Tuesday 20 January 2015

बुद्धिजीवी तारेक फतह का एक लेख.....

लखनऊ के पत्रकार चन्दन श्रीवास्तव के फेसबुक वाल से साभार
 कनाडा में रहने वाले पाक मूल के बुद्धिजीवी तारेक फतह का एक लेख पढ़ा जिसमें वे लिखते हैं कि...
''वे टोरंटो (कैनाडा) जहाँ वे रहते हैं, जुम्मे के नमाज को मस्जिद में जाना पसंद नहीं करते. उसमें से एक कारण ये है कि नमाज शुरू हो उसके पहले जो भी रस्मी दुआएं अता की जाती है उसमें एक दुआ “मुसलमानों की काफिरों की कौम पर जीत हो” इस अर्थ की भी होती है. बतौर तारेक फतह, यह दुआ सिर्फ टोरंटो ही नहीं लेकिन दुनियाभर में की जाती है. अब आप को पता ही है काफ़िर में तो सभी गौर मुस्लिम आते हैं – यहूदी, इसाई, हिन्दू, बौद्ध, सिख और निरीश्वरवादी भी. यह दुआ अपरिहार्य नहीं है. इसके बिना भी जुम्मे की नमाज की पवित्रता में कोई कमी नहीं होगी.''
आगे तारेक फतह के शब्दों में:
''मैंने अपने रुढीचुस्त मुसलमान मित्रों से चर्चा – विवाद किया कि चूँकि हम सब गैर मुस्लिम देशों में रहते हैं, तो यह दुआ नहीं करनी चाहिए. वे सभी सहमत होते तो हैं, लेकिन बिल्ली के गले में घंटा बांधे कौन? गत शुक्रवार, जब दुनिया जब शार्ली एब्दो के हादसे से उबरी भी नहीं थी तब और एक हमले की खबर आई कि एक जिहादी आतंकवादी ने एक यहूदी मार्किट में एक यहूदी को गोली मार दी है. मैंने सोचा, बस बहुत हो चुका अब. सो मैंने अपने मित्रों से कहा कि ये चुनौती अब हम ही उठाते हैं, चलिए "I am Charlie Hebdo" लिखे बोर्ड ले कर खड़े हो जाते है अपने लोकल मस्जिद के बाहर. गिनती के चार लोग आये. बाकी सभी मेरे इस्लामी जूनून से जिंदगीभर लड़ते साथी भी अखरी मिनट को डर कर भाग गए. और आतंक की निंदा करने के बजाय इमाम साहब दहाड़े कि इस्लाम इस मुल्क मैं सभी धर्मों के ऊपर स्थापित होगा. और मस्जिद के भीतर, मुझे उम्मीद थी कि अभी अभी ये हादसा ताजा है तो मुल्ला जी अक्ल से काम लेंगे और इस वक़्त गैर मुस्लिमों को दुश्मन करार नहीं देंगे, लेकिन मेरी उम्मीदों को टूटना ही नसीब था. आतंकियों की निंदा करना तो दूर की बात. इमाम साहब इंग्लिश में दहाड़े कि इस्लाम "will become established in the land, over all other religions, although the 'Disbelievers' (Jews, Christians, Hindus and Atheists) hate that." मुझे मेरे कानों पर यकीन नहीं हो रहा था. उसी सुबह एक फ्रेच जिहादी ने यहूदियों को बंधक बनाने की खबर आई थी, उस पर भी कोई नाराजगी नहीं जताई उन्होंने. इमाम साहब ने हम सभी को कह कि अपमान पर प्रतिक्रिया के समय हम सभी मुसलमान रसूल के नक्शेकदम पर चलें. अब ये सुझाव के साथ दिक्कत ये है कि ऐसे कुछ मौकों पर रसूल ने उनका उपहास करनेवालों को माफ़ किया था, लेकिन कई ऐसे भी मौके हैं जहाँ उन्होंने ऐसे लोगों को मार डालने के भी निर्देश दिए थे. खुतबे के आखिर में इमाम साहब ने वो दुआ फिर से दोहराई जिसमें अल्लाह से दुआ की जाती है कि वे मुसलमानों को काफिरों की कौम पर फतह दिला दे. फिर हम सभी साफ़ सुथरी कतारों खड़े हुए, और मक्का की तरफ मुंह कर के सब ने इमाम साहब के निर्देश में जुम्मे की नमाज अता की. मस्जिद से जब निकला तब मैंने ठान ली थी कि मैं तो वहां वापस नहीं जानेवाला.''

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