Wednesday 11 January 2012


Tuesday 10 January 2012

भारतीय नारी के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी के विचार ...


आर्यों और सेमेटिक लोगों के नारी सम्बन्धी आदर्श सदैव से एक दुसरे से विपरीत रहे हैं..सेमेटिक लोग स्त्रियों क़ी उपस्थिति को उपासना विधि में घोर विघ्न स्वरूप मानते हैं.. उनके अनुसार स्त्रियों को किसी प्रकार के धर्म कर्म का अधिकार नही है ,यहाँ तक क़ी आहार के लिये पक्षी मरना भी उनके लिये निषिद्ध है..आर्यों के अनुसार तो सहधर्मिणी के बिना पुरुष कोई धार्मिक कार्य कर ही नही सकता.. 
     ....पाश्च्यात्य नारियों क़ी तुलना में अपने देश क़ी नारियों क़ी अवस्था भिन्न देख कर हम भारत में नारी के प्रति असमानता के उनके आरोंप को स्वीकार न करलें ..विगत कई सदियों से भारत में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण होता रहा है,जिससे हम स्त्रियों का विशेष संरक्ष्ण करने को बाध्य हुए हैं....स्त्री जाती के प्रति हीन दृष्टि के मिथ्या आरोंप के प्रकाश में हम अपनी प्रथाओं के यथार्थ स्वरूप को समझ सकेंगे...
.........स्त्रियों के सम्बन्ध में हमारा हस्तक्षेप करने का अधिकार बस उनको शिक्षा देने तक ही सीमित रहना चाहिए..उनमें ऐसी योग्यता ला देनी चाहिए जिससे वे अपनी समस्याओं को स्वयम ही अपने ढंग से सुलझा सकें..अन्य कोई उनके लिये कार्य नही कर सकता,और करने का प्रयत्न भी उचित नही है,क्योंकि हमारी भारतीय स्त्रियाँ समस्याओं को हल करने में संसार के किसी भी भाग क़ी स्त्रियों से पीछे नही हैं...
  ...मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी ,यदि भारतीय स्त्रियों क़ी ऐसी ही प्रगति हो जैसी क़ी इस देश (अमेरिका )में हुई है,परन्तु यह उन्नति तभी अभीष्ट है जब वह उनके पवित्र जीवन और सतीत्व को अक्षुण बनाये रखते हुए हो ...मैं अमेरिकी स्त्रियों के ज्ञान और विद्वता क़ी बड़ी प्रशंसा करता हूँ परन्तु मुझे यह अनुचित लगता है क़ी आप बुराइयों को भलाइयों का रंग दे कर छिपाने का प्रयत्न करें. केवल बौद्धिक विकास से ही मानव का परम कल्याण सिद्ध नही हो सकता..भारत में नीतिमत्ता और आध्यात्मिक उन्नति को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है और हम उनकी प्राप्ति के लिये प्रयास भी करते हैं.. यद्यपि भारतीय स्त्रियाँ उतनी शिक्षा सम्पन्न नहीं हैं फिर भी उनका आचार विचार अधिक पवित्र होता है ...यहाँ के पुरुष स्त्रियों के सम्मुख झुकते हैं ,उन्हें आसन प्रदान करते हैं ,परन्तु एक क्षण केउपरांत वे उनकी चापलूसी करने लगते हैं..वे उनके नख शिख क़ी प्रशंसा करना प्रारम्भ कर देते हैं ..आपको ऐसा करने का क्या अधिकार है ?कोई पुरुष इतनी दूर जाने का साहस कैसे कर सकता है ?और यहाँ क़ी स्त्रियाँ उसको सहन भी कैसे कर लेती हैं ?इस प्रकार के भावों से तो मनुष्य में निम्नतर भावों का उद्रेक होता है ..उससे उच्च आदर्शों क़ी प्राप्ति सम्भव नहीं ..

हमें स्त्री पुरुष में भेद का विचार नही करना चहिये..केवल यही चिन्तन करना चाहिए क़ी हम सभी मानव हैं और परस्पर एक दुसरे के प्रति सद्व्यवहार और सहायता करने के लिये उत्पन्न हुए हैं...हम यहाँ देखते हैं क़ी ज्योंही किसी नवयुवक और नव युवती को अकेले होने का अवसर मिला,त्योंही वह नवयुवक उसके रूप लावण्य क़ी प्रशंसा आरम्भ कर देता है और किसी स्त्री को विधिवत पत्नी के रूप में अंगीकार करने से पूर्व वह दो सौ स्त्रियों से प्रेमाचार कर चुका होता है ...
         जब मै भारत वर्ष में था और इन चीजों को केवल दूर से देखता सुनता था तब मुझे बताया गया क़ी यह केवल मनोविनोद है इसमें कोई दोष नही है, उस समय मैंने इस पर विश्वास कर लिया था..तब से अबतक मुझे बहुत यात्रा करने का अवसर आया है ,और अब मेरा यह दृढ़ विश्वास हो गया है क़ी यह अनुचित और अत्यंत दोषपूर्ण है अंतिम प्रश्न --
आपका अपने देश क़ी स्त्रियों के लिये क्या संदेश है ?

वही जो पुरुषों के लिये है...भारत और भारतीय धर्म के प्रति विश्वास और श्रद्धा रखो ,तेजस्वी बनो ,हृदय में उत्साह भरो...भारत में जन्म लेने के कारण लज्जित न हों ,वरन उसमें गौरव का अनुभव करो ,.स्मरण रखो, यद्यपि हमें दुसरे देशों से कुछ लेना अवश्य है ,पर हमारे पास दुनियां को देने के लिये ,दूसरों क़ी अपेक्षा सहस्त्र गुना अधिक है ....
 प्रस्तुती ---विवेक सुरंगे  
(उत्तिष्ठ जागृत पुस्तक के कुछ अंश  )

Monday 9 January 2012

योरोप का उद्देश्य है --सबका नाश करके स्वयं अपने को बचाए रखना...


तुम्हारे यूरोपीय पंडितों का यह कथन क़ी आर्य लोग किसी अन्य देश से आकर भारत पर झपट पड़े और वे यहाँ के मूल निवासियों का समूल नाश कर उनकी भूमि को बलपूर्वक छीन कर यहाँ  पर बस गये ,निरी मूर्खता और वाहियात बात है..आश्चर्य तो इस बात का है क़ी हमारे भारतीय विद्वान् भी उन्ही के स्वर में स्वर मिलाते हैं और यही सब झूट हमारे बाल बच्चों को पढाई जाती है..यह घोर अन्याय है..मैंने पेरिस क़ी कांग्रेस में इसका प्रतिवाद किया था ,मैं अनेक भारतीय एवं योरोपीय नेताओं से इस विषय क़ी चर्चा कर रहा हूँ और आशा  करता हूँ क़ी समय मिलने पर मैं इस मिथ्या सिद्धांत क़ी अनेक आंतरिक असंगतियों को दर्शा सकूंगा..मेरा आप लोगों से यही अनुरोध है ,कृपया अपने प्राचीन ग्रन्थों शास्त्रों क़ी अच्छी प्रकार से छान बीन कीजिये और स्वतंत्र निष्कर्ष निकालिए ...
योरोपियनों को जिस देश में मौका मिलता है वे वहां के आदिम निवासियों का नाश करके स्वयम मौज से रहने लगते हैं, इसलिये वे समझते हैं क़ी आर्य लोगों ने भी वैसा ही किया होगा.. 
यदि ये पश्चिमवासी अपने स्वदेश में केवल सीमित साधनों पर ही पूर्णतया जीवन यापन करते रहते, तो उनका वह दरिद्र जीवन उनकी अपनी सभ्यता क़ी कसौटी पर ही घृणित आवारों का जीवन कहलाता,अतः उन्हें दुनिया भर में उन्मत्तों के समान यह खोजते घूमना पड़ता है क़ी वे लूट पाट एवं हत्या के द्वारा दूसरों क़ी भूमि के शोषण एवं स्वयम सुखोप भोग कर सकें ...इस लिये उन्हों ने निष्कर्ष निकला क़ी आर्य लोगों ने भी वैसा ही किया होगा..यह केवल उनका अनुमान है ,कल्पना क़ी उडान मात्र , तो कल्पना क़ी इस उडान को अपने पास ही रखो ...
   किस वेद अथवा सूत्र में तुमने पढ़ा है क़ी आर्य किसी दुसरे देश से भारत में आये ?..इस बात का प्रमाण तुमें कहाँ मिला है क़ी उन लोगों ने जंगली जातियों को मार काट कर यहाँ निवास किया ? 
 --स्वामी विवेकानन्द    (प्राच्य और पाश्चयात्य) 
-- संकलन --विवेक सुरंगे 

Sunday 8 January 2012

स्वामी विवेकानन्द क़ी उम्मीदें.. आपसे और मुझसे ...

आज सारी दुनिया में चार बड़ी हलचलें चर्चा में हैं .. 
1.पूंजीवाद से निर्मित तथाकथित आर्थिक मंदी, बेरोजगारी और भुखमरी.. 
2..धर्म के नाम पर शोषण, उपनिवेशवाद और ईश्वर के तथा कथित फरमान के चलते घोर प्रताड़ना, हिंसा, और आतंकवाद ..
3..जीवन के विकृत सिद्धांतों को मान लेने और उन पर आचरण करने से प्राकृतिक असंतुलन, ग्लोबल वार्मिंग, बाढ़, भूकम्प और हर ओर प्रदूषण का बढना ..
4..हर व्यक्ति के लिये आदर्श आचार संहिता पर आम सहमती नही होने से उत्पन्न टकराव, परिवारों का बिखरना .. इसी प्रकार जीवन के मिथ्या सिद्धांतों को स्वीकार कर लेने क़ी वजह से स्वार्थ, भोग, छल-कपट, ईर्ष्या -द्वेष तथा अप्राकृतिक जीवन शैली का बढना. फल स्वरूप रोगों का विस्तार तथा कानून और व्यवस्था का नियन्त्रण से बाहर हो जाना ..

हर देश में.. सरकारों, सामाजिक संगठनों और कबीलों व जन पंचायतों पर निपट स्वार्थियों का कब्जा है.. ये सभी बोलते कुछ हैं और करते कुछ और हैं.. पहले के लोग.. भाट, चारण जैसे लोगों को रखा करते थे, आज के लोग, मीडिया को मैनेज करके अपनी-अपनी जयजयकार करवाते हैं.. जनता का मनोबल और आत्मविश्वास तब भी गिरा हुआ था, आज भी गिरा हुआ है..

दरिद्र ही नारायण -
उन्हें पीड़ा थी क़ी ईश्वर ने जब सारे मनुष्यों को एक जैसा ही बनाया है तब समाज के नेतृत्व कर्ता, पिछड़े या दरिद्र वर्ग से क्यों नही निकल रहे ?. उस पूरे वर्ग को, भूख, अशिक्षा और समस्त कमजोरियों से मुक्त करा कर विश्व व्यवस्था को  सुधारना यही उनका लक्ष्य था..
वे भी जानते थे यह कार्य आसान नही है .. अज्ञान से लड़ने और कमजोरियों पर विजय पाने के लिये भी 'मैन पावर ' और साधनों क़ी जरूरत थी.. वेद और उपनिषद उनके लिये शक्ति प्रदाता थे.. गीता में वर्णित सांख्ययोग और कर्मयोग को उनके जीवन आचरण में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है.. इसे ही उन्होंने औरों के लिये भी सुझाया था.. उनकी मान्यता थी क़ी हिंदुत्व को धारण किये अपने समाज में, लम्बे समय से सुधार नही किया गया तो अनेक विकृत मान्यताओं और परम्पराओं ने स्थान बना लिया है.. यही हमारी कमजोरी का कारण है..
वे भारत ही नही... विश्व रत्न थे.. जब उनहोंने अपने विचार विश्व मंच पर रखे, तो आम जनता ने उन्हें सर माथे पर लिया था .. लूट, हिंसा, शोषण तथा शक्तिवानों के हर तरह के निरंकुश भ्रष्टाचार से निपटने के लिये, उन्होंने जो विचार प्रकट किये वे सुधारवादी ही नही, सहज व्यावहारिक भी थे. उन्होंने एक माहौल बना दिया था, लोगों क़ी आँखे खोल दी थीं. लोगों ने उसे दीवानों क़ी तरह पसंद भी किया था ..
उनका रास्ता आम जनता को समझदार और सशक्त बना देने वाला था. बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य और उच्चतर ज्ञान के अलावा ईश्वर से साझेदारी, जैसे विषय उनकी कार्य सूची में थे .. हम उनके हिसाब से चलते तो तथाकथित धार्मिक  दुकानदारियाँ अब तक दिवालिया हो चुकीं होतीं. इसलिए न तो धर्म के ठेकेदारों नें, ना ही सरकारों ने उनके सुझावों पर कोई कार्य किया .. साम्राज्यवाद तो शोषक था ही समाजवाद और साम्यवाद को भी लोगों ने ठुकरा दिया है ... अब फिर से विवेकानन्द क़ी याद आ रही है .. 

पश्चिम क़ी जीवन शैली.. बचकाना प्रयोग ..
तलवार और दबाव के द्वारा, भोले-भाले लोगों को अपने धर्म में शामिल करना, उनको ज्ञान से वंचित करके उन्हें अपनी सत्ता का साधन बनाना यही पश्चिम क़ी रीत रही है. उन्होंने जिस प्रकार हिन्दुओं क़ी कुरीतियों को नकार दिया था, उसी प्रकार ईसा और मुहम्मद क़ी शिक्षाओं का अपने साम्राज्य के लिये दुरूपयोग करने वालों का भी उन्होंने जम कर विरोध किया था.. अपने से भिन्न धर्म वालों को स्वीकार नही करना, जो मूर्ती पूजा करता है, हमारे पैगम्बर और हमारे धर्म को नही मानता, उसे हमारा धर्म स्वीकार करना पड़ेगा या मरना पड़ेगा, ऐसी मान्यता के वे घोर विरोधी थे ..
आज पश्चिम क़ी जीवन शैली ने दुनिया में भयंकर संकट पैदा कर दिया है.. किन्तु उन्होंने तो आज से 130 वर्षो पूर्व ही इन यूरोपीय, अमेरिकी देशो क़ी व्यवस्था को नजदीक से देखा परखा और रिजेक्ट कर दिया था.. उन्होंने जो कारण और तर्क दिए थे, वे आज भी खरे प्रमाणित देखे जा सकते हैं, उनकी मान्यता थी क़ी उपस्थित विकृति के बावजूद भी हिन्दू समाज हजारों वर्षों से एक व्यवस्था बनाये हुए है, जबकि वहां वे जिस तरह समाज को स्थापित करने जा रहे हैं वह तो बनने के पहले ही बिखरते जा रहा है.. ऐसी अवस्था में हिंदुत्व क़ी स्थापित व्यवस्था को छोड़ देना कभी भी बुद्धिमानी क़ी बात नही हो सकती.. बल्कि यह तो सीधी सीधी मूर्खता ही है.. आवश्यकता है वेदों और उपनिषदों के वर्णित सिद्धांतों पर स्थापित अपने समाज में ही, अपेक्षित सुधार कर लिये जाएँ.. क्योंकि इस सिस्टम में आज विकार दिख रहे हैं फिर भी, अपनी इस विकृत अवस्था में भी यह समाज व्यवस्था पश्चिम से तो लाख दर्जे बेहतर है...

विवेकानन्द क़ी प्रासंगिकता --
पश्चिमी सोच रखने वाले और धार्मिक रूप से असहिष्णु लोगों का आज सभी ओर वर्चस्व दिख रहा है.. हिन्दुओं में भी पढ़ा -लिखा सम्भ्रांत वर्ग स्वयं भोगों में लिप्त और शक्तिहीन है.. ऐसे में उम्मीदें शेष भारत से ही हैं.. विशेष कर शेष भारत के युवाओं से.. शक्ति वहीं से खड़ी हो सकती है, उनके दिलों में आज भी हिंदुत्व के प्रति श्रद्धा विद्यमान है, उनमें कष्ट सहने का माद्दा भी है, लेकिन वे आर्थिक रूप से कमजोर हैं, दरिद्र हैं, हमें पहले उनकी सेवा करनी है....
आज क़ी स्थिति बड़ी विचित्र है.. आज साक्षात् विवेकानन्द भी दिल्ली के संसद भवन में खड़े होकर हिंदुत्व और वेदांत क़ी शिक्षाओं को जीवन में उतारने क़ी बात कहें.. तो मुझे इस बात में कोई शक नही है क़ी आज की संसद उन्हें भी साम्प्रदायिक करार दे.. आज तो उन पर भी प्रतिबन्ध लगाने के लिये हल्ला मच जाएगा.. ईसा को सूली पर चढ़ा देने वाली मानसिकता के ही लोगों का वर्चस्व है.. हमारी समस्त आशाओं का केंद्र तो वह हिदू समाज है जो हजारों वर्षों से पीड़ित, उपेक्षित पड़ा है... हमें उसे शक्ति सम्पन्न बनाना है.. इसके लिये लोग आगे आएं..
भारत फिर से शक्तिशाली बनें.. और विश्व को बेहतर दिशा दे .यही विवेकानन्द चाहते हैं...
 -- विवेक गोविन्द सुरंगे