Wednesday 7 January 2015

संस्कृत शब्दों का अनुचित अंग्रेजी अनुवाद

डॉक्टर राजीव मल्होत्रा की एक अतिशय उम्दा पुस्तक है "Being Different", अर्थात "विभिन्नता". संक्षेप में कहूँ तो "हम अलग हैं" (अथवा सनातन धर्म दूसरों से अलग क्यों है) को इसमें बेहतरीन पद्धति से समझाया गया है. सौभाग्य से इस पुस्तक के अनुवाद का मौका मुझे मिल सका. चूँकि राजीव जी की पुस्तक बेहद विस्तृत मंच पर, गहन शोध एवं अध्ययन पर आधारित है, ज़ाहिर है कि कहीं-कहीं भाषा क्लिष्ट हो गई है. परन्तु लगभग उसी "थीम" से सम्बन्धित आनंद कुमार जी का यह फेसबुक नोट, नए विद्यार्थियों को सनातन शब्दों के मूल अर्थ समझाने के लिए आसान है... संस्कृत के कई शब्दों का अंग्रेजी अनुवाद किया ही नहीं जा सकता. इसे पढ़िए और समझिए कि Why we are DIFFERENT... 

किसी विदेशी को कभी रसगुल्ले का स्वाद समझाने बैठ जाइये | क्या समझायेंगे ? मीठा होता है | वो पूछेगा कैसा मीठा ? चीनी जैसा, केक जैसा, सेब जैसा ? फिर आप समझायेंगे छेना एक चीज़ होती है जो दूध से बनाते है वैसा | वो फिर परेशान होगा, पनीर जैसा, चीज़ जैसा, बटर जैसा? ऐसे में समझाने का एक ही तरीका होता है की आप उसे रसगुल्ला चखा दें | बताने में रसगुल्ले का अनुभव खो जाता है | रसगुल्ला मुलायम है ये आप छु के महसूस करते हैं उसका स्वाद फिर महसूस करते हैं किसी दूसरी इन्द्रिय से | अगर एक तीसरी ही इन्द्रिय यानि की सुनने के जरिये आप दो – दो का काम लेना चाहेंगे तो काम जरा मुश्किल होगा |

ऐसा ही कुछ हमारे धर्म के साथ है | धर्म का अनुवाद हो जाता है Religion, जो की धर्म को आधा अधूरा सा समझाता है | जैसे धर्म पिता भी कहना हिंदी में सही होगा, लेकिन इसका अनुवाद Religious Father तो नहीं कर सकते ? वैसे ही किसी धार्मिक व्यक्ति को religious कह देने से किसी कर्म – कांडी तिलक लगाये ब्राम्हण वाली सी तस्वीर आती है दिमाग में, यहाँ Pious कहना थोड़ा ज्यादा सही अर्थ समझाता है | कमी फिर भी रह जाती है, जैसा सौम्य, हँसता मुस्कुराता सा धार्मिक व्यक्ति मन में आता है वैसा Religious या Pious नहीं होता | यहीं से असली समस्या हमारे रीती-रिवाज़ों और धार्मिक मान्यताओं को समझने की शुरू होती है |




कुछ 200 साल पहले जब संस्कृत ग्रंथों का अंग्रेजी अनुवाद शुरू हुआ तो संस्कृत के शब्दों के लिए अंग्रेजी के सबसे करीबी शब्द इस्तेमाल कर लिए गए | ये तरीका ही गलत था, या तो संस्कृत के शब्दों का ही सीधा इस्तेमाल होना चाहिए था या फिर नए शब्द बनाये जाने थे इनके लिए | आगे के लेखक और उन्ही अनुवादों को पढ़कर बने तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग के लिए गलत सीखना एक नियति बन गई |

जैसे की विद्या हमेशा से भारत में दान की वस्तु रही है, अब दान शब्द को भीख या Alms, Charity, Donation जैसे शब्दों से समझा ही नहीं जा सकता | दान के साथ सबसे महत्वपूर्ण होता है की ये उचित पात्र को दिया जाए | जो वस्तु दी जा रही है उसमे किसी किस्म की कमी या कोई खोटनहीं हो | आप अपना पुराना स्वेटर या पुराने कपड़े किसी को दे कर उसे दान नहीं कह सकते | ऐसे ही अगर हम अपने मित्रों या अन्य रिश्तेदारों को भगवतगीता दे दें और उनकी उसे पढ़ने में रूचि ही न हो तो भी उसे दान नहीं कहेंगे | दान में गाय देने की परंपरा का यही कारण रहा है की दान पाने वाला व्यक्ति एक तो दूध से लाभ पाए लेकिन साथ ही गाय को पालने के लिए श्रम भी करे | फिर एक पूज्य मानने की परंपरा रही है गाय को, तो दान में मिली गाय का उचित सम्मान भी होगा | संस्कृत भी ऐसे ही दान स्वरुप अन्य भाषाविदों को सिखाई गई होगी | भाषा का उचित सम्मान हुआ या नहीं इसे बाद की चर्चा के लिए छोड़ते हुए आइये कुछ और शब्दों को देखते हैं | 



एक और शब्द जो अध्यात्म में अक्सर प्रयुक्त होता है वो है “आत्मा” | अजर, अमर, अविनाशी, आदि विशेषण इसके साथ अक्सर ही जुड़े हुए पाए जायेंगे | इसके लिए जो अंग्रेजी शब्द प्रयोग किया जाता है, वो है Soul जो की गलत है | Soul शब्द से प्राण कहने जैसा अनुभव तो आएगा, लेकिन उस से आत्मा का बोध नहीं होता | जैसे हम अपने प्रिय सभी लोगों को “आत्मीय” कह सकते हैं लेकिन अंग्रेजी का Soul mate सिर्फ़ पति-पत्नी ही एक दुसरे के लिए इस्तेमाल करेंगे| “आत्मा” की तरह Soul अनेक जन्मों तक अपने कर्म का बोझ भी नहीं ढोती, जैसे ही इस शरीर से मुक्त हुए Soul का काम भी ख़त्म हो गया |


भारत के तैतीस करोड़ देवी देवताओं के होने का भेद भी यहाँ से देखा जा सकता है | “सप्त कोटि बुद्ध” को मान्यता देने की परंपरा बौद्ध धर्म के अनुयायियों में रही है | जब बौद्ध धर्म चीन में पहुंचा और वहां बाद में अंग्रेजी में भी अनुवादित होने लगा तो वहां भी Seven Crore Buddha की समस्या आई थी | लेकिन तिब्बत प्रान्त वहां पास ही था और चीनी हमारी तरह सहिष्णु भी नहीं होते | उसके अलावा उन्होंने उतनी लम्बी गुलामी नहीं झेली थी जितनी की भारतियों ने, इसलिए तुरंत ही इसका विरोध हुआ और आज सात करोड़ बुद्ध नहीं “सप्त कोटि बुद्ध” ही मान्य है | भारत में प्रबुद्ध बुद्धिजीवी वर्ग अपनी दास मानसिकता को कभी त्याग नहीं पाया | बारह आदित्य, ग्यारह रूद्र, आठवसु इन्हें उत्पन्न करने वाले प्रजापति ब्रह्म और सर्वशक्तिमान परमेश्वर को मिलाकर तैंतीस अलग अलग कोटि यानि की श्रेणी दी गई हैं जिसमे अपने कृत्यों के अनुसार पूजनीय का वर्गीकरण किया जाता है (Satapatha-brahmana 4.5.7.2) | ये लेकिन अभी भी 33 करोड़ कहकर ही भारतीय देवताओं की गिनती की जाती है |

नाम की बात आई है तो “शिव” को विनाश का, “ब्रह्मा” को जन्म देने का और “विष्णु” का पालन का कर्तव्य निर्धारित है | लेकिन यहाँ भी अर्थ में भेद होता है | हर एक अलग अलग समय में अलग अलग कोटि में चला जाता है | जैसे शिव के डमरू के स्वर से ही “माहेश्वरसूत्र” निकले है, जिन पर पूरा व्याकरण आधारित है | नृत्य और संगीत की शुरुआत भी नटराज से ही हुई मानी जाती है | दरअसल Deconstruction भौतिकी (Physics) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है, इसका अर्थ छोटे हिस्सों में तोड़कर किसी चीज़ को समझना होता है | हर बार विनाश उद्देश्य नहीं होता लेकिन आज शिव को आप विनाश का देवता मानते हैं | जबकि शिव शब्द ही “शव” और “ई” से बना है, इनका क़रीबी मतलब होता है Mass और Energy जो सबसे करीब से “Physics is science dealing with mass and energy and the phenomena related to it” के जरिये समझा जा सकता है | सीधा कोई करीबी अंग्रेजी शब्द उठा कर विनाश का देवता बना देने पर होने वाली बड़ी गलती !

ऐसे ही हिंदी या संस्कृत में इस्तेमाल होने वाले साधू, संत, ऋषि, सन्यासी या योगी के लिए Prophet या फिर Saint शब्द का इस्तेमाल होता है | Saint रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा दी जाने वाली एक उपाधी की तरह है | हमारे धर्म में किसी को संत, या योगी घोषित कर देने की कोई परंपरा नहीं है, ना ही कोई संस्था है जो ऐसा कर सके | Saint बीमारों को किसी दैवीय शक्ति द्वारा ठीक कर देने के लिए भी जाने जाते हैं, अगस्त्य, विश्वामित्र, सप्त ऋषि कोई भी ऐसे चमत्कारों के लिए नहीं जाने जाते | योगी भी बरसों की योग साधना से व्यक्ति अपने आप को बनाता है, आप किसी को योगी की उपाधी नहीं दे सकते | जैसे सीधा चर्च से बह के Religion एक धारा की तरह आ जाती है वैसे हमारे पास नहीं होता | अलग अलग स्थान, अलग अलग परिवेश से उठकर कोई भी स्थापित परम्पराओं को चुनौती दे सकता है | अष्टावक्र भी होते हैं, व्यास भी, नारद भी यहाँ भक्ति सिखाते हैं तो ऐतरेय भी ब्राम्हणों की रचना करते हैं |

आज की अंग्रेजी देखें तो ऐसे शब्दों का समावेश होने लगा है | Pundit का सीधा सीधा अंग्रेजी में मतलब होता है किसी विषय का विशेषज्ञ, पुरानी अंग्रेजी में किसी पोंगा पंथी को पण्डित कह दिया करते थे | अवतार के अर्थों में कभी नबी तो कभी Jeasus भी कह दिया जाता था | आज Avatar अंग्रेजी का भी एक शब्द है, और निराकार को एक रूप, शरीर की सीमाओं में बांधना उसका अर्थ निकलता है |

एक जगह जहाँ काम अभी भी बाकि रहता है वो है जाति या वर्ण को Caste कह देना | इस से भारतीय समाज का जितना नुकसान हुआ है वो शायद ही किसी अन्य शब्द ने किया होगा| वर्ण का एक अर्थ रंग भी होता है, लेकिन भारतीय समाज में रंग के आधार पर भेद भाव का कोई प्रमाण अभी तक प्रस्तुत नहीं किया जा सका है | तो वर्ण व्यवस्था को किसी किस्म के भेदभाव का आधार मान लेना अनुचित होगा | ऐसे ही जाति को सीधा सीधा अंग्रेजी का caste कहना भी ठीक नहीं है | किसी और समय में किसी और समाज में ये किसी और तरीके से प्रयोग में लायी जा रही थी | इसके अधकचरे ज्ञान को एक शब्द में ढाल कर भारतीय समाज के चेहरे पे कालिख मल दी गई है | 

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साभार :- आनंद कुमार 

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