Sunday 12 January 2014

मोदी का विरोध सिर्फ आर्थिक कारणों से

मोदी का विरोध सिर्फ आर्थिक कारणों से हो रहा है, न की सांप्रदायिक कारणों से ......
जब से अमेरिका यूरोप में यह संकेत गया है की मोदी के सत्ता में आने से सरकारी तौर से भी “भारत निर्मित स्वदेशी” वस्तुओ के उत्पादन और उपयोग पर भारत की जनता द्वारा जोर दिया जायेगा, ये देश मोदी का रास्ता रोकने के लिए मोदी विरोधी शक्तिओ को खूब प्रोत्साहन दे रहे हैं.

यदि सिर्फ १ साल तक जमकर विदेशी उत्पादों का बहिष्कार कर दिया जाये तो यूरोप और अमेरिका की मुद्राए रुपये के मुकाबले बहुत निचे आ जायेगे. सिर्फ यही नहीं, यूरोप दुबारा मंदी की जकड में चला जायेगा और अमेरिका यूरोप दोनों जगहों पर बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि होगी क्योकि तब भारत में सामान का उत्पादन होने से रोजगार भारत वालो को मिलेगा. आज के दिन भारत का सारा रोजगार चीन, अमेरिका और यूरोप चला गया है क्योकि हम सब लोग बाहर देशो में बना सामान खरीद रहे हैं.

गुजरात दंगे का प्रचार तो सिर्फ भारत की जनता को मुर्ख बनाने के लिए बार बार किया जाता है, विदेशियों द्वारा मोदी का विरोध का सिर्फ आर्थिक कारन है. भारत में स्विट्जरलैंड के 156 गुना लोग रहते हैं और 121 करोड़ लोग दुनिया में सबसे बड़े ग्राहक है घटिया विदेशी उत्पादों के. आज भारत में 5000 विदेशी कंपनिया 27 लाख करोड़ का बिजिनेस करके हर साल 17 लाख करोड़ रुपये को डालर में बदलकर अपने देश ले जाती है जिससे रुपये निचे जा रहा है. अर्थक्रान्ति प्रस्ताव के लागू हूने की भनक भी अमेरिका को लग चुकी है जो भारत के लिए अमेरिका की कीमत कम कर देगा.

मोदी और डॉ.स्वामी ने बीजेपी सरकार आने पर डालर का भाव 5 साल में 21 रुपये और 10 साल में 10/- रुपये तक लाने की सोच रहे हैं. यदि डालर 10 रुपये हो जाये तो भारत का 46 लाख करोड़ का कर्जा सिर्फ 7 लाख करोड़ ही रह जायेगा जिसे हम एक झटके में दे सकते हैं. 2013 के बजट 17 लाख करोड़ के बजट में से 5.35 लाख करोड़ सिर्फ कर्ज की किश्त देने में ही चला गया जो पुरे बजट का करीब एक तिहाई है सोचो भारत विकास कैसे करेगा.

अमेरिका मोदी को किसी भी हालत में PM बनता नहीं देखना चाहता है क्योकि मोदी के पीछे सभी राष्ट्रवादी खड़े हैं. आने वाले समय में मिडिया मोदी को और भी अनदेखी करेगा और कजरी गिरोह को फोकस करके मोदी की राह रोकने की योजना पर काम करेगा.

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आपको कोक पीना है तो वो पीजिये, पेप्सी पीजिये, ड्यू, स्प्राईट, थम्स अप.... ढेर सारे विकल्प हैं आपके पास. इन सारे उत्पादों को आक्रामक विपणन नीति के तहत एक दुसरे का प्रतिद्वंदी और एक-दुसरे से बेहतर साबित करते रहा जाएगा. उत्पाद के राजस्व का आधा बजट इनके प्रचार अभियान और मीडिया पर ही खर्च होता रहेगा. लेकिन कभी आपको यह पता नहीं लगने दिया जाएगा की इन उत्पादों में आपस में कोई प्रतिद्वंदिता है ही नहीं. ये सारे एक ही कंपनी के अलग-अलग उत्पाद हैं. इनकी सामुहिक लड़ाई अगर है तो बस 'पानी' के साथ है. राजनीति की मार्केटिंग का भी बिलकुल यही हाल है साहब. आपके पास दिख ज़रूर ज्यादा विकल्प रहे होंगे लेकिन हैं बस दो ही विकल्प. चाहे आप दस जनपथ के प्रीमियम ब्रांड कांग्रेस के साथ रहिये या उसके अपेक्षाकृत सस्ते ब्रांड आआपा, राजद, लोजपा, सपा, बसपा, एनसीपी, वाम..... आदि के साथ. ये सारे उत्पाद अंततः एक ही कंपनी के बैलेंस शीट को बढाने वाले हैं.
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