Sunday 12 October 2014

कैलाश सत्यार्थी को "80000 बाल बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने" के लिए नोबल प्राइज मिलने से पूरी दुनिया को यह जानकारी मिलेगी की भारत में लाखों करोडो बच्चे दासता का जीवन बिता रहे हैं!!
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अमेरिका में ऐसे सैकड़ो कार्यकर्ता हैं जो ऐसे अफ़्रीकी अमेरिकनों (blacks) की लम्बी कारावास की सजा कम कराने के लिए कार्य कर रहे हैं जिन्हे अमेरिका के फ़ेडरल जजों द्वारा तथा अमेरिका के संभ्रांत वर्ग द्वारा चलाये जा रहे मारिजुआना के खिलाफ तथाकथित अभियान (war of marijuana) के फलस्वरूप marijuana रखने और खरीदने बेचने के जुर्म में सजा भुगतनी पड़ रही है!! किन्तु नोबल कमिटी ने उन्हें प्राइज के लिए नामांकित तक नही किया। क्योंकि इससे उनकी लोकप्रियता बढ़ती और इस तथ्य का पर्दाफाश पूरी दुनिया के सामने हो जाता कि अमेरिका में गलत मुक़दमे बना कर अफ़्रीकी अमेरिकनों को कारागार में डालने की समस्या बड़े पैमाने पर मौजूद है। 
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इसी प्रकार जब अमेरिका इराक़ के चप्पे चप्पे पर बमबारी कर रहा था तो बहुत सारे लोग वहां के लोगों के जीवन को बचने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन नोबल कमिटी ने उन्हें पुरस्कार देने पर विचार तक नही किया, क्योंकि इससे अमेरिका की यह नकारात्मक छवि दुनिया के सामने आती कि उसके द्वारा इराक़ के तेल भंडार पर कब्ज़ा करने के लिए की जा रही बमबारी से निर्दोष लोगों की जान जा रही है। 
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अतः यह अनुमान लगाना कठिन है कि नोबल कमिटी का उद्देश्य क्या था--- क्या उन्होंने कैलाश सत्यार्थी को उनके काम के कारण सम्मानित करने के लिए चुना या भारत की छवि पर आघात करने के लिए हथियार के तौर पर उन्हें चुना? 
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IPC आदि भारत के कानूनो में बाल बंधुआ मजदूरी के खिलाफ सजा के पर्याप्त प्रावधान हैं। लेकिन वास्तव में न्यायाधीश यह सजा बहुत कम केसों में देते हैं। उदाहरण के लिए एक स्विस अरबपति ने भारत में तीन साल की लड़की को प्रताड़ित किया और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश खरे ने उसे जमानत दे दी ताकि वह भारत से सकुशल बच कर जा सके!! न्यायालयों के ऐसे फैसलों से ही भारत में बाल बंधुआ मजदूरी को बढ़ावा मिलता है। दूसरी तरह से कहें तो भारत के न्यायालयों में भ्रष्टाचार व्याप्त है, साथ ही हमारे पास मात्र 20000 न्यायालय हैं जबकि आवश्यकता 200,000 न्यायालयों की है। इससे भी बड़ा कारण हमारे देश की गरीबी है। गरीबी की समस्या का समाधान हो सकता है यदि खनिजों से मिलने वाली रॉयल्टी को सीधे नागरिकों के बैंक खातों में जमा किया जाये। इस समाधान का विरोध अधिकतर नेता और कार्यकर्ता करते हैं क्योंकि उन्हें भय है कि ऐसा करने से बिकाऊ मीडिया तथा अंतर्राष्ट्रीय मार्ग से उन्हें मिलने वाला प्रचार बंद हो जायेगा।
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अतः बाल बंधुआ मजदूरी और उनकी प्रताड़ना की समस्या तो वास्तव में भारत में मौजूद है। लेकिन यदि हम सचमुच इसका समाधान करना चाहते हैं तो हमें अच्छे कानून लाने के प्रयास करना चाहिए, जैसे- ज्यूरी सिस्टम, DDMRCAM, न्यायालयों की संख्या 20000 से बढ़ा कर 200000 करना, पुलिस कमिश्नर पर राइट टू रिकॉल लागू करना आदि। निजी स्तर पर अपनी मर्जी से काम करके नाम तो कमाया जा सकता है, लेकिन इस समस्या का कोई वास्तविक समाधान नही होगा। जैसे भूखमरी की समस्या का हल निजी स्तर पर चलाये जा रहे मुफ्त खाना देने वाली चैरिटी आयोजनो से नही हुई, बल्कि राशन कार्ड प्रणाली के आने से हुई। इसी प्रकार बाल बंधुआ मजदूरी की समस्या का समाधान भी कानून ड्राफ्टों के लागू होने से होगा, न कि निजी स्तर पर किसी व्यक्ति द्वारा किये गए कार्यों से। इसके समाधान के लिए कारगर कुछ प्रमुख प्रस्तावित कानून हैं- ज्यूरी सिस्टम, DDMRCAM, न्यायालयों की संख्या 20000 से बढ़ा कर 200000 करना, पुलिस कमिश्नर पर राइट टू रिकॉल लागू करना आदि। हमारी समस्याओं का समाधान करना नोबल प्राइज कमिटी के बस की बात नही है, और न ही हम उनसे ऐसी उम्मीद करते हैं। उनका काम बस एक "योग्य" व्यक्ति का चयन करना या किसी देश की छवि ख़राब करना हो सकता है। अब उनका उद्देश्य सचमुच में क्या था इसका अर्थ आप अपनी अपनी तरह से लगा सकते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि हमें सकारात्मक और नकारात्मक प्रचार प्रसार पर अपना ध्यान केंद्रित न करके समाधान पर अपना पूरा ध्यान देना चाहिए। इस समस्या का समाधान आवश्यक कानून ड्राफ्ट प्रकाशित करके ही संभव है।
सत्यार्थी जैसे लोगों की वजह से हमारे परंपरागत "तकनीकी कौशल" के विश्वविद्यालयों पर ताला लगा दिया गया। जैसे हम शहरी बच्चों को प्रैप स्कूल में भेज कर एबीसीडी सिखवाते हैं, ठीक उसी तरह से हमारे देश की बहुतेरी आबादी के बच्चे बचपन से परंपरागत तकनीकी कौशल सीखते हैं। मिर्जापुर और भदोही को कालीन उद्योग इसकी मिसालें थीं। सत्यार्थी जैसे लोगों के अभियान की वजह से इन उद्योगों से हुनर सीखने का मौका ना जाने कितने बच्चो सें छिन गया। स्वालंबी हाथों को तराशने की बजाय भिखमंगा बना दिया गया।
इतना ही नहीं "रग मार्क" की अनिवार्यता ने हमारे कालीन-गलीचा उद्योग को दुनिया में बहुत पीछे कर दिया है। क्या आप जानते हैं कि "रग मार्क" क्या होता है? आज यह बच्चे ना स्कूल के रहे ना घर के। इनके हाथ बेकार हो चुके हैं। हजारों पाठशालाओं पर ताला लगवा दिया। और कहते हैं कि मुझे मलाल ना हो। लाखों परिवारों की जीविका छिन चुकी है। वैकल्पिक स्रोत नहीं है इनके पास जीने के लिए। और यह सब उस अभियान के जरिए हुआ, जिसको प्रायोजित भी यूरोपीय धन से किया गया।
हम बाजार के खिलाड़ियों के हाथों खेले गए, खेले जा रहे हैं और आप कह रहे हैं कि मुझे मलाल ना हो। कहने को तो बहुत कुछ है, लेकिन ज्यादा कहूंगा तो आपका भ्रष्ट देशप्रेम और आहत हो उठेगा और हिंसक भी। पर क्या करूं, मेरा देशप्रेम तो वहां बसता है, जहां राशन का गल्ला और बिजली की रोशनी नहीं पहुंचती।

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