्यसमूहों ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तो सभी जम्मू, लद्दाख के उपस्थित नेता व शरणार्थी नेता हैरान रह गये कि उनके सुझावों एवं मुद्दों पर कोई अनुशंसा नहीं की गई। उपस्थित कश्मीर के नेताओं ने तुरंत सभी अनुशंसाओं का समर्थन कर लागू करने की मांग की क्योंकि यह उनकी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुसार था।
कार्य समूहों की इन रिर्पोटों से यह स्पष्ट हो गया कि अलगाववादी, आतंकवादी समूहों और उनके आकाओं से जो समझौते पहले से हो चुके थे, उन्हीं को वैधानिकता की चादर ओढ़ाने के लिये यह सब नाटक किया गया था।
भाजपा, पैंथर्स, बसपा, लद्दाख यूटी फ्रंट, पनुन कश्मीर एवं अनेक सामाजिक नेताओं ने दो टूक कहा कि यह सारी घोषणायें उनको प्रसन्न करने के लिए हैं जो भारत राष्ट्र को खंडित एवं नष्ट करने में जुटे हुए हैं। यह भारत विरोधी, जम्मू-लद्दाख के देशभक्तों को कमजोर करने वाली, पीओके, पश्चिम पाक शरणार्थी विरोधी एवं कश्मीर के देशभक्त समाज की भावनाओं एवं आकांक्षाओं को चोट पहुंचाने वाली हैं ,बाद में सगीर अहमद के नेतृत्व वाले पांचवे समूह ने अचानक नवम्बर 2009 में अपनी रिपोर्ट दी तो यह और पक्का हो गया कि केन्द्र-राज्य के संबंध की पुनर्रचना का निर्णय पहले ही हो चुका था। रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले संबंधित सदस्यों को ही विश्वास में नहीं लिया गया।
19 जनवरी 1990 – ये वही काली तारीख है जब लाखों कश्मीरी हिंदुओं को अपनी धरती, अपना घर हमेशा के लिए छोड़ कर अपने ही देश में शरणार्थी होना पड़ा , वे आज भी शरणार्थी हैं , उन्हें वहाँ से भागने के लिए मजबूर करने वाले भी कहने को भारत के ही नागरिक थे, और आज भी हैं , उन कश्मीरी इस्लामिक आतंकवादियों को वोट डालने का अधिकार भी है, पर इन हिंदू शरणार्थियों को वो भी नहीं ,,1990 के आते आते फारूख अब्दुल्ला की सरकार आत्म-समर्पण कर चुकी थी | हिजबुल मुजाहिदीन ने 4 जनवरी 1990 को प्रेस नोट जारी किया जिसे कश्मीर के उर्दू समाचारपत्रों आफताब और अल सफा ने छापा , प्रेस नोट में हिंदुओं को कश्मीर छोड़ कर जाने का आदेश दिया गया था !
कश्मीरी हिंदुओं की खुले आम हत्याएँ शुरू हो गयी ,,कश्मीर की मस्जिदों के लाउडस्पीकर जो अब तक केवल अल्लाह-ओ-अकबर के स्वर छेड़ते थे, अब भारत की ही धरती पर हिंदुओं को चीख चीख कहने लगे कि कश्मीर छोड़ कर चले जाओ और अपनी बहू बेटियाँ हमारे लिए छोड़ जाओ , “कश्मीर में रहना है तो अल्लाह-अकबर कहना है”, “असि गाची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सन” (हमें पाकिस्तान चाहिए, हिंदू स्त्रियों के साथ, लेकिन पुरुष नहीं”), ये नारे मस्जिदों से लगाये जाने वाले कुछ नारों में से थे !!
दीवारों पर पोस्टर लगे हुए थे कि सभी कश्मीर में इस्लामी वेश भूषा पहनें, सिनेमा पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया , कश्मीरी हिंदुओं की दुकानें, मकान और व्यापारिक प्रतिष्ठान चिन्हित कर दिए गए , यहाँ तक कि लोगों की घड़ियों का समय भी भारतीय समय से बदल कर पाकिस्तानी समय पर करने को उन्हें विवश किया गया , 24 घंटे में कश्मीर छोड़ दो या फिर मारे जाओ – काफिरों को क़त्ल करो का सन्देश कश्मीर में गूँज रहा था , इस्लामिक दमन का एक वीभत्स चेहरा जिसे भारत सदियों तक झेलने के बाद भी मिल-जुल कर रहने के लिए भुला चुका था, वो एक बार फिर अपने सामने था ,शायद कांग्रेसी और तथाकथित सेकुलर सत्ता के नशे में आकर इस गलतफहमी में पड़े हुए हैं कि इन अवांछित जकातिये मुसलमानों को जितनी अधिक मुफतखोर सुविधायें दी जायेगी वह उतने ही देशभक्त बनेंगे जैसे कि Legionaries Patriotism जैसा वर्णसंकर देशभक्त पैसों के बल पर पैदा करने की असफल द्रोही कोशिश लेकिन हो तो इसका उलटा ही असर रहा है , मुसलमानों में अलगाववादिता की भावना जानबूझकर और उग्र हो रही है क्योंकि ये जकातिया मुसलमान अपना मूल स्वभाव नहीं बदल सकते इस गद्दार अलगाववादिता यानि भारत विरोध का बिस्मिल्लाह खैरूम्माकिरीन तो कश्मीर से हो ही चुका है जो अब कुछ सालों के भीतर सम्पूर्ण भारत में फ़ैल जायेगा इसका सबूत कश्मीर में लगाये जाते इन नारों से मिलता है , वहां ये जकातिये मुसलमान कहते हैं ,
1-“ज़ालिमो औ काफिरो कश्मीर हमारा छोड़ दो ”
(O! Merciless, O! Kafirs leave our Kashmir)
2-“कश्मीर में अगर रहना होगा , अल्लाहो अकबर कहना होगा ”
(Any one wanting to live in Kashmir will have to convert to Islam)
3-“ला शरकिया ला गरबिया इस्लामिया इस्लामिया ”
From East to West, there will be only Islam
4-“मुसलमानो जागो , काफिरो भागो ”
(O! Muslims, Arise, O! Kafirs, scoot)
5-“इस्लाम हमारा मकसद है ,कुरान हमारा दस्तूर है ,जिहाद हमारा रास्ता है ”
(Islam is our objective, Q’uran is our constitution, Jehad is our way of our life)
6-“कश्मीर बनेगा पाकिस्तान ”
(Kashmir will become Pakistan)
7-“पाकिस्तान से क्या रिश्ता , ला इलाहा इल्लल्लाह ”
(Islam defines our relationship with Pakistan)
8-“दिल में रखो अल्लाह का खौफ ,हाथ में रखो क्लाशनीकॉफ ”
(With fear of Allah ruling your hearts, wield a Kalashnikov)
9-“यहाँ क्या चलेगा , निजामे मुस्तफा ”
(We want to be ruled under Shari’ah)
10-” पीपुलस् लीग का क्या पैगाम ,फ़तेह , आजादी और इस्लाम ”
(“What is the message of People’s League? Victory, Freedom and Islam.”)
निष्कर्ष
इस प्रकार के कई धमकी वाले नारे कश्मीर के अलगाववादी संगठन ” हिज्बुल मुजाहिदीन -Hijb-ul-Mujahidin ” ने कश्मीर के उर्दू दैनिक समाचार”आफताब -Aftab ” में दिनांक 1 अप्रैल 1990 को प्रकाशित किये या करवाये थे जिनमें स्थानीय कश्मीर प्रशासन की सम्मिलित भूमिका ना रही हो विश्वास करना कठिन है, साथ ही यही नारे जगह जगह कश्मीर के सभी शहरों में दीवार पर पोस्टर के रूप में भी चिपका दिए गये थे और इसका उद्देश्य सिर्फ कश्मीर के हिन्दुओं और गैरमुसलमानों को भयभीत करके उनसे कश्मीर खाली कराने का ,उन्हे निर्वासित करने का था ! बड़े ही अफसोस की बात है कि एक तरफ जब कांग्रेस व सेक्यूलरों की सरकारें मुसलमानों के अवैध, असंवैधानिक तुष्टिकरण में ही लगी हुई थी उसी समय कश्मीर के मुसलमान अपनी वीभत्स कृतघ्नता प्रकट कर रहे थे और सभी सेक्यूलर वोट व दल यह नजारा तब से अब तक चुपचाप देख रहे हैं किसी ने इसका विरोध करने की हिम्मतें तब भी नहीं दिखाई और ना ही अब तक….क्योंकि सबके मुंह में सेक्यूलरिज्म का टुकडैल ताला लगा हुआ है
आज कश्मीर घाटी में हिंदू नहीं हैं , उनके शरणार्थी शिविर जम्मू और दिल्ली में आज भी हैं,22 साल से वे वहाँ जीने को विवश हैं | कश्मीरी पंडितों की संख्या 3 लाख से 7 लाख के बीच मानी जाती है, जो भागने पर विवश हुए ,, एक पूरी पीढ़ी बर्बाद हो गयी कभी धनवान रहे ये हिंदू आज सामान्य आवश्यकताओं के मोहताज हैं ,, उनके मन में आज भी उस दिन की प्रतीक्षा है जब वे अपनी धरती पर वापस जा पाएंगे , उन्हें भगाने वाले गिलानी जैसे लोग आज भी जब चाहे दिल्ली आके कश्मीर पर भाषण देकर जाते हैं और उनके साथ अरूंधती रॉय जैसे भारत के तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवी शान से बैठते हैं !
कश्यप ऋषि की धरती, भगवान शंकर की भूमि कश्मीर जहाँ कभी पांडवों की 28 पीढ़ियों ने राज्य किया था, वो कश्मीर जिसे आज भी भारत माँ का मुकुट कहा जाता है, वहाँ भारत के झंडा लेकर जाने पर सांसदों को पुलिस पकड़ लेती है और आम लोगों पर डंडे बरसाती है , 500 साल पहले तक भी यही कश्मीर अपनी शिक्षा के लिए जाना जाता था , औरंगजेब का बड़ा भाई दारा शिकोह कश्मीर विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ने गया था बाद में उसे औरंगजेब ने इस्लाम से निष्कासित करके भरे दरबार में उसे क़त्ल किया था !
भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग और प्रतिनिधि रहे कश्मीर को आज अपना कहने में भी सेना की सहायता लेनी पड़ती है । “हिंदू घटा तो भारत बंटा” के ‘तर्क’ की कोई काट उपलब्ध नहीं है , कश्मीर उसी का एक उदाहरण मात्र है ।
मुस्लिम वोटों की भूखी तथाकथित सेकुलर पार्टियों और हिंदू संगठनों को पानी पी पी कर कोसने वाले मिशनरी स्कूलों से निकले अंग्रेजीदां पत्रकारों और समाचार चैनलों को उनकी याद भी नहीं आती , गुजरात दंगों में मरे साढ़े सात सौ मुस्लिमों के लिए जीनोसाईड जैसे शब्दों का प्रयोग करने वाले सेकुलर चिंतकों को अल्लाह के नाम पर क़त्ल किए गए दसियों हज़ार कश्मीरी हिंदुओं का ध्यान स्वप्न में भी नहीं आता ।
सरकार कहती है कि कश्मीरी हिंदू “स्वेच्छा से” कश्मीर छोड़ कर भागे, इस घटना को जनस्मृति से विस्मृत होने देने का षड़यंत्र भी रचा गया है ,, आज की पीढ़ी में कितने लोग उन विस्थापितों के दुःख को जानते हैं जो आज भी विस्थापित हैं , भोगने वाले भोग रहे हैं, जो जानते हैं, दुःख से उनकी छाती फटती है, और आँखें याद करके आंसुओं के समंदर में डूब जाती हैं और सर लज्जा से झुक जाता है । रामायण की देवी सीता को शरण देने वाली भारत की धरती से उसके अपने पुत्रों को भागना पड़ा ,कवि हरि ओम पवार ने इस दशा का वर्णन करते हुए जो लिखा, वही प्रत्येक जानकार की मनोदशा का प्रतिबिम्ब है –
“मन करता है फूल चढा दूँ लोकतंत्र की अर्थी पर, भारत के बेटे शरणार्थी हो गए अपनी धरती पर”

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