Sunday 5 October 2014


रानी तपस्विनी अर्थात ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेजका संयोग

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सारिणी



१. ‘१८५७ के स्वतंत्रता संग्राममें रानी तपस्विनीका विशेष कार्य

रानी तपस्विनी अर्थात झांसीकी रानी लक्ष्मीबाईकी भानजी एवं झांसीके सरदार नारायणरावकी कन्या बाल्यावस्थामें ही वह विधवा हो गई । उनका वास्तविक नाम सुनंदा था । इस विरक्त बालविधवाकी दिनचर्या पूजापाठ, धार्मिक ग्रंथोंका वाचन, देवीकी उपासना इस प्रकारकी थी । जैसे वह संन्यासिनी ही बनी थीं । ऐहिक जीवनमें उन्हें रुचि नहीं थी, तो भी उनकी धार्मिक वृत्ति और विरक्तिके कारण वह प्रजाके आधारका प्रमुख स्रोत बन गयी थीं । गौर वर्णकी, तेजस्वी मुखवाली वे शक्तिकी उपासक ही थीं । वे निरंतर चंडीमाताका नामजप करती रहती थीं । साहस तथा धैर्य वे इन गुणोंकी साक्षात प्रतिमूर्ति थीं । रानी लक्ष्मीबाईके अनुसार ही वे घुडसवारी, अस्त्रशस्त्र चलानेका अभ्यास कर रही थीं । निराशा शब्दके लिए उनके जीवनमें कोई स्थान ही नहीं था । पिताजीकी मृत्युके पश्चात वे उनकी जागीरका (संपत्तिका) कार्यभार उत्तम प्रकारसे संभालने लगीं । उन्होंने पिताजीके दुर्गको दुरुस्त कर दृढ बनाया । नए सैनिकोंकी नियुक्ति की एवं उन्हें सैनिक शिक्षण देना आरंभ किया ।

२. अंग्रेजोंके विरोधमें छुपकर लडीं

अंग्रेजोंके प्रति उनके मनमें अत्यंत तीव्र घृणा थी । इसे कई बार वे अपने वक्तव्यद्वारा प्रकट भी करती थीं । अंग्रेजोंको उनके कार्यकी सूचना मिली थी; अतः उन्होंने उनसे पूछताछ किए बिना नजरबंदीमें रखा । उसकी संन्यासी वृत्ति देखकर अंग्रेज अधिकारियोंको लगा कि यह स्त्री अपने लिए धोकादायक नहीं है; अतएव उन्होंने उसे नजरबंदीसे मुक्त किया । उसके पश्चात नैमिषारण्यमें रहकर वे चंडीमाताकी उपासना एवं साधना करने लगीं । अंग्रेजोंको यह लगा कि वह तो संन्यासिनी ही हो गई हैं; इसलिए वे उनके प्रति निश्चिंत  हो गए । नैमिषारण्यमें लोग निरंतर उनके दर्शन करने हेतु जाते थे । वह उन लोगोंको उपदेश देती थीं और चंडीमाताकी उपासना करनेका सुझाव देती थीं । उस समयसे लोग उन्हें ‘माता तपस्विनी’ कहने लगे ।

३. अंग्रेजोंके विरुद्ध विद्रोह करने हेतु सेनाका प्रबोधन करना

रानी तपस्विनीके नैमिषारण्यके आश्रममें आशीर्वाद हेतु निरंतर लोगोंका आना-जाना रहता था । वे उन्हें उपदेश देती थीं । विश्वसनीय भक्तोंको और अंग्रेजोंकी छावनीमें रहनेवाले अपने देशके सैनिकोंको उन्होंने अंग्रेज शासनके विरुद्ध विद्रोह करनेके लिए प्रवृत्त किया । १८५७ के आरंभसे ‘साधु और संन्यासी’ छावनियोंके चक्कर काटने लगे । वे सैनिकोंको बताने लगे, ‘अंग्रेज लोग तुम्हें तुच्छ समझते हैं । ‘काला निगर’ कहकर तुम्हारा अनादर करते हैं । लुटेरे अंग्रेजोंने अपने देशको कंगाल बनाया । वे आपको अल्प और केवल गोरे सैनिकोंको अधिक वेतन देते हैं । तुम्हें और गोरे सैनिकोंको देशकी आयमेंसे ही वेतन दिया जाता है । उनकी आज्ञाके कारण ही तुमने अपने ही राज्यको डुबोनेके लिए उनकी सहायता की है । यह बात तुम्हारे ध्यानमें क्यों नहीं आती ? छावनीके अपने अधिकांश सैनिक विद्रोह करनेके लिए सिद्ध हुए हैं । अंग्रेजोंने अपना देश हडप लिया है । वे अब अपना धर्म डुबोकर हमें ईसाई बनानेके कार्यमें लगे हैं । क्या तुम्हें ईसाई होना पंसद है ? इसलिए सजग रहें । विद्रोह करनेके लिए सिद्ध रहें ।’ अर्थात रानी तपस्विनीने ही इन साधु-संन्यासियोंको यह सब सिखाया था ।

४. विद्रोहका गुप्त कार्य

१८५७ का स्वतंत्रता युद्ध आंरभ होनेसे पूर्व नानासाहेब, बाळासाहेब, तात्या टोपे और अजीमुल्ला खां, रानी तपस्विनीके दर्शनके लिए आए थे । उनके साथ विद्रोहकी चर्चा हुई । अजीमुल्ला खांने साधु सन्यासियोंके माध्यमसे हर छावनीमें विद्रोहके निशान अर्थात लाल कमल भेजनेके लिए सूचित किया । कोई महान आपत्ति आनेवाली है, सेना आनेवाली है, लडाई होनेवाली है, इसकी सूचना गांवगांवमें पहुंचाने हेतु गांवगांवमें रोटियां भेजनेकी प्रथा पहलेसे ही चल रही है । रोटियां भेजकर जनताको विद्रोहके लिए सिद्ध रहनेका संदेश भेजनेका निश्चित हुआ । उसके अनुसार साधु, संन्यासी गांवगांवमें चक्कर काटने लगे । यह कार्य इतनी गुप्त पद्धतिसे चल रहा था कि एक भी अंग्रेज अधिकारीके मनमें इस बातकी आशंका नहीं हुई ।
निश्चित दिनांकसे पूर्व ही विद्रोह हुआ । रानी तपस्विनीके प्रभावके कारण गांवगांवके लोग विद्रोहमें सहभागी हुए । अंग्रेजोंके आधुनिक अस्त्रशस्त्रोंके कारण और देशका कोष (खजाना) भी उनके ही अधिकारमें होनेके कारण उन्होंने यह विद्रोह जोर पकडने नहीं दिया और जनताको अपनी क्रूरताका प्रदर्शन दिखाकर उनमें आतंक फैलाया । रानी तेजस्विनीके ध्यानमें आया था कि अंग्रेजोंके साथ युद्ध करनेसे कोई भी लाभ नहीं होगा । अपने देशके राजा-महाराजा अंग्रेजोंके सामने विवश होकर एवं द्रव्यलोलुपताके कारण विश्वासघात कर रहे हैं; इसलिए युद्ध कर यश प्राप्त करना कठिन है । वह नानासाहबके साथ नेपाल गई । नेपालके राजा जंगबहादुर अंग्रेजोंका मित्र थे । नेपालमें भी प्रवचनद्वारा उन्होंने स्वतंत्रताका महत्त्व समझा दिया । उस विवश राजाके राज्यमें रहना उन्हें अच्छा नहीं लगा । वहांसे वह दरभंगा और कोलकाताकी ओर गर्इं ।

५. वृद्धावस्थाके कारण थकान आनेपर भी बंगालके

विभाजन हेतु किए जानेवाले आंदोलनमें रानी तपस्विनीका सहभाग

रानीने कोलकातामें ‘महाभक्ति पाठशाला’ आरंभ की । लोकमान्य तिलकने वहां रानी तपस्विनीसे भेंट की । ‘केसरी’के उपसंपादक खाडिलकर भी उनके साथ थे । नेपालमें अस्त्र शस्त्रोंका कारखाना गुप्त रीतिसे आरंभ करनेका आयोजन खाडिलकरका था । नेपालके सेनापति समशेरजंगके साथ रानीकी पहचान थी । रानीकी पहचानके कारण नेपालमें बाह्यतः टाईल्स निर्मितिका कारखाना था, परंतु वास्तवमें वहां अस्त्र शस्त्रोंकी निर्मिति होती थी । वे शस्त्र बंगालकी ओर भेजे जाते थे । विश्वासघातके कारण खाडिलकर पकडे गए । बुद्धिमानीसे उन्होंने अपना छुटकारा कर लिया और वे लौटकर महाराष्ट्र आ गए । अपने ही लोगोंकी ओरसे क्रांतिका प्रयास निष्फल किया जा रहा है, यह रानी तपस्विनीको अच्छा नहीं लगा । अपने देशको परमेश्वरका शाप ही है, यह सोचकर वह उदास हुई; तो भी रानी तपस्विनीने वृद्धावस्थाके कारण थकान आनेपर भी बंगालके विभाजन हेतु किए जानेवाले आंदोलनमें सहभाग लिया । अंतमें वर्ष १९०५ में भारतकी इस महान विदुषी एवं क्रांतिकारिनीकी मृत्यु कोलकत्तामें हुई । महाराष्ट्रकी इस महान कन्याको महाराष्ट्र ही विस्मरण कर जाए, इस बातका अत्यंत खेद होता है । उनके जीवनके विषयमें संशोधन करनेकी आवश्यकता है ।’
(संदर्भ : महान भारतीय क्रांतिकारी, प्रथम पर्व १७७० से १९००, लेखक : श्री. स.ध. झांबरे, (महाराष्ट्र राज्य साहित्य एवं संस्कृति मंडल, मुंबई)) (समाचारपत्रिका सनातन प्रभात, ज्येष्ठ अमावास्या, कलियुग वर्ष ५११२ (११.७.२०१०))

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