Friday 26 July 2013

भारतीय काल गणना की वैज्ञानिक पद्धति



भारतीय काल गणना की वैज्ञानिक पद्धति
यह अति सूक्ष्म से लेकत अति विशाल
है .यह एक सेकण्ड के ३००० वे भाग त्रुटी से शुरू
होता है तो युग जो कई लाख वर्ष का होता है | ब्रिटिश केलेंडर रोमन कलेण्डर कल्पना पर
आधारित था। उसमें कभी मात्र 10 महीने हुआ
करते थे। जिनमें कुल 304 दिन थे। बाद में
उन्होने जनवरी व फरवरी माह जोडकर 12 माह
का वर्ष किया। इसमें भी उन्होने वर्ष के
दिनो को ठीक करने के लिये फरवरी को 28 और 4 साल बाद 29 दिन की। कुल मिलाकर
ईसवी सन् पद्धति अपना कोई वैज्ञानिक
प्रभाव है।भारतीय पंचाग में यूं तो 9 प्रकार के
वर्ष बताये गये जिसमें विक्रम संवत् सावन
पद्धति पर आधारित है। उन्होने
बताया कि भारतीय काल गणना में समय की सबसे छोटी इकाई से लेकर ब्रम्हांड
की सबसे बडी ईकाई तक
की गणना की जाती है। जो कि ब्रहाण्ड में
व्याप्त लय और
गति की वैज्ञानिकता को सटीक तरीके से
प्रस्तुत करती है।आज कि वैज्ञानिक पद्धति कार्बन आधार पर पृथ्वी की आयु 2
अरब वर्ष के लगभग बताती है। और
यहीं गणना भारतीय पंचाग करता है।
जो कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर पूरी तरह
से प्रमाणिकता के साथ खडा हुआ है।
हमारी पृथ्वी पर जो ऋतु क्रम घटित होता है। वह भारतीय नववर्ष की संवत पद्धति से
प्रारम्भ होता है। हमारे मौसम और विविध
प्राकृतिक घटनाओं पर ग्रह
नक्षत्रो का प्रभाव पडता है। जिसका गहन
अध्ययन भारतीय काल गणना पद्धति मे हुआ
है भारतीय ज्योतिष
ग्रहनक्षत्रों की गणना की वह पद्धति है
जिसका भारत में विकास हुआ है। आजकल
भी भारत में इसी पद्धति से पंचांग बनते हैं,
जिनके आधार पर देश भर में धार्मिक कृत्य
तथा पर्व मनाए जाते हैं। वर्तमान काल में अधिकांश पंचांग सूर्यसिद्धांत, मकरंद
सारणियों तथा ग्रहलाघव की विधि से
प्रस्तुत किए जाते हैं। विषुवद् वृत्त में एक समगति से चलनेवाले
मध्यम सूर्य (लंकोदयासन्न) के एक उदय से दूसरे
उदय तक एक मध्यम सावन दिन होता है। यह
वर्तमान कालिक अंग्रेजी के 'सिविल
डे' (civil day) जैसा है। एक सावन दिन में 60
घटी; 1 घटी 24 मिनिट साठ पल; 1 पल 24 सेंकेड 60 विपल तथा 2 1/2 विपल 1 सेंकेंड
होते हैं। सूर्य के किसी स्थिर बिंदु
(नक्षत्र) के सापेक्ष पृथ्वी की परिक्रमा के
काल को सौर वर्ष कहते हैं। यह स्थिर बिंदु
मेषादि है। ईसा के पाँचवे शतक के आसन्न तक
यह बिंदु कांतिवृत्त तथा विषुवत् के संपात में था। अब यह उस स्थान से लगभग 23 पश्चिम
हट गया है, जिसे अयनांश कहते हैं।
अयनगति विभिन्न ग्रंथों में एक
सी नहीं है। यह लगभग प्रति वर्ष 1
कला मानी गई है। वर्तमान सूक्ष्म
अयनगति 50.2 विकला है। सिद्धांतग्रथों का वर्षमान 365 दिo 15 घo
31 पo 31 विo 24 प्रति विo है। यह
वास्तव मान से 8।34।37 पलादि अधिक है।
इतने समय में सूर्य की गति 8.27 होती है।
इस प्रकार हमारे वर्षमान के कारण
ही अयनगति की अधिक कल्पना है। वर्षों की गणना के लिये सौर वर्ष का प्रयोग
किया जाता है। मासगणना के लिये चांद्र
मासों का। सूर्य और चंद्रमा जब राश्यादि में
समान होते हैं तब वह अमांतकाल तथा जब 6
राशि के अंतर पर होते हैं तब वह
पूर्णिमांतकाल कहलाता है। एक अमांत से दूसरे अमांत तक एक चांद्र मास होता है, किंतु शर्त
यह है कि उस समय में सूर्य एक राशि से
दूसरी राशि में अवश्य आ जाय। जिस चांद्र
मास में सूर्य की संक्रांति नहीं पड़ती वह
अधिमास कहलाता है। ऐसे वर्ष में 12 के स्थान
पर 13 मास हो जाते हैं। इसी प्रकार यदि किसी चांद्र मास में दो संक्रांतियाँ पड़
जायँ तो एक मास का क्षय हो जाएगा। इस
प्रकार मापों के चांद्र रहने पर भी यह
प्रणाली सौर प्रणाली से संबद्ध है। चांद्र दिन
की इकाई को तिथि कहते हैं। यह सूर्य और
चंद्र के अंतर के 12वें भाग के बराबर होती है। हमारे धार्मिक दिन तिथियों से संबद्ध है1
चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है उसे चांद्र
नक्षत्र कहते हैं। अति प्राचीन काल में वार के
स्थान पर चांद्र नक्षत्रों का प्रयोग होता था।
काल के बड़े मानों को व्यक्त करने के लिये युग
प्रणाली अपनाई जाती है। वह इस प्रकार है: कृतयुग (सत्ययुग) 17,28,000 वर्ष द्वापर 12,96,000 वर्ष त्रेता 8, 64,000 वर्ष कलि 4,32,000 वर्ष योग महायुग 43,20,000 वर्ष कल्प 1000 महायुग 4,32,00,00,000 वर्ष सूर्य सिद्धांत में बताए आँकड़ों के अनुसार
कलियुग का आरंभ 17 फरवरी, 3102 ईo पूo
को हुआ था। युग से अहर्गण (दिनसमूहों)
की गणना प्रणाली, जूलियन डे नंबर के
दिनों के समान, भूत और भविष्य
की सभी तिथियों की गणना में सहायक हो सकती है। वायु पुराण में दिए गए विभिन्न काल खंडों के
विवरण के अनुसार , दो परमाणु मिलकर एक
अणु का निर्माण करते हैं और तीन अणुओं के
मिलने से एक त्रसरेणु बनता है। तीन
त्रसरेणुओं से एक त्रुटि , 100 त्रुटियों से एक
वेध , तीन वेध से एक लव तथा तीन लव से एक निमेष (क्षण) बनता है। इसी प्रकार तीन
निमेष से एक काष्ठा , 15 काष्ठा से एक लघु ,
15 लघु से एक नाडिका , दो नाडिका से एक
मुहूर्त , छह नाडिका से एक प्रहर तथा आठ
प्रहर का एक दिन और एक रात बनते हैं। दिन
और रात्रि की गणना साठ घड़ी में भी की जाती है। तदनुसार प्रचलित एक घंटे
को ढाई घड़ी के बराबर कहा जा सकता है। एक
मास में 15-15 दिन के दो पक्ष होते हैं। शुक्ल
पक्ष और कृष्ण पक्ष। सूर्य
की दिशा की दृष्टि से वर्ष में भी छह-छह
माह के दो पक्ष माने गए हैं- उत्तरायण तथा दक्षिणायन। वैदिक काल में वर्ष के 12
महीनों के नाम ऋतुओं के आधार पर रखे गए थे।
बाद में उन नामों को नक्षत्रों के आधार पर
परिवर्तित कर दिया गया , जो अब तक
यथावत हैं। चैत्र , वैशाख , ज्येष्ठ , आषाढ़
श्रावण , भाद्रपद , आश्विन , कार्तिक , मार्गशीर्ष , पौष , माघ और फाल्गुन।
इसी प्रकार दिनों के नाम ग्रहों के नाम पर रखे
गए- रवि , सोम (चंद्रमा) , मंगल , बुध , गुरु ,
शुक्र और शनि। इस प्रकार काल
खंडों को निश्चित आधार पर निश्चित
नाम दिए गए और पल-पल की गणना स्पष्ट की गई। सृष्टि की कुल आयु 4320000000 वर्ष
मानी गई है। इसमें से वर्तमान आयु निकालकर
सृष्टि की शेष आयु 2,35,91,46,895 वर्ष है

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